दृष्टि की दिव्यता


हरिहर नामक एक ब्राह्मण तीर्थ यात्रा पर गुजरात से मथुरा आऐ। वहां गोकुल की महिमा सुन के गोकुल गए और ठकुरानी घाट पर श्रीगुसांईजी के दर्शन हुए तब दंडवत् करके उनको विनती करी और शरण गऐ। वहां से गिरिराजजी जाकर गोवर्धन नाथजी के दर्शन किए। ब्रज परिक्रमा भी की। फिर श्रीगुसांईजी को विनती करी, हम घर जाने का सोच रहे हैं। महाराज मुझे सेवा का मनोरथ है सो आप मुझे सेवा पधराइये"।

श्रीगुसांईजी उस समय मथुरा पधारे। तब हरिहर को साथ मथुरा ले गए। बाजार में से श्रीगुसांईजी और हरिहर जा रहे थे, वहाँ एक कंसारे की दुकान थी। उस दुकान में श्री कृष्ण की अनेक मूर्तियाँ रखी हुई थी। श्रीगुसांईजी ने हरिहर को आज्ञा करी कि "दुकान पर जाओ और वह जो स्वरूप है वो कुछ न्योछावर देकर ले आओ "। श्रीगुसांईजी आगे पधारे। हरिहर कंसारे की दुकान पर गया। वह श्रीबालकृष्णजी का बहुत ही सुंदर स्वरूप था। उन्होंने श्रीहस्त में कड़ा पहने हुए थे। हरिहर ने व्यापारी को बोला," मुझे यह स्वरूप दो।उनके हाथ के कड़े निकालने हो तो निकाल लो, मुझे कड़े की जरूरत नहीं है"।
कंसारा ने कहा 'देखो भाई, शाम होने को आई है। दुकान बढ़ाने का समय है, अभी मैं कड़े नहीं निकल सकता।कल सुबह आकर यह मूर्ति ले जाना।’
हरिहर ने व्यापारी की बात सुनते सुनते स्वरूप के श्रीहस्त में से दोनों कडे निकाल लिए। बाद में व्यापारी को कहा,' कोई बात नहीं कल सुबह में पैसा दे जाऊंगा और यह स्वरूप ले जाऊंगा'। हरिहर श्रीगुसांईजी के पास पहुँचे। उसी रात श्रीगुसांईजी के पास श्री ठाकुरजी ब्रजवासी बालक का रूप लेकर पधारे और कहा ,"आपका वैष्णव हरिहर मेरे हस्त में से कड़ा उतार के लेकर आया है"।
श्रीगुसांईजी ने हरिहर को बुलाया और आज्ञा की " अभी उस व्यापारी को खोज के उनके पास से वह स्वरूप पधरा के ले आओ "।
व्यापारी का घर खोज के, दुकान खुला के स्वरूप पधरा के हरिहर श्रीगुसांईजी के पास आए । श्रीगुसांईजी ने उनको पंचामृत स्नान कराकर, समयानुकूल वस्त्र धराए, भोग धराया और हरिहर को पधरा के दिए । साथ में सब सेवा की रीत सिखाई। हरिहर श्रीगुसांईजी की आज्ञा लेकर अपने गांव वापिस आये और बहुत प्रेम से श्रीठाकुरजी की सेवा करने लगे।
'श्रीठाकुरजी भी हरिहर से प्रसन्न होकर उनको हर रोज साक्षात दर्शन देने लगे' ।

सिद्धांत नवनीत:
१) श्रीगुसांईजी की श्रीबालकृष्णजी की मूर्ति के ऊपर जैसे ही नजर हुई वैसे ही उसमें साक्षात स्वरूप विराजमान हो गया। और वह मूर्ति स्वरूपात्मक हो गई, वहां वह दुकान के कबाट में विराजना नहीं चाहते थे इसीलिए कड़ा का बहाना दिखा कर, श्रीठाकुरजी ने श्रीगुसांईजी को आज्ञा की कि मुझे अभी यहाँ से ले जाने की व्यवस्था करो।

२) हरिहर के ह्रदय में भगवत-भाव दृढ़ करवाने के लिए श्रीठाकुरजी ने कड़े़ को निमित्त बनाकर, यह लीला की थी। इससे हरिहर का विश्वास लीला में बहुत दृढ़ हो गया ।
३) हमारे यहां यानि पुष्टि भक्ति में चित्र ओर मूर्ति को श्री गुरुदेव के पास सेव्य करवा कर सेवा में पधराने का प्रकार है।सेव्य कराए बिना सेवा करने का प्रकार नहीं है । मर्यादा मार्ग में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा करने की विधि है। श्रीगुसाईंजी आदि गुरु स्वरूप के हृदय में विराजमान श्रीठाकुरजी का भावात्मक स्वरूप आपनी दृष्टि से चित्र या मूर्ति में पधराते हैं, तब वह सेव्य स्वरूप बनता है।
४) श्री महाप्रभुजी के चरित्र में भी ऐसा एक प्रसंग आता है ।आप श्री मथुरा के बाजार में जा रहे थे ,तब वहां एक कंसारे की दुकान में बेचने के लिए रखी हुई मूर्तियों की तरफ आपकी दिव्य दृष्टि होते ही वह सब मूर्ति में भगवत स्वरूप प्रगट हो गया। वह सब स्वरूप श्रीमहाप्रभुजी के पीछे-पीछे चलने लगे थे, श्री महाप्रभुजी श्रीगुसाईंजी आदि की दृष्टि की दिव्यता ही ऐसी है कि जिसके ऊपर आपकी दृष्टि हो वह भगवद- स्वरूपात्मक बन जाता है।