गणेश चतुर्थी


भाद्रमास की चतुर्थी को पार्वतीनंदन का जन्मदिन मनाते हैं, पार्वतीनंदन के बारे में कई कथायें हम सब ने सुनी हैं, अतुलनीय बुद्धि-विवेक के स्वामी होने से प्रथम पूज्य और गणाधिपति हैं जिससे भक्त जन इनके गणेश, गणपति आदि अनेकों नाम श्रद्धा से लेते हैं।
गणेश उत्सव चतुर्थी से आरंभ हो कर चतुर्दशी तक मनाया जाता है।

पर आज के समय में अंधानुकरण करने की प्रथा सी चल पड़ी है। और कारण व महत्व जाने बिना ही किसी भी काम को करने लग जाते हैं। पर हमारे शास्त्रों में हर त्योहार और उसकी रीत का मूल कारण महत्व के साथ दिया है।

हिन्दु सनातन धर्म के सभी उत्सव और व्रत आध्यात्मिक और बैज्ञानिक महत्व से युक्त होते है। हमारे उत्सव ब्रह्मांड की खगोलीय घटना, धरती के वातावरण परिवर्तन, मानवी के मनोविज्ञानिक और सामाजिक कर्तव्यों, ध्यान एवम् मोक्ष प्राप्ति के उचित समय को ध्यान में रखकर निर्मित किए गए है। उचितनियम किए जाने उत्सव से जीवन के सभी संकट मुक्त हुआ सकता है।

वेदव्यासजी ने जब महाभारत ग्रंथ की रचना की तब महाकाव्य रुप में इस ग्रंथ को लिखने का विवेक पूर्ण सामर्थ्य किसी में न था, तब गणेश जी का आवाहन वेदव्यासजी ने किया और गणपति जी ने महाभारत लेखन का कार्य भार लिया, यह ग्रंथ भाद्रमास की चतुर्थी से चतुर्दशी तक बिना एक क्षण रुके दिन रात गणपति जी ने लिखा। महाकाव्य लेखन के अनवरत श्रमसाध्य कार्य से गणपति जी के शरीर में गर्मी न बढ़े इसके लिए वेदव्यासजी ने पहले दिन मिट्टी का लेपन किया और गणपति जी के मन भावते पकवानों का प्रतिदिन भोग समर्पित किया। मिट्टी के लेपन के बाद भी दस दिनों बाद ग्रंथ पूर्ण होने तक गणपति जी के शरीर की गर्मी अत्यधिक बढ़ गई, तब वेदव्यासजी ने मिट्टी का लेपन उतारने और गर्मी शांत करने के लिए गणपति जी को जल के मध्य पधराया।
तब से पार्थिव गणपतिजी की स्थापना और विसर्जन की प्रथा का आरंभ हुआ। और आज घर घर में गणेश स्थापन कर उनके मन पसंद मोदक एवं लड्डुओं का भोग श्रद्धा से अर्पित करते हैं और फिर दस दिन बाद गणेशजी का विसर्जन करते हैं।
पार्थिव अर्थात पृथ्वी (मिट्टी) से निर्मित मूर्ति, और सृष्टि का नियम है कि सृजन और विसर्जन से एक चक्र पूरा होता है। यही समझाने, याद दिलाने को निर्मित मूर्ति में देव-आवाहन और विसर्जन किया जाता है।
आज कल पार्थिव मूर्ति का स्थान प्लास्टर ऑफ पेरिस ने ले लिया, यहां तक देखा गया है कि कचरे से इकट्ठा की गई पोलीथीन भी मूर्ति के अंदर भर कर ऊपर से रंग-रोगन कर दिया जाता है। और इन्हीं मूर्तियों को समुद्र, नदियों, तालाबों में विसर्जित किया जाता है। जो कि अनुचित और हानि कर है। अतः मूर्ति को यदि विसर्जित करना है तो निर्माण के माध्यम और शुद्धि का विषेश ध्यान रखना चाहिए, तभी उसमें आवाहन करने पर देव का आविर्भाव होगा और हमारी मंगल भावना का स्वीकार्य होगा