पुष्टि मार्ग का भिन्न संन्यास



एक समय आगरा में भारी सूखा पड़ा था। गाँव के लोग अन्न-पानी के लिए दूर दूर निकल गए, ऐसे में एक गौड़ ब्राह्मण का परिवार था।वो भी गुजरात में आकर बसे, वहाँ परिवार में पुत्र जन्म हुआ उसका नाम नरहर रखा।
नरहर पंद्रह साल के हुए तब उनको एक संन्यासी का संग हुआ, संन्यासी ने नरहर को समझाया कि मनुष्य शरीर के कल्याण के लिए संन्यास लेना जरुरी होता है, और संसार में रहने से अधोगति होती है। इसलिए वो माता-पिता को बिना बताए घर छोङ के निकल गए और १ साल तक कठिन तपस्या की।

उनकी तपश्चर्या को देख लोग उनकी प्रशंसा करने लगे और दूर दूर से आने लगे और उनके सेवक भी बनने लगे। उनमें से एक वेणी कोठारी नाम के भी सेवक हुए, नरहर संन्यासी का एक नियम था कि वह स्त्री का मुख नहीं देखते थे। वो गाँव से दूर एकांत में मही नदी के किनारे झोपड़ी बना के रहने लगे। वहाँ से ४-५ मील दूर एक गाँव में एक तेली (घाची) रहता था उसको कोई संतान नहीं था। उसकी स्त्री ने सोचा, संन्यासी का आशीर्वाद मिले तो पुत्र हो सकता हैं। पर वो किसी स्त्री का मुख देखते नहीं तो उनके पास जाए कैसे? स्त्री ने बहुत सोचा, फिर खीर-पूरी बनाई और आकर झोपड़ी के बहार से ही कहा महाराज में आपके लिए भोजन लेकर आई हूँ।

नरहर संन्यासी ने पूछा आप कौन हो? क्या काम है?
स्त्री बोली: मैं गाँव से आयी हूँ आप के लिए भोजन लेकर। आप स्त्री का मुख नहीं देखते इसलिए बाहर साडी का घूँघट ले के खड़ी हूँ।
संन्यासी ने कहा में दो दिन से भूखा हूँ बाई; आपको मेरे पर ज़्यादा प्रेम है, क्योंकि आप संध्या के समय ४-५ मील चल के मेरे लिए खीर-पूरी लेकर आयी हो। इसलिए खुशी से दो। तब स्त्री बड़ी प्रसन्न हुई। वो फिर दूसरे दिन संध्या को आई, तब संन्यासी ने कहा आप ऐसे दो दिन से कष्ट लेकर मेरे लिए आ रही हो। मैं आप पर प्रसन्न हुआ। यहाँ हम दोनों के अलावा दूसरा कोई नहीं है तो आप अपना घूँघट उठा सकते हो, तब स्त्री ने घूँघट खोला।

भोजन लेकर आते १०-१२ दिन बीत गए।वह एक दिन सामने बैठ कर आग्रह पूर्वक भोजन करवा रही थी, तभी गुजरात के एक हाकिम संन्यासी की बढ़ाई सुन के मिलने आए। तब स्त्री से संन्यासी ने छुप जाने को कहा। हाकिम पूरी रात वहा रुका।
सुबह तेली अपनी पत्नी को ढूँढते हुए संन्यासी की झोपड़ी में आया। तब हाकिम वहाँ ही बैठा था। तेली ने कहा, मेरी पत्नी आपको कल भोजन देने आयी थी, आज सुबह तक घर नहीं आई। आपने तो उसे नहीं रोका? आप तो किसी स्त्री का मुख भी नहीं देखते?
"भाई, मुझे कुछ पता नहीं है " संन्यासी झूठ बोले।
तेली को विश्वास नहीं हुआ। और वो झोपड़ी में देखने गया और पत्नी को पकड़ के बाहर लाया, ये देख कर हाकिम बहुत गुस्सा हुए और गुजरात से दूर चले जाने को कहा।
नरहरी संन्यासी को बहुत पश्चाताप हुआ। वे गुजरात छोङ के व्रज आ गए। पर वो सोचने लगे स्त्री का संग करने से ये लोक और परलोक दोनों खरब होते हैं। प्रभु ने ये दंड दे कर मुझे बचा लिया।
नरहरी संन्यासी व्रज में ही वास करने लगे। ये बात उनके सेवक वेणी कोठारी ने सुनी तो वे मिलने आऐ, उन्हीं दिनों वृंदावन में श्री महाप्रभुजी बिराजे। वे दोनों महाप्रभुजी के दर्शन करने आऐ, कोठारी बोले; "गुरूजी, देखो तो सही, कैसे तेजस्वी पुरुष हैं ! उनका संग करने जैसा है "उन्होंने महाप्रभुजी को बिनती करी, 'महाराज आप आज्ञा दो तो हम आपके सत्संग का लाभ ले सकें '। आज्ञा मिलने पर दोनों महाप्रभुजी के साथ द्वारका जाने निकल पडे। रास्ते में नरहर संन्यासी ने पूछा, "महाराज, संन्यास धर्म बड़ा कि वैष्णव धर्म? "
तब महाप्रभुजी बोले कि इस युग में संन्यास धर्म सिद्ध करना बडा कठिन है। संन्यास लेने के बाद संन्यासी का चित्त एक क्षण भी नारायण के अलावा और कहीं जाए, तो उसका संन्यास धर्म नाश होता हैं। आप खुद का ही देख लो। और वैष्णव धर्म में प्रभु की प्रेम लक्षणा भक्ति होती है। वैष्णव को अगर दु:संग लग भी जाए तो भक्त के हृदय में भक्तिरूपी बीज का कभी नाश नहीं होता। कभी भी सत्संगी से मिलन होंने पर पुनः भक्ति बढ़ती है।और जड़भरत जी का प्रसंग सुनाए।
"महाराज, आपकी बात सही है, अब जो रीत से मेरा उद्धार हो वैसे करो। "
महाप्रभु जी ने कहा “आप संन्यासी हो, जगत में पूज्य हो, दूसरों को सेवक बनाते हो। स्वामी पद का त्याग कर के आप दास पद कैसे अपना सकोगे? जब स्वामी पद का त्याग करो तब शरण में आना। तब ही वैष्णव धर्म बढ़ेगा”
महाराज, इसी क्षण से में स्वामी पद का त्याग करता हूँ, मैं आपका दास हूँ, जैसी आपकी आज्ञा हो, वेसा ही करूँगा।

महाप्रभुजी आज्ञा करे- आज का दिन व्रत कर के सारी इन्द्रियों को शुद्ध करो। तब कल आपको सेवक बनाएंगे । इस प्रकार दूसरे दिन नरहर सन्यासी को शरण में लिया। वेणी कोठारी को भी आप ने व्रत कराए बिना ब्रह्मसंबंध कराया। नरहर संन्यासी ने पूछा "महाराज आप ने मुझे व्रत कराया और कोठारी को नहीं, ऐसा क्यों? "
महाप्रभुजी ने कहा "आप स्वामी पद पर थे। अनेक कर्म आपने किये थे, आपका मन अनेक जगह घूमा हुआ था। उसे स्थिर करवाने हेतु व्रत करवाया। और कोठारी गृहस्थाश्रम का दुःख जानते हैं। और धर्म कर्म नहीं किया है, मन कहीं भटका हुआ नहीं है। इसलिए उसको व्रत नहीं करवाया।
नरहर संन्यासी ने बिनती करी, "महाराज मुझे भक्ति मार्ग का संन्यास प्रकार का ज्ञान नहीं है। तो आप मुझ पर कृपा करें और समझाऐं।

श्रीमहाप्रभुजी ने तब "संन्यास निर्णय" नामक ग्रंथ की रचना की और नरहर संन्यासी को पढ़ाया, समझ आने पर नरहर संन्यासी के हृदय में पुष्टि भक्ति दृढ़ हुई।
सिद्धांत नवनीत
१) स्त्रीसंग महा बाधक है। वो मन को मलिन और पापी बनाता है। इसलिए वैष्णवों को परस्त्री संग से दूर रहना चाहिए। परस्त्री को माता समान मानना चाहिए।
२) पुष्टि मार्ग में संन्यास का कोई महत्व नहीं है। पुष्टि मार्ग में गृहस्थाश्रम ही महत्व का है। जो वैष्णव ठाकुरजी की घर में सेवा करते हैं, उनका घर ही गौलोक धाम बन जाता है।
३) भक्ति मार्ग में निष्कपट जीवों को जल्दी भक्ति सिद्ध होती हैं। जो अन्य मार्गों में भटकते हैं, उनको भक्ति सिद्ध नहीं होती।