पवित्रा ग्यारस:-


संवत् १५४९ की श्रावण सुद एकादशी के दिन गोविंद घाट पर श्री महाप्रभुजी को दैवीजीव के उद्धार की चिंता हुई, तब श्री महाप्रभुजी को चिंतामुक्त करने हेतु वहां मध्यरात्रि को प्रभु ने साक्षात प्रकट हो के दैवी जीवों को ब्रह्मसम्बंध मंत्र देने की आज्ञा करी। तब सब जीवों की ओर से श्री महाप्रभुजी ने श्रीजी को सूत का पवित्रा धराया और मिश्री भोग धराया और "मधुराष्टकम" से प्रभु की स्तुति की।

तब से पवित्रा एकादशी के दिन प्रभु भक्तों के विविध पवित्रा को स्वीकार कर भक्ति का दान करते हैं। श्रावणसुद एकादशी श्रवण नक्षत्र और भद्रा ( सुबह में भद्रा हो तो शाम को ) का त्याग कर के प्रभु को पवित्रा धराए जाते है। जन्माष्टमी तक प्रभु को पवित्रा धराया जा सकता है।

और अगर किसी कारण वश जन्माष्टमी तक भी नहीं धरा पाये हो तो, प्रबोधिनी एकादशी तक पवित्रा धरा सकते हैं। अगर पवित्रा अर्पण नहीं कर सके तो पूरे साल की सेवा व्यर्थ होती है। इस लिए वैष्णव को प्रतिवर्ष पवित्रा अवश्य धराना चाहिये। ।

पवित्रा एकादशी पद:- (राग - सारंग)
श्रावण मास, शुक्ल एकादशी, यशोमति करत बधाई।अति सुरंग ऊबटनो ऊबटिकें, सुंदर श्याम नहवाई ।।१।।
करि सिंगार बहुभांत परमरुचि, मृगमद तिलक बनाई ।मोरचंद्रिका शीश विराजत, दीश दाहिनी ढरकाई ।।२।।
पचरंग पाट बनाय पवित्रा कंचनतार गुंथाई ।कुमकुम तिलक दियो अक्षत धरि नंदलाल पहराई ।।३।।
विविध भोग ले आगें राखत, तनकज़ु लियो कन्हाई ।आरती वारत अति प्रफुल्लित, मन शोभावरनी न जाई।।४।।
देत असीस सकल व्रज वनिता, चिरजीयो तुम दोउ भाई।श्रीविट्ठल पदरज प्रतापतें, हरिजीवन सुखदाइ ।।५।।