द्रव्य लोभ बड़ा अनर्थकारी


एक सनाढ्य ब्राह्मण उनका नाम लाभशंकर था। एक बार वे गोकुल आए।श्रीगुसांईजी के दर्शन किए और विनती करके उनके पास नाम मंत्र की दीक्षा ले के वापस आए। उनकी बहन का नाम लक्ष्मी था। बहन को मिलने के लिए वह उनके घर गए। बहुत समय के बाद भाई को अपने घर पर आया देखकर, वह बहुत खुश हो गई। खूब आदर सत्कार किया और बहुत प्रेम से आवभगत की, लाभशंकर थोड़े दिन लक्ष्मी के घर रुके।
उस समय लाभशंकर ने देखा कि लक्ष्मी के घर में बहुत पैसा, सोना,जवेरात है। उसने बहन को जहर देकर मार डाला कर और रातों-रात धन लेकर भाग गए। ससुराल वाले भले लोग थे, उनको सब पता चल गया फिर भी
सब चुप रहे। और लक्ष्मी का अग्नि संस्कार किया।
कुछ महीने बाद लाभशंकर की भी मृत्यु हुई। उनका दूसरा जन्म ज़हरीले सांप का हुआ। मथुरा- गोकुल के बीच में श्रीयमुनाजी के घाट पर वह बिल में रहता था। और आते जाते लोगों को परेशान करता था। एक बार श्रीगुसांईजी उसी घाट के रास्ते मथुरा पधार रहे थे। आप घाट पर पधारे तब एक सेवक ने सर्प की बात बताई। मनुष्यों की भीड़ देखकर सांप अपने बिल में घुस गया। उसको बहुत गुस्सा आया। इतनी भीड़ में मैं कैसे डंसूं ?
श्रीगुसांईजी ने आज्ञा करी कि,’ चरण धोने के लिए जल लाओ।’ आप स्वयं सांप के बिल के पास खड़े रहे और 10 लोटे जल से आपके चरण धुलाऐ। चरण स्पर्श से पवित्र बना चरणामृत वाला जल सांप के बिल में गया, थोड़े बूंद उसके मुंह में गिरे, बाकी का जल सांप के शरीर को लगा। चरणामृत लगते ही सांप को अपने पूर्वजन्म की याद हो आई। पूर्वजन्म के कर्मों से उसको बहुत पछतावा हुआ ।श्रीगुसांईजी से क्षमा मांगने वह बाहर आया।श्रीगुसांईजी के चरणारविंद के पास उसने अपना फन नमा कर दण्डवत किया।
श्रीगुसांईजी को पूर्वजन्म के यह वैष्णव पर दया हुई। उसका उद्धार करने के लिए आपने उसकी फन के ऊपर अपना चरण रखा ,और रखते ही उसकी सर्प योनि से मुक्ति हो गई। उसको पूर्वजन्म के ब्राह्मण की देह प्राप्त हुई यह देख सब वैष्णवों को आश्चर्य हुआ। श्रीगुसांईजी ने वहां उसको ब्रह्मसंबंध दिया, और उसका उद्धार किया ।उसने उसका मनुष्य देह छोड़ दिया। तब वैष्णवों ने श्रीगुसांईजी को विनती की," महाराज ये जीव कौन था ? उसकी ऐसी गति क्यों हुई ?"
श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की," यह जीव नित्य लीला का जीव था। उसका नाम लीला में तमसा देवी था ।वे श्रीगोकुल में श्री रोहिणीजी की सखी थी। स्वभाव से तामस थी, जब श्री यशोदाजी ने श्रीठाकुरजी को रस्सी से बांधने की इच्छा रखी,तब सखियों से रस्सी मंगाई। दूसरी कोई सखी श्रीठाकुरजी को श्रम होगा इसलिए रस्सी लेने नहीं गई । पर तमसा देवी ने रस्सी ला कर श्रीयशोदाजी को दी। यह देखकर श्री रोहिणीजी उसके ऊपर बहुत नाराज हुई और श्राप दिया कि 'तुम पृथ्वी पर जन्म लो'। जिसके फलस्वरूप पृथ्वी पर सनाढ्य ब्राह्मण के घर जन्म लिया। लेकिन द्रव्य के लोभ से उसने अपनी बहन को जहर देकर मार दिया । और उसका दूसरा जन्म सर्प योनि में हुआ । मनुष्य योनि में वह मेरी शरण आया था इसलिए मेरे चरणामृत से उसका उद्धार हुआ।
यह सुन के सब वैष्णव एक दूसरे से कहने लगे कि," हम कितने भाग्यशाली हैं ? श्रीगुसांईजी ने हमको अनाथ से सनाथ किया । हमें श्रीगुसांईजी की शरण मिलने के बाद, हम सब अब कृतार्थ हो गए हैं।"

: सिद्धांत नवनीत

१) वैष्णव को कभी भी परधन में लालच नहीं करना चाहिए । सच्चा वैष्णव दूसरे के पैसे से सुखी होने का विचार स्वप्न में भी नहीं करता । अपने पसीने की कमाई से ही संतोष रखके, जीना चाहिए ।
२) जो पैसों के लिए अनर्थ करता है, वह दूसरे जन्म में सर्प योनि में जाता है। इसलिए ऐसे अनर्थ करने से हमेशा डरना चाहिए।
३) श्रीमहाप्रभुजी, श्रीगुसांईजी और श्रीठाकुरजी का चरणामृत का प्रगट प्रताप अनेक भगवदियों का अनुभव है । वह चरणामृत अनेक अपराधों से जीव का उद्धार करता है।
४) श्री महाप्रभुजी,श्रीगुसांईजी और श्रीठाकुरजी पूर्ण पुरुषोत्तम हैं उनके शरण में जाने से जीव को अभयदान मिलता है ।वह अपने प्रमेय बल से दुष्ट से दुष्ट जीव का भी उद्धार करते हैं। जीव के पास से कोई साधन की अपेक्षा नहीं रखते।