प्रभु के बनाए इस जगत में ऐसा एक भी मनुष्य या जीव नहीं है, जिसको दुःख नहीं है। और कोई जीव एेसा भी नहीं जिसको सुख की चाह नहीं है। और जो सुख की प्राप्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील ना हों। फिर चाहें वो अमीर- ग़रीब ,छोटा-बड़ा, आस्तिक-नास्तिक,अनपढ़- शिक्षित, उच्चकोटि-नीचकोटि, कोई भी हो। हरेक जीव मात्र को सुख की चाह रहती है।
क्या है सुख-दुःख ?:-अगर हम गहराई से सोचें तो समझ आएगा, कि हमारी जितनी भी सुख की चाह है, किसी भी प्रकार की,किसी भी कक्षा की, वो सभी शरीर तक और शरीर से मन तक ही सीमित है।और ये सभी सुख की प्राप्ति के लिए हमें किसी ना किसी लौकिक साधन ( वस्तु, व्यक्ति..) की ज़रूरत पड़ती ही है।
आनंद और सहजता" पाने के रास्ते॥-१
हम आम ज़िंदगी में रोज़ कई बार ये बातें कहेते-सुनते है... कि.. माँ-बाप भगवान के समान होते हैं,बच्चे भगवान का रूप होते हैं, ग़लत कार्य करने से पहले भगवान से डरो, चिंता ना करो, भगवान ज़रूर अच्छा हीं करेंगे, भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है, भगवान सब जानते है, और न जाने एेसी कितनी बातों में हम भगवान का नाम और काम के बारे में सुनते रहते हैं।पर क्या सच में हम भगवान को और भगवान के स्वरूप को जानते हैं?.. शायद नहीं। क्योंकि अगर जानते होते तो हमें हमारा स्वरूप भी समझ आ ही गया होता। और हम हमारा वजूद , उसकी महत्ता और मानव जीवन का लक्ष्य भी समझते।
आनंद और सहजता" पाने के रास्तेभाग २
हमारे देश में अंधश्रद्धा एक व्यापक सामाजिक समस्या है। अच्छे, बुरे, कोई स्वयं को नुक़सान करने वाले तो कोई दूसरों को नुक़सान पहुचाने वाले, एसे कई प्रकार के अंधविश्वासों से लोग ग्रस्त हैं।किसी भी बात को बिना शास्त्रों के आधार के,बिना समझ के,मन मानी, स्वछन्द रीत से करना, और फिर उसी बात पर विश्वास करना अंधश्रद्धा है।
आनंद और सहजता" पाने के रास्ते....भाग -३
हिन्दू धर्म का इतिहास अति प्राचीन है। क़रीब २०,००० साल से भी पहले का होने के सबूत मौजूद है। हिन्दू धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है।परमपिता परमात्मा ने ही सब मनुष्यों के कल्याण के लिए वेदों का प्रकाश, सृष्टि के आरंभ में किया।
पुष्टि भक्ति मार्ग का प्रकट्य
हमारे शास्त्रों में, प्राचीन उपनिषदों में अनन्य शरणागति-पुष्टिभक्ति मार्ग बताया गया है। और श्री कृष्ण ने गीता में भी नि:साधनात्मक शरणमार्ग -पुष्टिमार्ग ही उद्धारक बताया है।इस तरह पुष्टिभक्ति मार्ग- कृपामार्ग-अनुग्रह मार्ग वैसे तो कोई नई बात नहीं है। सृष्टि के प्रारंभ से ही सभी जीवों के लिए प्रभु कृपा अनिवार्य रही है।परंतु भगवान से अलग हुए असंख्य साल बीत जाने के कारण जीव को भग्वान के वियोग को लेकर ताप-क्लेश और आनंद का तिरोभाव हुआ है।
महाप्रभुजी श्री वल्लभाचार्य का स्वरूप
पुष्टि मार्ग को समझने के लिए पहले श्री महाप्रभुजी का स्वरूप समझना आवश्यक है।श्री वल्लभ का आधिभौतिक स्वरुप तैलंग कुल में विद्वान ब्राह्मण गुरु स्वरुप ।आध्यात्मिक स्वरुप अग्नि स्वरुप वैश्वानर, वाक्पति स्वरूप "।और आधिदैविक श्रीकृष्ण मुखारविंद स्वरूप, श्रीस्वामिनि स्वरुप एव साक्षी स्वरुप ।।आधिभौतिक स्वरूप:-महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को संवत् १५३५ अर्थात सन् १४७९ ई. को रायपुर जिले में स्थित महातीर्थ राजिम के पास चम्पारण्य (चम्पारण) में हुआ था।
श्री महाप्रभुजी का सिद्धांत
हमारे उपनिषदो के दर्शन को वेदांत दर्शन कहा जाता है। इन उपनिषद की शिक्षा के विषय में कई आचार्यों का मतभेद रहा है। उसके सामने श्री व्यासजी ने अपने "ब्रह्मशूत्र" में एकरूपता भी दर्शाई है।परंतु इस ब्रह्मसूत्र की शिक्षा में भी कई आचार्यों ने अलग-अलग मत बताया है। इस आधार पर वेदांत के पाँच दार्शनिक मतों की स्थापना हुई है। जिसमें एक समान बात यह है कि सबने "अद्वैत" मत का प्रतिपादन किया है।अद्वैत का अर्थ है:- अंतिम सत्ता सिर्फ़ एक ही है। इस बात का वेद और उपनिषद कई जगह पर समर्थन करते हैं, जैसे "सर्वम् खलु ईदम् ब्रह्म".....।पर फिर ब्रह्म के जीव और जगत से सम्बंध बताने सब आचार्यों के अलग अलग मत रहे हैं। और उस आधार पर सब के सिद्धान्त के नाम भी अलग हैंं।
श्री महाप्रभुजी द्वारा स्थापित पुष्टि भक्ति मार्ग
श्री वल्लभाचार्यजी ने अपने भक्तिमार्ग का नामकरण "पुष्टिभक्तिमार्ग" श्रीमद्भागवत के आधार पर किया है। श्रीमद्भागवत में शुकदेवजी ने पुष्टि अर्थात् पोषण का अर्थ भगवान् का अनुग्रह कहा है। भगवान् श्रीकृष्ण का अनुग्रह या कृपा ही पुष्टि है।श्री महाप्रभुजी का मत है कि घोर कलिकाल में ज्ञान, कर्म, भक्ति, आदि सब मोक्ष-प्राप्ति के साधनों की न तो पात्रता रही है और न क्षमता ही है। इन साधनों से युक्त देश, काल, द्रव्य, कर्ता, मंत्र और कर्म या तो नष्ट हो गये हैं या दूषित हो गये हैं। अतः इन उपायों से मोक्ष प्राप्ति या भगवान् की प्राप्ति कर सकना संभव नहीं रह गया है। ऐसी परिस्थिति में सबके उद्धार के लिए सर्वसमर्थ, परम कृपालु भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने स्वरूप के बल से, अपने सामर्थ्य से जीवों का उद्धार कर सकते हैं।
पुष्टि भक्ति मार्ग के आराध्य देव और सेव्य प्रभु
पुष्टि भक्ति मार्ग के आराध्य श्री कृष्ण हैं, और आराध्यदेव के रूप में एक मात्र श्रीनाथजी हैं। श्रीनाथजी का स्वरूप प्रभु की गोवर्धन लीला का है। प्रभु ने ब्रज में यह लीला बरसो से चली आयी इन्द्रपूजा की प्रथा को भंग कर के ब्रजजनोंं का अपने में आश्रय सिद्ध करने हेतु की थी।वही स्वरूप अपने पुष्टि जीवों का आश्रय सिद्ध करने हेतु आज से ५५० साल पहले फिर से श्री गिरिराज जी में से प्रकट हुआ। और आज वो स्वरूप श्रीनाथद्वारा में पुष्टिभक्ति मार्ग के एक मात्र मंदिर में बिराजमान है।
पुष्टिभक्ति मार्ग की प्रभु सेवा ही साधना
हमारे हिंदू शास्त्रों में दान, व्रत, तप, जप, तीर्थयात्रा, ज्ञान, कर्म, यज्ञ, इत्यादि कई उपायों को प्रभु प्राप्ति के साधन और श्रेय साधक बताया गया है। पर पुष्टिभक्ति मार्ग की साधना में श्री महाप्रभुजी ने प्रभु की स्वरूप सेवा को प्रमुख माना है।
एसा क्यों?
श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध में श्री कृष्ण ने स्वयं उद्धवजी को कहा है, कि.. "प्रतिक्षण बढ़ने वाली मेरी भक्ति, योग, त्याग, यज्ञ, तप आदि बड़े बड़े ग्रंथो में बताए गए साधनों से ज़्यादा समर्थ है। क्योंकि मेरी प्राप्ति का सिर्फ़ एक साधन 'मेरी अनन्य भक्ति' है।"
पुष्टि भक्ति मार्ग का सेवास्वरूप
सेवा करना सेवक का धर्म है। जीव प्रभु का दास है और दास का धर्म स्वामी की (प्रभु की) सेवा करना है। यही भाव से आचार्यचरण श्री महाप्रभुजी ने "कृष्ण सेवा सदा कार्या" की आज्ञा की है।श्री महाप्रभुजी ने "सिद्धांत मुक्तवली" ग्रंथ में दो प्रकार की सेवा का निरूपण किया है।१ - साधनरूप सेवा:-(तनुवित्तज़ा सेवा)जिस उपाय (तनु-वित्तज़ा) से चित्त सम्पूर्णत: प्रभु चरणो में स्थिर होता है, उसको "साधन रूप सेवा" कहते हैं।
पुष्टिमार्ग की दीक्षा और अधिकार
पुष्टिजीव की उत्पत्ति के प्रभु के प्रयोजन को बताते हुए श्रीमहाप्रभुजी "पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद" ग्रंथ मे आज्ञा करते हैं कि "पुष्टि जीव की उत्पत्ति प्रभु की सेवा करने हेतु ही हुई है" और प्रभु के श्रीअंग से हुई है ।एसे प्रभु के उत्तम प्रयोजन के बावजूद प्रभु से दूर होने के कारण और अज्ञान कराने वाली अविद्या-मायाशक्ति के कारण पुष्टि जीव स्वयं का प्रभु के साथ सम्बन्ध और प्रभु स्वरूप, प्रभु के प्रति स्वयं का कर्तव्य के ज्ञान को भूला है और लौकिक में आसक्त बना है।
पुष्टिमार्ग में श्री यमुनाजी का स्थान
श्री यमुनाजी पुष्टिमार्ग के प्रणेता हैं जीव में प्रभु ने पुष्टिभक्ति भाव के बीज का स्थापन किया है, पर जब तक उस जीव के भक्तिभाव को प्रकट करने की कृपा-इच्छा प्रभु नहीं करते तब तक जीव में रहा हुआ भक्ति भाव प्रकट नहीं होता। ऐसी कृपा प्रभु कभी स्वयं और कभी गुरु, तो कभी श्री यमुनाजी के माध्यम से करते हैं। प्रभु के कृपापात्र पुष्टि भक्ति भाव वाले दैवी जीवों के भगवद् भक्ति को बढ़ाने हेतु श्री यमुनाजी का भूतल पर प्राकट्य हुआ है। श्री महाप्रभुजी ने श्रीयमुनाष्टक स्तोत्र में "भुवंभुवन पावनीम्" अर्थात पृथ्वी को पवन करने वाली कहा है। श्री हरिरायजी यहाँ भावार्थ करते हैं कि भुवन अर्थात पुष्टि जीवों के देह रूपी भुवन को पावन करने वाले हे श्री यमुनाजी...
श्री गिरिराजजी का स्वरूप
श्री गिरिराजजी पुष्टिमार्ग में भगवद् रूप अति पूजनीय हैं। श्री महाप्रभुजी के मार्ग के परम आराध्य देव "गिरिराजधरण श्रीनाथजी" का प्राकट्य श्री गिरिराजजी में से हुआ है। श्रीमद् भागवतजी में वेणु गीत के प्रसंग में गोपिओं ने श्री गिरिराजजी के स्वरूर्प वर्णन करते हुए कहा है कि ये कोई पत्थर अथवा जड़ स्वरूप नहीं अपितु साक्षात् हरिदासवर्य हैं।
पुष्टिमार्ग मे व्रज की महत्ता
अखिल ब्रह्माण्ड की आत्मा श्री कृष्ण समस्त ब्रह्माण्ड के एक मात्र अधीश्वर हैं, समस्त क्रियाओं के कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी हैं। वही सर्वव्यापक हैं, अन्तर्यामी हैं। सच्चिदानन्द श्री कृष्ण का निजधाम, उनकी बाल लीलाओं का साक्षी एवं श्री स्वामनीजी का हृदय है ‘ब्रज धाम’। भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज में प्रकट होकर रस की जो मधुरतम धारा प्रवाहित की उसकी समस्त विश्व में कोई तुलना नहीं है। बड़े-बड़े ज्ञानी, योगी, ऋषि मुनि, देवगण सहस्र वर्ष प्रभु के दर्शन पाने को तप करते हैं फ़िर भी वो प्रभु का दर्शन प्राप्त नहीं कर पाते, वहीं इस ब्रज की पावन भूमि में परम सच्चिदानन्द श्री कृष्ण सहज ही सुलभ हो जाते हैं।
श्री महाप्रभूजी जब अपनी द्वितीय पृथ्वी परिक्रमा के दौरान पंढरपुर पहुचे तब श्री विट्ठलनाथजी प्रभु ने आपश्री को विवाह करने की आज्ञा की और कहा कि–हम पुत्र रूप में आपके यहाँ जन्म लेंगे और भक्तिमार्ग का प्रचार करेंगे। इस भगवदआज्ञा के पालन रूप भूतल पर पुष्टि भक्ति के प्रचार हेतु आपश्री ने पृथ्वी पर अपने वंश का विस्तार किया है।
श्री विट्ठलनाथजी प्रभुचरण
श्री महाप्रभुजी के द्वितीय लालजी श्री विट्ठलनाथजी, जिनको श्री प्रभुचरण, श्री परमदयाल और गुसाईंजी के नाम से भी वैष्णव जन संबोधित करते हैं, आपका प्राकट्य सवत १५७२ में चरणाट में हुआ था। श्री विट्ठलनाथजी ने अपने ज्येष्ठ भ्राता की तरह अल्पआयु में ही वेद-वेदांत,दर्शनशास्र,उपनिषद्,पुराण एवं विविध कलाओ का अध्ययन किया था। श्री विट्ठलनाथजी ने दो विवाह किया था। पहला विवाह रुकमनी वहूजी के साथ हुआ, जिनसे गिरिधरजी, गोविन्दरायजी,
पुष्टिमार्ग में वार्ता साहित्य का महत्व:
हिन्दी साहित्य की गद्य परम्परा में वार्ता साहित्य का विशेष स्थान है। वार्ताऐं आम तौर पर पात्र के आदर्श, संस्कार, सभ्यता, सदाचार तथा सामाजिक रीती रिवाज, और धार्मिक भावनाओ को दर्शाती हैं। धार्मिक सिद्धांत और मूल्यों को दर्शाती हुई कथाओ को सामान्य जन को सरलता से समझाने हेतु धर्म प्रचारक वार्ता साहित्य का सहारा लेते हैं। पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय में वार्ता साहित्य का अति महत्व है। मार्ग के भगवदीय अनुयायियों से सम्बंधित विभिन्न घटनाओ का संकलन व्रज भाषा में श्री गुसांईंजी के समय में हुआ उसको 'वैष्णव की वार्ता’ कहते हैं।