भगवदियों का संग क्यों करना चाहिए


आचार्य श्रीमहाप्रभुजी के सेवक जनार्दनदास चोपड़ा थानेश्वर के निवासी थे। वह थानेश्वर में क्षत्रिय के घर जन्मे थे, उनके पिता हाकिम के पास सशस्त्र चाकरी करते थे। एक बार लड़ाई में वह भाग कर घर आ गए और हाकिम के डर की वजह से घर छोड़ कर भाग गए। पिता की वजह से जनार्दनदास चोपड़ा को बंदी खाने में भेज दिया गया और बिना अपराध के सजा मिली। पिता के न मिलने पर कड़ी पूंछताछ हुई, पर क्योंकि जनार्दनदास हमेशा सच ही बोलते थे तो बाद में हकिम को अपनी ग़लती का अहसास हुआ और उनको छोड़ दिया गया। तब वह पिताजी को ढूँढ कर घर वापस ले आने के लिए निकले, वहाँ रास्ते में 2 सोने की मोहर मिली। जिन्हें उन्होंने खुश हो कर रख लिया। और आगे चलने पर वासुदेवदास छकड़ा मिले, जिन्होंने कहा आप मानो तो एक बात कहूँ! वासुदेवदास ने कहा कि आप दैवी जीव हो। आपने बहुत ही दुख अपने जीवन में देखा है, आपके पिता दक्षिण की ओर गए हैं और एक महीने में उनकी मृत्यु होने वाली है। ये सब श्रीमहाप्रभुजी की कृपा से मैं काल की गति को जान पाता हूँ इसलिए यह भी जानता हूँ कि दो स्वर्ण मुद्राएं आपको जो मिली है वे किसी ब्राह्मण को दीजिए।अन्यथा यह भी आपको कष्ट देने वाली हैं। जो जो बात आप के लिए उचित थी वो बताई अब आपको उचित लगे वैसा कीजिए।(यह इसलिए कहा कि सोने की मोहर जो है वो दूसरे की है। अतः इससे ये समझाते हैं कि हमें अपने हक का ही लेना चाहिए।) जब वासुदेवदास की सारी बात जनार्दनदास ने समझी तब दृढ विश्वास हुआ और फिर दंडवत करते हुए कहा कि अब मैं श्रीमहाप्रभुजी का सेवक अवश्य बनूँगा। वासुदेवदास छकड़ा ने सच्चे पुरोहित की तरह उनको सच्चा ज्ञान दिया कि अब काशी नहीं अपितु गोकुल जाओ, श्रीमहाप्रभुजी की सेवा हेतु। और तब वे गोकुल आए वहाँ श्रीआचार्य चरण को दंडवत करके कहा, कि आप पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, आप हमें अपना सेवक बनाएँ। तब श्रीमहाप्रभुजी ने श्रीगोवर्धननाथजी के चरणों में आत्मनिवेदन करवाया और जनार्दनदास को कहा कि अब आप सेवा करें, तब जनार्दनदास ने कहा, आप जिस प्रकार बताए वैसे ही करूँ। और तब श्रीमहाप्रभुजी ने श्रीनाथजी की पाग उसको सेवा में पधराई। इस तरह वासुदेवदास के संग से जनार्दनदास को श्रीआचार्य चरण की शरण मिली। जीवन में एक क्षण भगवदीय का सगं करने से आचार्य श्री के कृपा पात्र बन गए।सिद्धांत नवनीत:१) कैसी भी मुश्किलें आऐ पर वैष्णव को असत्य नहीं बोलना चाहिये। हमेशा सत्य ही बोलना चाहिये। श्रीगुसाई जी की आज्ञा है के नोकरी - धंधे मे भी असत्य बोलना नहीं चाहिये। २) जिसपे हमारा हक़ न हो, ऐसा कुछ भी मिले तो उसे दान कर देना चाहिये। हमारी खुद की मेहनत की कमाई से ही सेवा करनी, जीवन जीना चाहिये। ३) वैष्णव का संग हमेशा करना चाहिये। हमेशा वैष्णव के वचन में विश्वास रखना चाहिये। जितनी हो सके उतनी वैष्णव की सेवा करनी चाहिये। वैष्णव की कृपा से ही हरि- गुरु की दृढ़ शरण प्राप्त होती है। ४) श्रीमहाप्रभुजी के चरण कमल का दृढ़ आश्रय करना चाहिये। उससे ही हमारा कल्याण होगा। आश्रय रखना मतलब उनके ग्रंथों में कहे हुए सिद्धांतों का जीवन में दृढ़ता से पालन करना।