सहज स्नेह का साक्षात स्वरूप



प्रयाग के पास अड़ेल गाँव में सुतार (बढ़ई) के पुत्र थे श्यामदास।
श्री वल्लभ अड़ेल पधारे, तब आपके प्रथम दर्शन से ही उनके हृदय में महाप्रभुजी के प्रति प्रेम हुआ, निर्मल और सहज स्नेह!
वो स्नेह दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। सुबह उठते ही श्यामदास दौड़ के श्रीमहाप्रभुजी के पास आ जाते थे। दूसरे वैष्णव चरण स्पर्श कर के घर चले जाते पर श्यामदास वहाँ से दूर जाते ही नहीं ।
सिर्फ महाप्रभुजी के दर्शन करते रहते।परिवार जन जबरदसती कर के ले जाते तो वो फिर से आ जाते।

रात को बस घर जाना होता। पर नींद आती किसे? और गलती से आ भी जाऐ तो स्वप्न में भी श्रीवल्लभाचार्य जी को देखते।
घर के काम काज में मन नहीं लगता था। तो माता -पिता नाराज़ हों, रोकने का और कोई उपाय न मिल सका तो आखिर मे थक कर इल्लमागारूजी को बिनती करने गए, "मैया, आपके लालन को कहो तो अच्छा। श्यामदास उन पर दीवाना बन बैठा है। घर का काम काज सब छोड़ दिया है खाने पीने का भी भान नहीं। शादी करवाई है, पर पत्नी को भी नहीं पहचानता है। किसी का कहना नहीं मानता।"
मैया ने पुत्र वल्लभ को कहा , "आप श्यमदास को यहाँ आने को लिए मना कर दो।" तब श्रीवल्लभाचार्य जी ने एकांत में बुला कर कहा "श्यामु आप बार बार यहाँ मत आना। माता पिता चिंतित होते हैं।"
ये सुनते ही श्यामदास का मुख उदास हो गया। "तब उनको समझाते हुए कहा, " चिंता ना करो, तुम जैसे यहाँ आते हो , वैसे अब मैं आया करूँगा तुम्हारे घर। अब हम थोड़ी बिना मिले रह सकते है !"
कैसा एक दूसरे से प्रेम लगा है, वो दोनों के हृदय में?
अब श्यामदास के घर श्री वल्लभ बार बार पधारते तो इल्लमागारूजी ने ये देख कर फिर कहा :"वल्लभ! ये आपको शोभायमान नहीं है, आपका स्थान समझो, रोज किसी के घर जाना अच्छा नहीं!
माता की आज्ञा तो पालन करना ही चाहिये। इसलिए श्यामदास को बुला कर कहा :"श्यामु ये चविर्त ताम्बुल से तुम्हारे हृदय में मेरा स्वरूप पधरा रहा हूँ। अब हम दोनों को मिलने की जरूरत नहीं रहेगी जब सच्चा स्नेह और प्रेम होता है, तब बाह्य मिलन की आवश्यकता नहीं रहती। वो प्राण के साथ ही जुड़ जाते है, भाई!"

श्यामदास घर आ गए, काम काज करने का कुछ सोच रहे है, पर घर के या अपने लिए नहीं बल्कि, मेरे वल्लभ के लिए मै क्या करूं! उनके सुख हेतु में क्या क्या करुं? बस वही मन में चल रहा है। उछलित प्रेम अब स्थिर हो रहा है। और प्रेम की भावना से एक से एक उत्तम वस्तु बना रहे हैं। घर में जो चाहिये वो सब बनाते है। मैया जब पैसे देती तब रोने लग जाते। और कुछ नहीं लेते।

एसे सालों बीत गए, श्यामदास को महाप्रभुजी के स्नेह का अविरत अनुभव होता रहा। फिर आपश्री ने संन्यास का सोचा। तब अड़ेल से काशी पहुंचे भी नही और यहाँ अड़ेल में शयामदास के प्राण विरह से निकल गए। अड़ेल से कोई वैष्णव काशी गए, तब श्यामदास का समाचार श्री वल्लभ को निवेदन किया जिसे सुनते ही आप श्री उदासीन हो गए।
कुछ समय तक श्यामदास के विरह में आप मौन रहे। फिर वैष्णव समक्ष वचन उच्चारे “श्यामदास तो मेरे हृदय के स्नेह का साक्षत स्वरूप है। मेरे बिना वो नहीं जी सकता और मैं उसके बिना नहीं।"
श्रीवल्लभ लीला में पधारे उसके बाद श्यामदास जी के बनाए पादुका और पाटलें श्री गुसाईंजी ने सेवा में रखे। क्योंकि वह दो स्नेही हृदय का आधिदैविक स्वरूप थे। ये पादुका और पाटलें आज भी श्री नाथजी में बिराजते हैं।

धन्य है श्याम दास जी, जिन्होंने पुष्टिपथ में गुरु भक्ति का ऐसा उच्च आदर्श दिया।
भगवद् भक्ति कहो कि गुरु भक्ति कहो! दृष्टि अलौकिक बनने के बाद कोई भेद नहीं रहता।

सिद्धांत नवनीत:
१) श्यामदास के पिता धर्मिष्ठ थे। पहले उनको संतति नहीं थी,इसलिए अड़ेल के पास प्रयाग की त्रिवेणी में मकर स्नान का संकल्प लिया था। वहा एक बार स्वप्न में भगवत आज्ञा हुई; ‘अड़ेल में श्री यमुनाजी बिराजते है। तुम वहाँ हमेशा यमुना जी का पूजन करना, और धंधे के लिए वृक्ष कभी मत काटना । तुम्हारे यहाँ महान भक्त का पुत्र के रूप मे जन्म होगा।’ और आज्ञा अनुसार श्यामदास का जन्म हुआ ।

२) श्री हरिरायजी महाप्रभु इस वार्ता के भावप्रकाश में विशेष प्रकाश डालते हुए, संकल्पना समझाते हैं : ये श्यामदास श्रीठाकुरजी की लीला के अंतरंग सखा श्रीदामा का प्रागटय है। (श्रीदामा श्री स्वामीनी जी के भाई हैं)
एक दिन वन मे खेलते समय श्रीदामा श्रीठाकुरजी के कंधे पर चढ़े। ये बात श्री स्वामीनीजी को पता चली। तो अप्रसन्न हो के श्राप दिया; ' प्रभु को श्रम दिया इसलिए आपको भूतल पर जन्म लेना होगा।’
श्री महाप्रभुजी अड़ेल पधारे , तब वो २३साल के थे। दर्शन होते ही लीला का मित्र स्नेह स्फुरित हो आया और सहज प्रीति बंध गई। और जीवनभर बढ़ती गई।

३) जब तक श्री गुरूदेव में दृढ़ भक्ति सिद्ध न हो, तब तक श्री ठाकुरजी में दृढ़ भक्ति नहीं होती। इसलिए श्री हरि की सेवा के साथ श्रीगुरू सेवा करने की आज्ञा है। श्री गुरुदेव के स्वरूप में पूर्ण विश्वास और निष्काम, शुद्ध स्नेह जरूरी है।