प्रभु की लीला नित्य है


एक बार श्रीगुसांईजी दक्षिण भारत की यात्रा को पधारें। वहाँ गांव में सब हर रात को श्रीगुसांईजी के पास भगवद वार्ता सुनने के लिए आते। उसमें एक वैष्णव का बेटा भी अपने पिता के साथ आता। एक दिन उसने श्रीगुसांईजी के मुख से श्रीठाकुरजी की गौचारण लीला का सुंदर प्रसंग सुना।

श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की, " श्री ठाकुरजी हर रोज गोकुल से वृंदावन में नटवर वेश धारण कर के गायों को चराने के लिए मुरली बजाते, ग्वाल बालों के साथ पधारते है। शाम को गौ चारण करके वापस पधारते ; तब नंदालय के द्वार पर श्रीयशोदा माता श्रीठाकुरजी की आरती लेती है।” तब वैष्णव के पुत्र ने पूछा, महाराज,श्रीठाकुरजी ने ऐसी लीला उस समय ही थी कि आज भी होती है? "वैष्णव, श्री ठाकुरजी की लीला तो नित्य है। जिसके ऊपर उनकी कृपा हो उसको दर्शन हो।"

श्रीगुसांईजी ने आज्ञा करी। युवान पुत्र को साक्षात दर्शन की चटपटी हुई । पूरी रात नींद नहीं आई । मां-बाप रोकें नहीं इसलिए सुबह घर से किसी को बिना बताए ब्रज निकल गया। दूसरे गांव पहुंचे कर मां बाप को संदेश भेज दिया।
बहुत समय के बाद वह ब्रज में पहुंचा। श्रीगोकुल होकर श्रीगिरिराजजी पास पहुंचा। वहां गोविंद कुंड के ऊपर गौचरण करके वापिस पधारते श्रीठाकुरजी के दर्शन करने बैठा, शाम हो गई ।

वहाँ गोवालिया के साथ गायों को वापिस आते देख कर क्लेश हुआ। वह सोचने लगा, श्रीगुसांईजी असत्य बोलते नहीं। इसमें मेरा ही कोई दोष होगा, तभी मुझे दर्शन नहीं हुआ। दर्शन किए बिना देह छोड़ दूँ। ऐसा विचार कर के, उसने जल में डूब जाने का निश्चय किया। श्रीनाथजी उसके ताप को सहन नहीं कर सके। और आपने सोचा, इस लड़के को दर्शन देना ही पड़ेगा।
अनायास आकाश में बादल के बीच छुपा हुआ सूर्य बाहर प्रकट होता हो, ऐसा दृश्य पश्चिम दिशा में से दिखा, सूर्यास्त हो रहा था।तब उस युवान की नजर सामने के रास्ते पर पड़ी। सोना चांदी के आभूषणों से सुशोभित सुंदर गायों के झुंड के झुंड आ रहे थे । गायें रभांतीं, दौड़ती आ रही थीं। और ब्रज रज से आकाश छाया हुआ था । पीछे अनेक ग्वाल बालक आ रहे थे।
श्रीठाकुरजी श्रीदामा सखा के कंधे पर हस्त धरकर, मुरली बजाते हुए पधार रहे थे । पितांबर धारण किया हुआ था। मस्तक पर मोरपिच्छ का मुकुट धारण किया हुआ था। कान में फूलों के गुच्छे थे। गुंजामाला और वनमाला का श्रृंगार था। अलकावली पर गो-रज लगा हुआ था । मुखारविंद पर हास्य था।

ऐसे अलौकिक दर्शन वैष्णव पुत्र को हुए। श्रीगोवर्धनधर उसे अपने साथ नंदालय में ले कर आऐ, इस प्रकार बहुत सुख दिया। ऐसे दर्शन करके, वह अपने गांव जाने के लिए निकला। श्रीगुसांईजी अभी उसके गांव में ही
थे। उसने आकर श्रीगुसांईजी को दंडवत किया और सब लीला दर्शन कहे। आपश्री बहुत प्रसन्न हुए और आज्ञा की, "श्री ठाकुरजी की लीला नित्य है, उनका उनकी कृपा से ही अनुभव होता है।
वैष्णव को कभी भी श्रीठाकुरजी की लीला में संदेह नहीं करना चाहिए।

" सिद्धांत नवनीत:

१) श्रीगुसांईजी ने "विद्वनमंडन" ग्रंथ में नित्य लीलावाद समझाया है। श्रीठाकुरजी की लीला आज से 5000 वर्ष अथवा उससे पहले की है और आज नहीं है ,ऐसा नहीं सोचना चाहिए। श्रीठाकुरजी की लीला नित्य है। ब्रज में श्रीठाकुरजी नित्य विराजते हैं ,ऐसी श्रद्धा रखनी। उनकी कृपा हो तो आज भी उनकी लीला का अनुभव जीव को जरूर होता है।