दान एकादशी


भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को परिवर्तिनी, दान एकादशी कहते हैं |उस दिन से 20 दिनों तक परात्पर आनंद प्रभु श्रीकृष्ण ने दानलीला का अद्भुत खेल गोपिओं के संग प्रारम्भ किया। इस दान लीला में प्रभु ने संकरी खोर और दानघटी के स्थलों पर गोवर्धन के शिखर और तरेहटी पर गोपीजनों के मार्ग को रोक कर यह कहते हुए कि मैं इस व्रज का राजा हूँ और आप कंस को कर के रूप में दही मक्खन इत्यादि गोरस दे आओ यह उचित नहीं, अतः आज से में ही सबसे कर लूँगा और आप सबको मुझे ही देना पड़ेगा क्योंकि मैं ही तुम्हारा और सबका राजा, पालन कर्ता हूँ तो मुझे ही सब देना होगा। और जिन्होंने मना किया उनकी महि-गोरस की मटकी को फोड़कर महि का दान (कर) लेकर गोपिजनो के मान का मर्दन किया। गोपीजनो के मन, वाणी और इन्द्रियों रूपी गोरस का स्वयं में निरोध कराने हेतु दान के रूप में पान किया।
प्रभु ने तीन प्रकार (सात्विक, राजस एवं तामस) से दान लिए हैं। दीनतायुक्त स्नेहपूर्वक, विनम्रता से दान मांगे वह सात्विक दान है, वाद-विवाद और श्रीमंततापूर्वक दान ले वह राजस दान और हठपूर्वक, झगड़ा कर के अनिच्छा होते भी जोर-जबरदस्ती दान ले वह तामस दान है। अष्टसखाओ के कीर्तनों में इन तीनों प्रकार के दान का अति सुन्दर वर्णन मिलाता है।

प्रभु ने दानगढ में, दानघाटी, सांकरी-खोर में, गहवरवन में, वृन्दावन में, कदम्बखडी में, पनघट के ऊपर, यमुना घाट आदि विविध स्थलों पर व्रजभक्तों से दान लिया है और उन्हें अपने प्रेमरस का दान किया है। और वेदों के उस रहस्य को सहजता से समजाया कि वही सबके पालन कर्ता और दाता हैं तो हमारा कर्तव्य भी श्री कृष्ण को सब समर्पित करना ही है।ठीक

ऐसे ही श्रीमहाप्रभुजी ने कलयुग में भी दैवी जीवों को ब्रह्मसम्बंध कराके श्रीकृष्ण भक्ति का अलौकिक दान प्रदान किया है।और समर्पण का मार्ग प्रशस्त किया।।