भगवान श्री कृष्ण ने उद्धव जी को स्वधाम गमन के समय अंतिम उपदेश


भागवत के 11 वें स्कन्ध में भगवान श्री कृष्ण ने उद्धव जी को स्वधाम गमन के समय अंतिम उपदेश देतेहुए कहा कि
*अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहम् । धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य सन्तोsर्वाग्विभ्तोsरणम्* ।।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हे उद्धव !
(1) अन्नं हि प्राणिनां प्राणः --
सभी जीवों का प्राण अन्न है। जिस जीव का जो भी भोजन है , वही उसके लिए अन्न है । इस संसार में अनेक प्रकार के देवता हैं,और मनुष्य हैं । इस जीवधानी जगत में ये दो योनियां ही अपनी इच्छा के अनुसार भोग ,भोग सकते हैं।
भगवान ने कहा कि सभी जीवों में ज्ञान नहीं होता है । किंतु जीने की लालसा तो होती ही है । सभीजीवों का प्राण अन्न ही है ।
जो मनुष्य मात्र जीना ही चाहता है , उसका सम्पूर्ण प्रयास भोजन और भोग्य पदार्थ इकट्ठा करने मेंसमाप्त हो जाता है । अब दूसरी बात ।
(2) *आर्तानां शरणं त्वहम्* --
भगवान ने कहा कि आर्त स्त्री पुरुषों का रक्षक मैं हूं । ऋत अर्थातसत्य । बड़े से बड़े दुख आने पर भी जो ऋत का सत्य का त्याग नहीं करता है ।
अति दुखी होने पर मात्र मुझे ही पुकारता है , उसे आर्त कहते हैं । दुख देनेवाले दुष्टों का भी हित हीचाहता है । दुष्टों के साथ लड़ता नहीं है ।अपने साधुस्वभाव का त्याग नहीं करता है , ऐसे आर्त मनुष्योंका एकमात्र मैं ही रक्षक हूं ।मैं ही शरण हूं ।
अब तीसरी बात ।
(3) *धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य* --
इस शरीर के छूटने के बाद अर्थात मरने के बाद मनुष्य का सबसे बड़ाधन धर्म ही है । जैसे कि इस संसार में रुपया , सोना चांदी धन कहा जाता है ।
आजीविका के लिए धन की आवश्यकता होती है । इस मृत्यु लोक में तो शरीर बेचकर भी धनकमाया जा सकता है । प्राण बचाए जा सकते हैं , लेकिन मरने के बाद तो धर्म ही धन के रूप में कामआता है ।
यदि संसार में मात्र जीने के लिए सभी प्रकार के बुरे कर्म किए हैं तो अब दुबारा मनुष्य योनि नहींमिलेगी । कूकर सूकर ही बनना पड़ेगा । अब चौथी बात ।
(4) *सन्तोsर्विग्विभ्यतोsरणम्* --
संसार के पारिवारिक ,सामाजिक ,शारीरिक अनेक प्रकार के दुखोंसे दुखी मनुष्य के लिए आत्मज्ञानी भगवद्भक्त महात्मा सन्तमहापुरुष ही रक्षक हैं , और कोई नहीं ।
संसार के यथार्थस्वरूप का ज्ञान भगवान के भक्त ज्ञानी महापुरुष ही करवा सकते हैं । सत्संग करकेही धैर्यपूर्वक भगवान की शरण में जा सकते हैं । अतः महापुरुषों का संग उनकी सेवा और उनकीप्रसन्नता ही जीवन के हर फल को प्रदान करता है || गुरु ही कर्णधार है ||