स्वामी में से सेवक हुए


सारस्वत कल्प में गोकुल में बंदी नाम की एक गोपी यशोदा जी की दासी बनकर सेवा कर रही थी। नंद नन्दन माखन की चोरी करते हुए मैया के हाथों पकडे गये। तब मैया नंद नन्दन को रस्सी से बाँध रहीं थी, पर उनसे बंध नहीं पा रहे थे रस्सी कम होने की वजह से। तब वो दासी बनी गोपी ने बिना मांगे स्वयं रस्सी ला कर यशोदाजी को दी। यह रोहिणीजी को देख कर बिलकुल अच्छा नहीं लगा, क्योंकि ये दासी यशोदाजी की नज़रों मे अच्छा बनने के लिए जो कर रही थी, उस से ठकोरजी को परिश्रम हो रहा था जो बिल्कुल उचित नहीं। इसलिए रोहिणीजी ने उस दासी को मृत्यु लोक मे जन्म लेने का श्राप दे दिया।
वही बंदी दासी का जन्म मथुरा में सानोढिया ब्राह्मण के वहाँ पुत्र के रुप में हुआ। वो बचपन से ही वैराग्य दशा में रहते थे। वह मथुरा से वृंदावन आ कर रहने लगे और हर घड़ी प्रभु के विरह में रहते- कि कब प्रभु कृपा होगी। ब्रजवासी आकर उनसे कहते कि हमें अपना सेवक बनाएँ तो वह उनको सेवक बनाते। और कहते कि मुख से सदा ठाकुरजी का नाम कहिये।
एक रात को गडूस्वामी को बहुत विरह हुआ। चौद्धार आसु बहा के रुदन करने लगे। ऐसे में ही थोड़ी सी नींद लगने पर स्वप्न में श्रीठाकुरजी ने आज्ञा करी- “सुबह श्रीवल्लभाचार्यजी केशीघाट पर स्नान करने पधारेंगे तब तुम उनके शरण में जाना और उनकी कृपा से तुम मुझको प्राप्त करोगे।” आँख खुलने पर गडूस्वामी बड़ी उत्सुकता से सुबह का इंतजार करने लगे। कि कब आचार्यजी पधारें और कब मिलूँ।
श्रीआचार्यजी गिरिराजजी से केशीघाट पधार, श्रीयमुनाजी स्नान कर संध्यावंदन करने बिराजे तब गडूस्वामी ने कृष्णदास मेघन से पूछा ये कैन हैं ।तब कृष्णदास मेघन ने कहा- श्रीवल्लभाचार्यजी गिरिराज से पधारे हैं। तब गडूस्वामी दंडवत करके शरण लेने की विनती करे। श्रीआचार्यजी ने कहा- “तुम तो स्वामी कहलाते हो, दुसरो को सेवक करते हो, अब क्यों अपने सेवक होने की बात कर रहे हो।” तब गडूस्वामी ने स्वप्न की सब बात बतायी। "महाराज, मुझे प्रभु की आज्ञा हुई है कि आपका सेवक बनूँ, आप कृपा करोगे तो मुझे प्रभु प्राप्ति होगी।

महाप्रभुजी ने उनको श्रीयमुनाजी में स्नान करवा कर ब्रह्मसंबंध कराया।और गडूस्वामी ने उनके जो सेवक थे, उनको भी नाम दीक्षा दिलवाई।
गडूस्वामी ने कहा कृपानाथ मुझ पर इतनी कृपा करो कि मेरा मन रात-दिन ठाकुरजी की सेवा में लगा रहे, दूसरे कहीं पर भी भटके नहीं। श्री महाप्रभु जी ने अपना चरणामृत दिया और “त्रिविध नामावली” ग्रंथ रच के पाठ कराया।
उसके बाद आज्ञा करी, 'गडूस्वामी श्रीभागवत के दशम स्कंध में जो प्रभु की लीलाऐं हैं उसी के आधार पर ये ग्रंथ है। जिसमें प्रभु की बाल लीला, राज लीला, प्रौढ़ लीला का समावेश हो रहा है।

बाल लीला के पाठ से प्रभु में प्रेम बढ़ता है।
राज लीला के पाठ से प्रभु में आसक्ति बढ़ती है।
प्रौढ़ लीला के पाठ से प्रभु में व्यसन होता है। अंत: अह्रनिश हृदय में भगवद् लीला का अनुभव होता हैं।
दशम स्कंध प्रभु का हृदय है। उसमे निरोध लीला है। इसलिए इस स्कंध का पाठ करने से प्रभु में निरोध होगा और प्रेम कृपा आप पर होगी, ये पाठ नित्य करना चाहिए।

। सिद्धांत नवनीत ।

१) दास का काम है प्रभु को सुख हो, वही अपना स्वधर्म है। प्रभु को परिश्रम हो ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए। वैष्णव को दास बनके ही रहना चाहिए, स्वामी बन के जग में पुजने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए।

२) वैष्णव को हर समय प्रभु का विरह करना चाहिए। संसार के भोग भोगने से कोई लाभ नहीं होता। जीवन का सही लाभ प्रभु भक्ति में है।

३) "प्रभु नामावली" ग्रंथ का पाठ वैष्णव को हर दिन करना चाहिए।
४) श्री महाप्रभुजी और ठाकुरजी का चरणामृत अलौकिक है। चरणामृत लेने से अपने बाह्य और अंदर शरीर की शुद्धि होती हैं और पवित्र बनता है। चरणामृत अवशय लेना चाहिए।