प्रीत युक्त रीत ही सेवा है


शेरगढ़ में एक अमीर कायस्थ के घर पर नारायणदास से काशी के कायस्थ परिवार में जन्मी वीरबाई का लग्न हुआ और उनके यहां पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम दामोदर दास था। वह 9 साल के थे तब शेरगढ़ में नया बददिमाग़ हाकिम (अमलदार)आया। सुरक्षा के लिये वीरबाई ने पति से सलाह करी और संतानें और धन लेकर अपने माता-पिता के यहां काशी चली गई।उन्हीं दिनों एक ब्राह्मण का पूरा धन हाकिम ने ले लिया, तब ब्राह्मण ने हाकिम को मार दिया और हाकिम के लोगों ने ब्राह्मण की हत्या कर दी। राजा को पता चलने पर शेरगढ़ में नया अच्छा हाकिम भेजा।

ब्राहमण की विधवा पत्नी ने नारायणदास को बिनती की, मेरे घर में ठाकुरजी के दो स्वरुप बिराजते हैं।अब में सक्षम नहीं हूँ सेवा करने के लिए।तब नारायणदास ने कहा- मैं काशी से अपने परिवार को वापिस बुला लूँ, तब ले जाऊँगा। इधर वापसी में रास्ते में वीरबाई का धन चोर लेकर चले गए।पता चलने पर तालाब किनारे बैठ कर वीरबाई रोने लगी तभी पृथ्वी परिक्रमा करते श्री आचार्य महाप्रभुजी वहां पधारे, पूछने पर वीरबाई ने अपना सब दु:ख बता दिया। तभी श्रीमहाप्रभुजी ने कृष्णदास मेघन को वीरबाई के साथ भेजा और कहा के वहाँ पेड़ के नीचे जमीन में जो धन है वो सब लाकर इन्हें दे दो। वीरबाई ने श्रीआचार्यजी को कहा इसमें से आधा आप ले लो आप ही की कृपा से मुझे मिला है। और हमें आपकी शरण में लो।

तब श्रीआचार्यजी ने कहा कि,अभी आप मार्ग में है, तो पुष्टिमार्ग के सब धर्म नहीं निभा पाएँगी ।जब हम शेरगढ़ आएंगे तब आपको अपनी शरण में लेंगे।और शेरगढ़ में एक ब्राह्मण की मृत्यु हुई है,और ब्राह्मणी अकेली है, उसके यहां जो ठाकुरजी विराजते हैं वह तुमको पधरायेंगे। शेरगढ़ आ कर वीरबाई के कहने पर पति जाके ठाकुरजी लेकर आए। और जब महाप्रभुजी पधारे तब उनको शरण में लिया और सेवा पधराई। बड़े गौर स्वरूप को ‘श्रीकपूररायजी’ और लालजी स्वरूप को नाम ‘श्रीनवनीत प्रियजी’ धराये। इस प्रकार वीरबाई सेवा करने लगी। और थोड़े समय में श्रीठाकुरजी की सानुभाव प्राप्त होने लगी।समय रहते वीरबाई को पुत्र हुआ सभी ने बहुत बधाई दी पर किसी का ध्यान श्रीठाकुर जी की सेवा की और नहीं था। तब वीरबाई को बहोत ही ताप,दुख हुआ ,विरह होने लगा। तभी श्री ठाकुरजी ने सैया में से कहा। तू ही मुझे जगा। गौ माता के गोबर से स्नान करके पवित्र होकर तू ही मेरी सेवा कर अब तेरे अलावा किसी और की सेवा अंगीकार नहीं करूँगा। और तुझे कोई अपराध नहीं लगेगा। तब वो सेवा करने लगी। १३ दिन के बाद अपरस निकाला। फिर ४०दिन पूर्ण होने पर पुनः अपरस करके पुष्टि मार्ग की रीत से सेवा करने लगी। सब वस्त्र और बर्तन निकल दिये और पंचामृत से श्रीठाकुरजी को स्नान करवाया।
तब श्रीठाकुरजी ने कहा-“ तूने मेरी आज्ञा का पालन करके सूतक में भी सेवा करी और मार्ग की रीत के अनुसार अपरस भी निकाला। मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ।”

सिद्धांत नवनीत-

१) श्री महाप्रभुजी ने "नवरत्न ग्रंथ " में आज्ञा करी है कि गुरु की आज्ञा अनुसार ही सेवा करनी, पर श्रीठाकोरजी के सुख हेतु स्वयं श्रीठाकोरजी आज्ञा करें तो ऐसे समय-संयोग में श्रीठाकुरजी की आज्ञानुसार सेवा करने से कोई दोष नहीं होता है।

२)यदि वैष्णव के अति शुद्ध होने पर भी प्रीति, प्रेम नहीं है तो श्रीठाकुरजी सेवा नहीं करवाते और आप कितने भी अपवित्र हों, हीन, नीच जाति में जन्म लिया हो पर आपकी प्रभु में प्रीति, प्रेम अनन्य है तो भगवत सेवा प्रभु करवाते ही है।और प्रेमसे की सेवा बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं। प्रेम की रीत बहुत ही न्यारी है वह भगवदीय और प्रेमी ही जानते हैं।

३) जैसे व्रज लीला में गिरराजजी की तलेटी में रहती भील स्त्रियों को श्रीठाकुरजी पर बहुत प्रेम था,इसलिए व्रजरज में बिराजमान चरणारविंद के कुमकुम को मस्तिष्क और हृदय में धारण करती हैं और श्री ठाकुरजी उनके प्रेम का आनंद लेते हुए उनको भी अपने दिव्य स्वरूप का आनंद कराते।

४) "शिक्षा पत्र " में श्रीहरिरायजी आज्ञा कर रहे हैं कि प्रभु जिस जीव का स्वीकार कर लेते हैं, उसके जीवन में क्लेश,दुःख देकर उसकी लौकिक आसक्ति को दूर करते हैं और उसी के ही द्वारा मन प्रभु में लगता है। जैसे वीरबाई को धन संपति की आसक्ति थी। वो धन चोरी करवा लिया और उनकी वित्तासक्ति को दूर किया और वो धन दिखा कर के आप श्री पर श्रद्धा दृढ़ की।