Shodash-Grantha



Shodash-Grantha



यमुनाष्टक/Yamunashtak

श्रीयमुनाष्टकम्नमामि यमुनामहं सकलसिद्धिहेतुं मुदामुरारिपदपङ्कज स्फुरदमन्द रेणूत्कटाम् ।तटस्थनवकानन प्रकटमोद पुष्पाम्बुनासुरासुरसुपूजित स्वरपितुः श्रियं बिभ्रतोम्।।१॥भावार्थ:- समस्त अलौकिक सिद्धियों को देनेवाली, मुर-दैत्यके शत्रु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरण कमल की तेजस्वी और अधिक अर्थात् जल से विशेष रेणु को धारण करनेवाली,अपने तट पर स्थित नवीन वन के विकसित सुगन्धित पुष्प मिश्रित जल द्वारा, सुर अर्थात् दैन्यभाववाले व्रजभक्तों के द्वारा और असुर अर्थात् मानभाव वाले ब्रजभक्तों के द्वारा अच्छी प्रकार से पूजित, श्रीकृष्णचन्द्र की शोभा को धारण करने बाली श्रीयमुना महारानीजी को मैं ( श्रीवल्लभाचार्य ) सहर्षनमस्कार करता हूँ ।। १।।
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बालबोध/ BalBodh

नत्वा हरिं सदानन्दं सर्वसिद्धान्तसंग्रहम् ।बालप्रबोधनार्थाय वदामि सुविनिश्चितम् ॥१॥भावार्थः– सदा आनन्द रूप हरि को नमस्कार करके बालकों के जानने के लिये अच्छी तरह विचार पूर्वक निश्चय किया हुआ सब सिद्धान्तों का स्वरूप कहता हूँ ॥१॥धर्मार्थकाममोक्षाख्याश्चत्वारोऽर्था मनीषिणाम्जीवेश्वरविचारेण द्विधा ते हि विचारिताः ॥२॥भावार्थः– विवेकी पुरुषों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थ कहे है । वे दो प्रकार के हैं । एक ईश्वर के कहे हुए हैं और दूसरे जीव के कहे हुए हैं ॥ २ ॥
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सिद्धान्तमुक्तावली/ Sidhanth Muktavali

सिद्धान्तमुक्तावलीनत्वा हरिं प्रवक्ष्यामि स्वसिद्धान्तविनिश्चयम् ।कृष्णसेवा सदा कार्या मानसी सा परा मता ॥ १ ॥भावार्थ:- श्रीहरि को नमस्कार कर के अपना विवेक पूर्वक निश्चय किया हुआ सिद्धान्त कहता हूँ । कृष्ण की सेवा सदा ही करनी चाहिये। वह मानसी सेवा सबमें उत्तम और परम फलरूप मानी जाती हैं ॥ १ ॥चेतस्तत्प्रवणं सेवा तत्सिद्ध्यै तनुवित्तजा।ततः संसारदुःखस्य निवृत्तिर्ब्रह्मबोधनम् ॥ २॥भावार्थः — चित्त को प्रभु में परोना अर्थात् लवलीन कर देना ही सेवा है, और उसकी सिद्धि के लिये, (तनुजा ) शरीर से, और ( वित्तजा ) द्रव्य से, प्रभु की सेवा मन लगाकर करे । ऐसा करने से संसार के दुःखों से छुटकारा हो जाता है और ब्रह्म का यथार्थस्वरूप जानने में आता है ॥ २॥
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पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद/ Pushti Pravah Maryada Bhed

पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेदःपुष्टिप्रवाहमर्यादा विशेषेण पृथक् पृथक् ।जीवदेहक्रियाभेदैः प्रवाहेण फलेन च ॥१॥वक्ष्यामि सर्वसन्देहा न भविष्यन्ति यच्छुतेः।भक्तिमार्गस्य कथनात् पुष्टिरस्तीति निश्चयः ॥२॥भावार्थः– पुष्टि, प्रवाह, और मर्यादा, ये तीनों मार्ग पृथक्- पृथक हैं। जिनके जीव, देह, क्रिया, प्रवाह( प्रवृति) और फल, इन पाँचों को विशेष रूप से पृथक- पृथक कहता हूँ, जिसके सुनने से किसी प्रकार का भी संदेह नहीं रहेगा। शास्त्रों में जहाँ-जहाँ पुष्टिमार्ग आये वहाँ- वहाँ भक्ति मार्ग का निरूपण कियासमझना ॥ १-२॥द्वौ भूतसर्गा वित्युक्तेः प्रवाहोऽपि व्यवस्थितः।वेदस्य विद्यमानत्वात् मर्यादापि व्यवस्थिता ॥३॥भावार्थः —– श्रीभगवद्गीता के" द्वौ भूतसर्गो लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च” इस लोक में दो प्रकार की सृष्टि है, एक दैवी सृष्टि, और दूसरी आसुरी सृष्टि है, इस प्रमाण से" प्रवाह मार्ग" भी है वर्णाश्रम धर्मादि की मर्यादा बतलाने वाला वेद विद्यमान है इसलिये“ मर्यादा मार्ग" भी है || ३ ||
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सिद्धान्तरहस्यम्/ Sidhanth Rahasyam

सिद्धान्तरहस्यम्श्रावणस्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि ।साक्षाद् भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते ॥१॥भावार्थ:-श्रावणमास के शुक्लपक्ष की एकादशी (पवित्राएकादशी) की मध्यरात्रि में साक्षात् अर्थात् भगवान् श्रीगोवर्धनोद्धरण ने प्रकट होकर जो कुछ कहा वह अक्षरशः मैं श्रीवल्लभाचार्य कहता हूँ ॥१॥ब्रह्मसम्बन्धकरणात् सर्वेषां देहजीवयोः ।सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषा पञ्चविधाः स्मृताःll२llभावार्थ:- समस्त के ब्रह्मसम्बन्ध करने से देह और जीव सम्बन्धी सर्व दोषों की अवश्य निवृति होती है । ये दोष पाँच प्रकार के कहे हुए हैं ॥२॥
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नवरत्नम् / Navratnam

सिद्धान्तरहस्यम्श्रावणस्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि ।साक्षाद् भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते ॥१॥भावार्थ:-श्रावणमास के शुक्लपक्ष की एकादशी (पवित्राएकादशी) की मध्यरात्रि में साक्षात् अर्थात् भगवान् श्रीगोवर्धनोद्धरण ने प्रकट होकर जो कुछ कहा वह अक्षरशः मैं श्रीवल्लभाचार्य कहता हूँ ॥१॥ब्रह्मसम्बन्धकरणात् सर्वेषां देहजीवयोः ।सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषा पञ्चविधाः स्मृताःll२llभावार्थ:- समस्त के ब्रह्मसम्बन्ध करने से देह और जीव सम्बन्धी सर्व दोषों की अवश्य निवृति होती है । ये दोष पाँच प्रकार के कहे हुए हैं ॥२॥
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अन्तःकरणप्रबोधः/ AnthaKaranPrabodh

अन्तःकरणप्रबोधःअंतःकरण मद्वाक्यं सावधानतया शृणु ।कृष्णात् परं नास्ति दैवं वस्तुतो दोषवर्जितम् ॥१॥भावार्थ:- हे अन्तःकरण ! मेरे वाक्यों को सावधान होकर श्रवण कर, वस्तुतः दोष रहित “श्रीकृष्ण" से अन्य कोई भी देवता नहीं है ॥१॥चांडाली चेद् राजपत्नी जाता राज्ञा च मानिता। कदाचिदपमानेऽपि मूलतः का क्षतिर्भवेत् ॥२॥भावार्थः– यदि कोई चाण्डाली राजपत्नी हुई और राजा ने उसका विशेष सम्मना भी किया, और किसी समय राजा की ओर से उसे अपमानित किया गया, तो मूल में उसे क्या हानि होती है ? सारांश यह है कि राजा ने जिसको एक बार रानी बना लिया है, उसका सम्मान न रहने पर भी वह रानी मिटकर फिरचाण्डाली तो हो ही नहीं सकती॥२॥
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विवेकधैर्याश्रयनिरूपणम्/ VivekDhayryashray

विवेकधैर्ये सततं रक्षणीये तथाश्रयः ।विवेकस्तु हरिः सर्वं निजेच्छातः करिष्यति॥१॥भावार्थ:- जिस प्रकार विवेक और धैर्य रखना उचित है उसी प्रकार श्रीभगवान का आश्रय रखना उचित है ।अब विवेक क्या है, इस विषय पर श्रीमहाप्रभुजी स्पष्टीकरण करते हैं कि विवेक यह है कि श्रीहरि अपनी इच्छा से सब कुछ करेंगे ॥१॥प्रार्थिते वा ततः किं स्यात् स्वाम्यभिप्रायसंशयात् ।सर्वत्र तस्य सर्वं हि सर्वसामर्थ्यमेव च ॥२॥भावार्थः– स्वामी का अभिप्राय क्या है? इस विषय में सेवक अनजान है, क्या कार्य किस आशय से प्रभु करते कराते हैं । इस विषय को पूर्ण रूप में जीव जब जान नहीं सकता तब प्रार्थना करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है । सर्वत्र सब कुछ उनका ही है और उनमें सब प्रकार से सामर्थ्य है । सारांश यह है कि भगवदिच्छा को समझने में जीव असमर्थ है और प्रभु सर्वज्ञ एवं सर्व शक्तिमान् होने के कारण सेवक के हित के लिये सब कुछ करेंगे । पुष्टिमार्गीय भक्त प्रभु से किसी बात के लिये कभी प्रार्थना न करें ॥२॥
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श्रीकृष्णाश्रयः /ShreeKrishnashray

श्रीकृष्णाश्रयः सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खलधर्मिणि । पाखण्डप्रचुरे लोके कृष्णएव गतिर्मम॥१॥ भावार्थः- दुष्ट धर्मवाले इस कलिकाल में मनोवाञ्छित फल प्राप्ति के साधन, कर्म, ज्ञान, उपासना आदि सब मार्ग लुप्त हो चुके हैं और लोक अत्यन्त पाखण्डी हो गये हैं । इसलिये श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ॥१॥ म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु च । सत्पीडाव्यग्रलोकेषु कृष्णएव गतिर्मम॥२॥ भावार्थ:- कुरुक्षेत्र गङ्गा तट आदि सब पवित्र देश म्लेच्छ पुरुषों से व्याप्त हो गये हैं तथा एक मात्र पाप के स्थान बन गये हैं और सज्जनों की पीड़ा को देखकर लोग अधीर हो रहे हैं। इसलिये श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ॥२॥
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चतुःश्लोकी/ Chatuh Shloki

चतुःश्लोकी सर्वदा सर्वभावेन भजनीयों व्रजाधिपः । स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्यः क्वापि कदाचन॥१॥ भावार्थ:- सदैव सर्वभाव से श्रीव्रजाधिप श्रीकृष्ण भजने योग्य हैं। अपना (जीवात्मा का) यही धर्म है। किसी देश में और किसी काल में श्रीकृष्ण की भक्ति के अतिरिक्त दूसरा कोई धर्म नहीं है॥१॥ एवं सदा स्म कर्तव्यं स्वयमेव करिष्यति । प्रभुः सर्वसमर्थो हि ततो निश्चिन्ततां व्रजेत् ॥२॥ भावार्थ:- इस प्रकार सदैव सेवारूप स्वधर्म का पालन करना चाहिये और प्रभु स्वयं अपना कर्तव्य पूर्ण करेंगे । श्रीप्रभु सब कुछ करने को समर्थ हैं यह समझकर भक्त निश्चिन्त रहें, मूल में 'स्म' शब्द सिद्धार्थक है ॥ २॥
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भक्तिवर्धिनी/ Bhakti Vardhini

भक्तिवर्धिनी यथा भक्तिः प्रवृद्धा स्यात् तथोपायो निरूप्यते। बीजभावे दृढ़े तु स्यात् त्यागाच्छ्रवणकीर्तनात् ॥१॥ भावार्थ:- जिस प्रकार भक्ति की वृद्धि हो उस प्रकार का उपाय निरूपण किया जाता है, बीज भाव के दृढ़ होने पर ही भक्ति की वृद्धि होती है, साथ ही त्याग पूर्वक श्रीभगवान की कथाओं के श्रवण तथा कीर्तन से भक्ति की वृद्धि होती है ॥१॥ बीजदार्ढ्य प्रकारस्तु गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः । अव्यावृत्तो भजेत् कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः॥२॥ भावार्थ:- बीज की दृढ़ता का प्रकार इस रीति से है, स्वधर्म पालन पूर्वक घर में रहकर सब व्यवसाय मात्र का त्याग कर भगवत् सेवा श्रवणादि द्वारा श्रीकृष्ण का भजन करे॥२॥
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जलभेद/ Jalbedah

नमस्कृत्य हरिं वक्ष्ये तद्गुणानां विभेदकान् । भावान् विंशतिधा भिन्नान् सर्व सन्देहवारकान् ॥१॥ भावार्थ:- श्रीहरि को नमन करके वक्ताओं के गुण का भेद बताने वाले समस्त सन्देहों को दूर करने वाले बीस प्रकार के भावों को कहता हूँ ॥१॥ गुणभेदास्तु तावन्तो यावन्तो हि जले मताः । गायकाः कूपसङ्काशाः गन्धर्वा इति विश्रुताः॥२॥ भावार्थ:- जितने प्रकार के जल के गुणों में भेद हैं उतने वक्ताओं में भी भेद है, गाने वाले गन्धर्व नाम से प्रसिद्ध हैं वे कूप जल के समान होते हैं ॥२॥ कूप भेदास्तु यावंतस्तावंतस्तेऽपि सम्मताः । कुल्याः पैराणिकाः प्रेक्ताः पारम्पर्ययुता भुवि ॥३॥ भावार्थ:- जितने कूप के भेद हैं उतने वक्ताओं के भी माने गये हैं इस भूमण्डल में परम्परा वाले पौराणिक नहर के जल के सदृश हैं ॥३॥
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पञ्चपद्यानि /Panchapadhyani

पञ्चपद्यानि श्रीकृष्णरसविक्षिप्तमानसाऽरतिवर्जिताः । अनिर्वृता लोकवेदे ते मुख्याः श्रवणोत्सुकाः ॥१॥ भावार्थ:- जिन्होंने प्रेमयुक्त होकर भगवान् श्रीकृष्ण के भजनानन्द रूपी रस में अपना मन विक्षिप्त किया है तथा श्रवण में प्रीति वाले हैं तथा लोक और वेद के सुख में जिन्होंने आनन्द नहीं माना है तथा भगवत्कथा सुनने में उत्साह वाले हैं वे उत्तम श्रोता हैं ॥१॥ विक्लिन्नमनसो ये तु भगवत्स्मृतिविह्वलाः । अर्थैकनिष्ठास्ते चापि मध्यमाः श्रवणोत्सुकाः ॥२॥ भावार्थ:- इस प्रकार विशेष रूपसे भगवत् स्मरण में जिनका मन आद्र तथा विह्वल हो जाता है, ऐसे भगवान के गुण श्रवण में उत्साह वाले और जो अर्थ अर्थात् अर्थादि में मुख्य निष्ठा रखते हैं, वे मध्यम श्रोता कहलाते हैं ॥२॥
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संन्यासनिर्णयः/Sanyasnirnayah

संन्यासनिर्णयः पश्चात्तापनिवृत्त्यर्थं परित्यागो विचार्यते । स मार्गद्वितये प्रोक्तो भक्तौ ज्ञाने विशेषतः॥१॥ भावार्थः - पश्चात्ताप की निवृत्ति के लिये परित्याग के विषय में विचार करते हैं । सन्यास ग्रहण के दो मार्ग हैं। एक तो भक्तिमार्गीय सन्यास और दूसरा ज्ञानमार्गीय संन्यास बताया है ॥१॥ कर्ममार्गे न कर्तव्यः सुतरां कलिकालतः । अतः आदौ भक्तिमार्गे कर्तव्यत्वाद विचारणा ॥२॥ भावार्थः- इस समय कराल कलिकाल है, इसलिये कर्ममार्ग की प्रणाली के अनुसार त्याग अर्थात् संन्यास नहीं करना चाहिये । भक्तिमार्ग के अनुसार संन्यास ग्रहण करना हमारा परम कर्तव्य है, इसलिये प्रथम इस भक्तिमार्गीय सन्यास पर विचार करते हैं ॥२॥
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निरोधलक्षणम्/ Nirodhlakshanam

निरोधलक्षणम् यच्च दुखं यशोदाया नन्दादीनां च गोकुले। गोपिकानां तु यद्दुःखं तद्दुःखं स्यान्मम क्वचित्। ॥१॥ भावार्थ: --:- जब श्रीव्रजाधिप भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी मथुरा पुरी में पधारे उस समय यशोदाजी और नन्द आदि गोकुल के सब व्रजवासियों और श्रीगोपीजनों को जो दुःख हुआ था इस प्रकार का दुःख क्या मुझको भी कभी होगा?॥ १॥ गोकुले गोपिकानां तु सर्वेषां व्रजवासिनाम्। यत् सुखं समभूत् तन्मे भगवान् किं विधास्यति। २ ॥ भावार्थः —– गोकुल में, गोपिकाओं और समस्त व्रजवासियों को जो प्रभुके साक्षात् स्वरूपानन्द का सुखानुभव हुआ था, क्या उसी प्रकार का सुख श्रीभगवान् मुझको भी प्रदान करेंगे?॥ २॥
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सेवाफलम्/ Sevafalam

सेवाफलम् यादृशी सेवना प्रोक्ता तत्सिद्धौ फलमुच्यते। अलौकिकस्य दाने हि चाद्यः सिध्येन् मनोरथः || १॥ फलं वा ह्यधिकारो वा न कालोऽत्र नियामकः। उद्वेगः प्रतिबन्धो वा भोगो वा स्यात् तु बाधकम्॥ २॥ भावार्थ:- जिस प्रकार सेवा बतायी गयी है उसकी सिद्धि होने से अब फल को कहते हैं। अलौकिक के दान में प्रथम मनोरथ सिद्ध होता है ।उसका फल प्राप्त होने में अथवा अधिकार प्राप्त होने में यहाँ पर काल को नियामक नहीं माना है। उद्वेग और प्रति बन्ध अथवा भोग ये सेवा में विघ्न करनेवाले हैं॥ १,२॥
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