गोवर्धन पुजा


भगवान श्रीकृष्ण अपने सखाओं और गोप-ग्वालों के साथ गाय चराते हुए गोवर्धन पर्वत पर पहुँचे तो देखा कि वहाँ गोपियाँ कई प्रकार के भोजन रखकर बड़े उत्साह से नाच-गाकर उत्सव मना रही हैं। श्रीकृष्ण के पूछने पर उन्होंने बताया कि आज के दिन वृत्रासुर को मारने वाले तथा मेघों व देवों के स्वामी इन्द्र का पूजन होता है। इसे 'इन्द्रोज यज्ञ' कहते हैं।(कोई भी यज्ञ करने से पहेले उसका साधन, फल , देवता और उद्देश्य जानना आवश्यक है, तो ही यज्ञ सफल होता है।) इससे प्रसन्न होकर इन्द्र ब्रज में वर्षा करते हैं जिससे प्रचुर अन्न पैदा होता है।
श्रीकृष्ण ने कहा कि इस दुनिया में मनुष्य अपने ही कर्मों से सुख-दुःख को प्राप्त करता है। कोई दूसरा उसको सुखी दुःखी नहीं कर सकता।
इन्द्र में क्या शक्ति है? उससे अधिक शक्तिशाली तो हमारा गोवर्धन पर्वत है। इसके कारण वर्षा होती है। अत: हमें इन्द्र से भी बलवान गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। बहुत विवाद के बाद श्रीकृष्ण की यह बात नंदबाबा के साथ सब व्रजवासियों ने भी मान ली। सब ने कहा..'हमारो कान्ह कहे सोई कीजे.. हमारो कान्ह कहे सोई कीजे...।'
और एसे चार सौ साल से चली आ रही रूढ़ी प्रथा थी उसको भंग किया। अगर आप श्री कृष्ण के सच्चे भक्त हो तो एसे ग़लत रूढ़ीवाद के खिलाफ क्रांति करनी होगी।
ब्रज में इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा की तैयारियाँ शुरू हो गईं। सभी गोप-ग्वाल अपने-अपने घरों से पकवान लाकर गोवर्धन की तराई में श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि से पूजन करने लगे। श्रीकृष्ण द्वारा श्रीगोवर्धन रूप में सभी पकवान चखने पर व्रजवासी खुद को धन्य समझने लगे।
नारद मुनि भी यहाँ 'इन्द्रोज यज्ञ' देखने पहुँच गए थे। इन्द्रोज बंद करके बलवान गोवर्धन की पूजा व्रजवासी कर रहे हैं, यह बात इन्द्र तक नारद मुनि द्वारा पहुँच गई और इन्द्र को नारद मुनि ने यह कहकर और भी डरा दिया कि उनके राज्य पर आक्रमण करके इन्द्रासन पर भी अधिकार शायद श्रीकृष्ण कर लें। इन्द्र गुस्से में लाल-पीले होने लगे। उन्होंने मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में जाकर प्रलय पैदा कर दें। व्रजभूमि में मूसलाधार बरसात होने लगी। बाल-ग्वाल भयभीत हो उठे। श्रीकृष्ण की शरण में पहुँचते ही उन्होंने सभी को गोवर्धन पर्वत की शरण में चलने को कहा। वही सबकी रक्षा करेंगे। जब सब गोवर्धन पर्वत की तराई मे पहुँचे तो श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को अपनी कनिष्ठा अंगुली पर उठाकर छाता-सा तान दिया और सभी को मूसलाधार हो रही वृष्टि से बचाया।
सुदर्शन चक्र के प्रभाव से व्रजवासियों पर एक बूँद भी जल नहीं गिरा।
प्रभु एक हाथ से गोवर्धन उठाते हैं और दूसरे हाथ से मुरली बजा रहे है। और उसमें जैसे बादल भी ताल मिला रहे हों एसे गरजते है।.. "कान कुँवर के कर पल्लव पर, मानो गोवर्धन नृत्य करें...।"

यह चमत्कार देखकर इन्द्रदेव को अपनी की हुई गलती पर पश्चाताप हुआ और वे श्रीकृष्ण से क्षमा याचना करने लगे। सात दिन बाद श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत नीचे रखा। इस प्रकार इंद्र का मान भंग करा। इंद्र को प्रभु ने कहा कि इस विश्व में जो भी ऐश्वर्य है, वो मेरा है। उसको अपना मान कर कभी अहंकार मत करना।
प्रभु ने इस लीला द्वारा व्रजवासियों का आश्रय स्वयं में सिद्ध किया। और व्रजवासियों को प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा और अन्नकूट (56 भोग) का पर्व मनाने को कहा। तभी से यह पर्व के रूप में प्रचलित है।

भगवान को अर्पित किए जाने वाले छप्पन भोग के पीछे कई रोचक कथाएं हैं।
दिन में आठ प्रहर भोजन करने वाले व्रज के नंदलाल कन्हैया का गोवर्धन लीला में लगातार सात दिन तक भूखा रहना उनके भक्तों के लिए कष्टप्रद बात थी। भगवान के प्रति अपनी अनन्य श्रद्धा भक्ति दिखाते हुए व्रजवासियों ने सात दिन और आठ प्रहर का हिसाब करते हुए 56 प्रकार का भोग लगाकर अपने प्रेम को प्रदर्शित किया। तभी से भक्त जन कृष्‍ण भगवान को 56 भोग अर्पित करने लगे।
श्री कृष्ण को अपने पति के रूप में प्राप्ति हेतु किया गया कात्यायनी मां की व्रत के समाप्ति और मनोकामना पूर्ण होने के उपलक्ष्य में ही उद्यापन स्वरूप गोपिकाओं ने छप्पन भोग का आयोजन किया।
गौलोक में भगवान श्रीकृष्‍ण राधिका जी के साथ एक दिव्य कमल पर विराजते हैं। उसकी प्रत्येक पंखुड़ी पर एक प्रमुख सखी और मध्य में भगवान विराजते हैं। इस तरह कुल पंखुड़ियों की संख्या छप्‍पन होती है। ऐसे 56 प्रकार के भक्तों के (सखी) भाव से 56 भोग धराए जाते हैं।