प्रभुकृपा से सब सरल


बिहार में पटना से दूर एक गाँव में एक क्षत्रिय परिवार रहता था।उसके पड़ोस में एक गौड़ परिवार भी रहता था। क्षत्रिय के पुत्र का नाम किशोरीलाल और ब्राह्मण के पुत्र का नाम चंद्रशंकर था।दोनों एक ही उम्र के थे और हमेशा साथ खेलते- पढ़ते थे।
जब दोनों 15 साल के हो गए। उस समय श्री महाप्रभुजी पधारे महाप्रभुजी श्री जगन्नाथजी के दर्शन के लिये जा रहे थे।
किशोरीलाल के पिता श्री वल्लभप्रभुजी के दर्शन हेतु वहाँ मिलने गए। वहाँ उन्हें विचार आया कि इनके संग में हम पिता और पुत्र दोनों जगन्नाथपुरी के दर्शन करें, आज्ञा पा कर वे साथ में कुछ दिनों में जगन्नाथपुरी पहुँचे।
श्री महाप्रभुजी पधारें हैं ऐसा सुन के वहाँ के विद्वान शास्त्रों की चर्चा करने आए। श्रीमहाप्रभुजी ने वहाँ शास्त्रों की चर्चा करते हुए मायावाद का खंडन किया।तब किशोरीलाल ने अपने पिता को कहा:"बापूजी,वल्लभाचार्यजी केवल संत-महात्मा नहीं हैं, बल्कि वे ही भगवान हैं;आइए हम उनके सेवक बनें"। तब पिता ने कहा ‘देखो किशोरी ,मैं तो घर से एक निश्चय करके ही निकला हूं, कि रथयात्रा के दिन,मैं भगवान के रथ के नीचे कुचलना चाहता हूं।इसलिए मेरे उनके सेवक होने का कोई मतलब नहीं है।जो तुम्हें सही लगे, वह तुम करो।’
" बापूजी,आप आत्महत्या करने का निर्णय क्यों लेते हैं? मेरा विश्वास करो,श्रीमहाप्रभुजी के सेवक बनो। श्रीमहाप्रभुजी की सेवा - स्मरण में अपना शेष जीवन गुज़ारो"। देखो बेटा ,अब मैं बूढ़ा हो गया, मुझे जीने में कोई दिलचस्पी नहीं है। अब मेरे से कुछ हो सके ऐसा नहीं है, मैं रथ के नीचे मरने का संकल्प करके ही आया हू, इसलिए मैं अब यही करूंगा। अपने पिता के वचन सुनने के बाद किशोरीलाल चुप हो गए। दस दिन बाद रथयात्रा के दिन वैसा ही हुआ। किशोरीलाल अपने पिता की मृत्यु से दुखी थे,लेकिन उन्होंने इसे सहन किया। वे महाप्रभुजी के पास गए और उन्हें सारी बात बता कर पूछा,कि मेरे पिता का क्या होगा?अगर वह इस तरह से मर गए हैं तो उन्हें क्या गति प्राप्त होगी?
तब श्रीमहाप्रभुजी ने कहा कि ‘'किशोरी,मानव जीवन का सबसे बड़ा फल ईश्वर की प्राप्ति है।अगर उसके बिना यह शरीर छूट गया तो जीवन बेकार है,यही समझना चाहिए।लेकिन ये फल सभी के लिए सुलभ नहीं है,शास्त्रों में कहा गया है कि व्यक्ति मृत्यु के समय में,जहाँ भी उसका मन होता है, उसकी आत्मा उसके शरीर से निकलने के बाद वहीं जाती है।अंत में जैसी मति वैसी गति, तुम्हारे पिता को अंत में सुख भोगने की चाहत थी,इसलिए वह स्वर्ग गए है।थोड़े समय स्वर्ग का सुख मिलेगा,बाद में पृथ्वी पर वापस जन्म लेंगे।लेकिन तू एक दैवी जीव है।प्रभु कृपा से तू इस जन्म में भगवत प्राप्ति करेगा।तब तेरे संबंध से तेरे पिता का मोक्ष होगा।”
'महाराज,मुझे सेवक करो मुझे सेवा करने का बड़ा मनोरथ है, किशोरी ने कहा।
तब महाप्रभुजी ने आज्ञा दी ‘'किशोरी,अभी नहीं अभी तुम्हें सूतक है, बाद में तुम आना।फिर किशोरी का सूतक उतर जाने के बाद श्रीमहाप्रभुजी ने उन्हें नाममंत्र दिया और ब्रह्मसंबंध करवाया ।
बाद में आज्ञा करी "श्रीठाकुरजी का स्वरूप ले आओ "। फिर किशोरी जी बाजार से न्योछावर देकर ठाकुरजी का सुंदर स्वरूप ले आए।श्रीमहाप्रभुजी ने वह स्वरूप सेव्य करके उनको पधरा के दिया और सेवा की रीत सिखाई "किशोरी, अब तुम तुम्हारे घर जाओ और घर में मन लगाकर ठाकुर जी की सेवा करना "।
वहाँ किशोरीलाल का मित्र चंद्रशंकर उसको मिलने के लिए घर आया। उन दोनों में बहुत स्नेह था। किशोरीलाल ने सारी बातें चंद्रशंकर को बताई, उन्होंने सोचा चंद्रशंकर भी दैवी जीव है,किसी भी प्रकार से वैष्णव हो तो उनकी जिंदगी सार्थक हो।
चंद्रशंकर ने कहा, "भाई, मैं महादेवजी का सेवक हूं, तो अब मैं वैष्णव कैसे बन सकता हूं?" किशोरीलाल बहुत दुखी हुए लेकिन वे चुप रहे और घर आए, स्नान किया और श्रीठाकुरजी को उत्थापन कराया। श्रीठाकोरजी ने किशोर को आज्ञा दी,"चिंता मत करो,तुम्हारा मित्र भी मेरा कृपापात्र सेवक होगा "।
'महाराज उसने मुझे मना कर दिया है ,उसका तो मन ही नहीं है, तो किस प्रकार से वैष्णव बनेगा?
श्रीठाकुरजी ने आज्ञा करी, तेरा मित्र चंद्रशंकर एक दिवस तुम्हें ऐसा कहेगा कि मेरे घर पर खाना बनाकर भोजन करो। तुम उस दिन उसके घर जाना और उनके घर की कच्ची सामग्री से रसोई बनाना और ठाकुरजी को भोग धरके तुम वहां प्रसाद लेना।
'महाराज,आप यह क्या कह रहे हो? वह तो वैष्णव नहीं है ,अन्य मर्गीय है।उसके देव के आगे मैं भोग कैसे धरु ?उसके देव का प्रसाद कैसे लूं ?महाराज,श्रीमहाप्रभु जी ने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं की "।
"किशोरी,तुम चिंता मत कर। मेरी आज्ञा सर्वोपरी है।वह आपको बाधक नहीं होगा। तुम रसोई बना कर वहाँ भोग धरना,तब मैं वहां आ कर के तुम्हारा वह भोग ग्रहण करूँगा, महाप्रसाद तुम लेना और तुम्हारे मित्र को भी देना महाप्रसाद लेने से उनकी बुद्धि बदल जाएगी और वह वैष्णव होंगे।

'जैसी आपकी आज्ञा' किशोरी ने कहा।

कुछ समय के बाद ठंड के दिनों में भगवत प्रेरणा से किशोरीलाल ने सुबह होते ही श्री ठाकुर जी को राजभोग-आरती करके अनोसर कराया। और चंद्रशंकर के घर गए।तो चंद्र ने कहा बहुत दिन के बाद आए, आज तो तुम ही रसोई बनाना हम दोनों साथ में भोजन करेंगे'।
चंद्रशंकर ने खूब आग्रह किया किशोरी से तो श्रीठाकुरजी की आज्ञा याद आई।इसलिए कहा,'जैसी,तुम्हारी इच्छा, तुम मुझे कच्ची सामग्री दो तो मैं भोजन तैयार करुं।
उन्होंने अनसखडी सामग्री सिद्ध करी। फिर चंद्रशंकर के देव के पास भोग धराया। और हाथ जोड़कर मन ही मन में श्रीनाथजी का स्मरण करके विनती की, हे "कृपानाथ,आपकी आज्ञा का पालन किया है।श्रीमहाप्रभुजी की कानी से यह सामग्री आप आरोगें और चंद्रशंकर को भी अंगीकार करें"
श्रीगोवर्धननाथ जी तत्काल पधारे और भोग आरोगे। बाद में किशोरीलाल ने चंद्रशंकर दोनों ने महाप्रसाद लिया। किशोरी अपने घर गए और चंद्रशंकर फिर सो गए, तब उन्हें सपने में अपने देव के दर्शन हुए। और देव ने कहा ; 'ब्राह्मण,आज मैं भूखा रहा हूं।'
'प्रभु,आप कैसे भूखे रहे हो? मेरे मित्र ने आपको भोगा धराया,वह आपने क्यों नहीं आरोगा?"
'ब्राह्मण,वे वैष्णव हैं, उन्होंने श्रीवल्लभाचार्यजी की कानी से भोग धराया था ।श्रीगोवर्धननाथ जी का स्मरण करके, उनको आरोगने के लिए विनती की इसलिए श्री गोवर्धननाथजी स्वयं तुम्हारे वहां पधारें और वैष्णव की धरी हुई सब सामग्री आरोगे। मैं तो उनका दास हूं। श्रीगोवर्धननाथजी पूर्ण पुरुषोत्तम हैं। वह जहाँ पधार के आरोगे वहां मेरी तो गति भी ना हो सके।दूसरा,तू तो मेरी पूजा करता है।पूजा के नियम अनुसार तू मंत्र बोल के मुझे बुलाता है,तब तेरे घर की प्रतिमा में प्रवेश करके मैं आरोगता हूँ, तु विसर्जन करे तब मैं जाता हूँ, हम सब देव मंत्र के अधीन है।केवल पुरुषोत्तम मंत्र के अधीन नहीं हैं, प्रेम के आधीन हैं । किशोरी का ऐसा प्रेम है कि साक्षात पुरुषोत्तम आरोगने के लिए पधारे।इसलिए तू उठकर स्नान कर और मुझे भोग धरा।'
चंद्रशंकर ने जल्दी से उठकर स्नान करके पूजा की।बाद में किशोरीलाल के घर आया। और कहा: तुमने श्रीमहाप्रभुजी के सेवक होने की बात की थी, पर मैंने मना किया, वह मेरी सबसे बड़ी भूल थी।मेरे देव ने मेरी आंखें खोल दी , आज मेरे घर साक्षात पुरुषोत्तम पधार के आरोगे हैं " वैष्णव धर्म सबसे उत्तम धर्म है ऐसा मुझे भान हुआ है।इसलिए मुझे वैष्णव बना।"
किशोरी ने बताया 'अभी समाचार आए हैं कि पांच -सात दिन में श्रीमहाप्रभुजी यहां पधारने वाले हैं। उस समय पर तुम सेवक होना।’
श्रीमहाप्रभुजी वहां पधारे, तब किशोरीलाल ने सब बातें कही। चंद्रशंकर ने सेवक बनने के लिए विनती की और श्रीमहाप्रभुजी ने कृपा कर उसको ब्रह्म संबंध कराए, और सेवा पधरा के दी। किशोरीलाल के संग से चंद्रशंकर भी एक उत्तम वैष्णव हुए।


सिद्धांत नवनीत:

१ )श्री ठाकुरजी अलग आदेश देते हैं, तब क्या करना है और क्या नहीं करना चाहिए, इस कहानी से यह पता चलता है। यह बात ‘नवरत्न ग्रन्थ' में भी बताई गई है। इस विषय को बहुत ही स्पष्ट तरीके से गुसाईंजी ने समझाया है। यदि इसमें ईश्वर की प्रसन्नता है, फिर इसका पालन करें, लेकिन अगर इसमें हमारी खुशी है, तो इसका पालन न करें, जैसे कि रामदासजी नामक वैष्णव को श्रीठाकुरजी ने आज्ञा दी थी कि मैं भोग आरोग रहा हूं, तो अपनी आँखें खोल कर देखो। तब वैष्णव ने कहा श्रीमहाप्रभुजी का ऐसा आदेश नहीं है।इसलिए मैं आखें नहीं खोलूँगा। क्योंकि इसमें रामदासजी की खुशी थी। यहां कोई ठाकुरजी की खुशी नहीं थी। किशोरीलाल को दी गई आज्ञा में, श्रीठाकुरजी की प्रसन्नता थी, इसलिए श्रीठाकुरजी की आज्ञा का पालन किया।

२) चंद्रशंकर ने किशोरीलाल के वहां अनसखड़ी की सामग्री सिद्ध की और भोग धराया ।सखड़ी की सामग्री नहीं की।सखडी की सामग्री का भोग धराया होता तो, वह उनको बाधक नहीं होता, पर उन्होंने उनके विवेक पूर्वक वर्णाश्रम की मर्यादा और स्वमार्ग की मर्यादा का वहन किया, क्योंकि वह क्षत्रिय थे, उनके हाथ का महाप्रसाद ब्राह्मण को खिलाना था।

३) जिसके ऊपर वैष्णव कृपा करते हैं उनके ऊपर ठाकुरजी की कृपा निश्चित होती ही है। वैष्णव की कृपा हो तो समझना कि श्रीठाकुरजी बहुत बड़ी कृपा करेंगे।

४) सत्संग हमारे मार्ग में बहुत बड़ी बात है। भगवदीय का संग सब को कृतार्थ करता है, भगवदीय के संग से श्रीमहाप्रभुजी और श्रीठाकुरजी की पूर्ण कृपा होती है।