द्वितीयोऽध्यायः सांख्य योग श्लोक १-३५


अथ द्वितीयोऽध्यायःसांख्य योग 



सञ्जय उवाच



तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।



विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥ १॥



 संजय बोले— उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस



अर्जुनके प्रति भगवान् मधुसूदनने यह वचन कहा ॥१॥



 



श्रीभगवानुवाच



कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२॥



श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ?



क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देनेवाला है और न कीर्तिको करनेवाला ही है॥ २॥ 



क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। 



क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥३॥



इसलिये हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो,



तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को



त्यागकर युद्ध के लिये खड़ा हो जा ॥३॥



कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन। 



इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥४॥



अर्जुन बोले— हे मधुसूदन! मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से



भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन!



वे दोनों ही पूजनीय हैं॥ ४॥ 



 गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके। 



हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्॥५॥



इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में



भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनों को



मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥ ५॥



न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो- यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।



 यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥६॥



हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिये युद्ध करना और न करना–



इन दोनों में से कौन- सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे।



और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय



धृतराष्ट्रके पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं॥ ६॥ 



कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।



 यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥



इसलिये कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा



धर्मके विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याण कारक हो,



वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए



मुझको शिक्षा दीजिये॥ ७॥ 



न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्- यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्। 



अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं- राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्॥८॥



क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन- धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी



मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥ ८॥



सञ्जय उवाच



एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।



 न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥ ९॥



संजय बोले- हे राजन्! निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज



के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्रीगोविन्द भगवान्‌ से युद्ध नहीं करूँगा' यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये॥ ९॥



 तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।



सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः॥१०॥



हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं



के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुनको हँसते हुए- से यह वचन बोले॥ १०॥



श्रीभगवानुवाच



अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।



गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥११॥



श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्यों के लिये शोक करता है



और पण्डितों के- से वचनों को कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके



प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते॥ ११॥



न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।



 न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥१२॥



न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था



अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥ १२॥ 



देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। 



तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥१३॥



जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है,



वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता॥ १३॥



मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।



आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥१४॥



हे कुन्तीपुत्र! सर्दी- गर्मी और सुख- दुःखको देनेवाले इन्द्रिय और विषयों



के संयोग तो उत्पत्ति- विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये हे भारत! उनको तू सहन कर ॥१४॥



यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। 



समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥१५॥



क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख- सुख को समान समझनेवाले जिस धीर पुरुषको



ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है॥ १५॥



नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।



उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥१६॥



असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत्का अभाव नहीं है।



इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥ १६॥ 



अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।



विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥१७॥



नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्— दृश्यवर्ग व्याप्त है।



इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है॥ १७॥ 



अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताःशरीरिणः।



अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥१८॥



इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं।



इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर॥ १८॥



य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।



 उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥१९॥



जो इस आत्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है,



वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसीको मारता है और न



किसी के द्वारा मारा जाता है॥ १९॥ 



न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। 



अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥२०॥



यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है



तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है;



शरीर के मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता॥ २०॥



वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। 



कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥२१॥



हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और



अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है?॥ २१॥ 



वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।



 तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य-न्यानि संयाति नवानि देही॥२२॥



जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है,



वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है॥ २२॥



 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।



 न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२३॥



इस आत्माको शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती,



इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता ॥२३॥ 



अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्यो ऽशोष्य एव च।



नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२४॥



क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और



निःसन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है ॥२४॥ 



अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।



तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥२५॥



यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है।



इससे हे अर्जुन! इस आत्माको उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने को योग्य नहीं है



अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है॥ २५॥



अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। 



तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥२६॥



किन्तु यदि तू इस आत्माको सदा जन्मने वाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो,



तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने को योग्य नहीं है॥ २६॥ 



जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।



तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥२७॥



क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है।



इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने को योग्य नहीं है॥ २७॥



अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।



अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥२८॥



हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं,



केवल बीच में ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥ २८॥



आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।



आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥२९॥



कोई एक महापुरुष ही इस आत्माको आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई



महापुरुष ही इसके तत्त्वका आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे



आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई- कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ॥२ ९॥



देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। 



तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥३०॥



हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीरों में सदा ही अवध्य है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये



तू शोक करने के योग्य नहीं है॥ ३०॥ 



स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।



 धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥३१॥



तथा अपने धर्मको देखकर भी तू भय करनेयोग्य नहीं है



अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर



दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ॥३१॥ 



यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।



 सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥३२॥



हे पार्थ! अपने- आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्गके द्वाररूप इस प्रकार के



युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं ॥३२॥



अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।



 ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥३३॥



किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्धको नहीं करेगा तो स्वधर्म और



कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा॥ ३३॥ 



अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।



सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते||३४॥



तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्ति का भी



कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरणसे भी बढ़कर है॥ ३४॥ 



भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः। 



येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥३५॥



और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा,



वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥ ३५॥ 



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