Upanishad Stories



Upanishad Stories



महाराज पृथु का शौर्य (पृथ्वी बनी गाय)

महाराज पृथु का शौर्य (पृथ्वी बनी गाय)एक समय राजा वेन के अत्याचार के बाद सबकुछ नष्ट हो चुका था। देश में भुखमरी फैली थी वर्षा न होने से अकाल पड़ा था। पृथ्वी की उर्वरा शक्ति समाप्त हो गई थी। प्रजा अराजक हो गई थी। अत्याचारी राजा वेन के मरने पर ऋषियों ने उसके वंशज पृथु का राज्याभिषेका किया। पृथु राजा तो हो गए, पर उनको उत्तराधिकार में ऐसा राज्य मिला, यज्ञ, पाठ, पूजा आदि धार्मिक कर्म-काण्ड बंद हो चुके थे। महाराज पृथु की चिंता बढ़ी। प्रजा भूख से पीड़ित होकर मरणासन्न स्थिति में पहुंच गई है। मैं राजा का कर्त्तव्य कैसे निभाऊं ? ऋषियों से परामर्श किया कि देश की दशा और राज्यकोष में कुछ भी न होने से वे राज-काज कैसे करें । ऋषियों ने कहा, “महाराज पृथु ! आपके पिता के अत्याचारों से दुखी होकर हम लोगों ने वेन को मारकर आपको सर्व शक्तिमान समझकर राजा बनाया है, यदि आप भी असहाय होकर बैठ जाएंगे तो क्या होगा। यही तो आपके शौर्यतथा कार्य कुशलता का अवसर है।"
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वचन की मर्यादा

वचन की मर्यादा फूल दार पेड़ों की लताओं से धूप छन-छन कर आ रही थी। यज्ञवेदी के समीप समिधा, घृत और कुशासन था। हल्की धुएं की रेखा यह बता रही थी कि अभी-अभी यज्ञ समाप्त हुआ है। हवन सामग्री की उठती हुई सुगंध से समस्त आश्रम का वातावरण पवित्र हो रहा था। यह ऋषि दध्यंच का आश्रम था, जो हरे-भरे वृक्षों से घिरा हुआ था आश्रम के समीप जलाशय था। इन्द्र पृथ्वीलोक पर विचरण करने निकले तो फूलों से सजे एक ऐसे सुरभित रम्य आश्रम को देखकर इन्द्र की इच्छा हुई कि थोड़ी देर के लिए आश्रम में चलकर ऋषि के दर्शन करें। रथ रुका। सारथि को रुके रहने का आदेश देकर इन्द्र ने पुष्पित-पल्लवित आश्रम को पुनः आंखें घुमाकर देखा। यज्ञशाला से उठती हवि की सुगंधित धूम्र राशि वायुमण्डल को शुद्ध कर रही थी। तपोनिष्ठ ऋषि दध्यंच के हृदय की पवित्रता विकसित होकर आश्रम के कण-कण में मुखरित थी ।
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असुर गय बने गया तीर्थ (बहुजन हिताय)

असुर गय बने गया तीर्थ (बहुजन हिताय) श्री ब्रह्मा जी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो असुर कुल में “गय” का जन्म हुआ, असुर कुल में उत्पन्न होने के बाद भी उसमें आसुरी वृत्ति नहीं थी। वह परम वैष्णव तथा वेदज्ञ था। वेद संहिताओं में जिन असुरों का नाम आया है, उनमें गय प्रमुख है। एक बार उसकी इच्छा हुई कि वह अच्छे कार्य कर इतना पुण्यात्मा हो जाए कि लोग उसका दर्शन करके ही सब पापों से मुक्त हो जाएं तथा मृत्यु के बाद उन लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति हो। इसी विचार से उसने कोलाहल पर्वत पर समाधि लगाकर श्री विष्णु जी की तपस्या करनी प्रारंभ की। अनेक वर्षों तपस्या रत रहने पर उसकी तपस्या दृढ़ होती गई। उसके कठोर तप से भगवान विष्णु प्रकट हुए और प्रभावित होकर गय की समाधि भंग करते हुए कहा, “महात्मन् गय, उठो! तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई। किस उद्देश्य के लिए इतना कठोर तप किया ?
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मनुष्य से देव बनने की यात्रा (कर्म की प्रधानता)

मनुष्य से देव बनने की यात्रा (कर्म की प्रधानता) ऋभु, विम्बन और बाज तीनों भाई शिल्पकला सीखने की आकांक्षा लेकर गुरु त्वष्टा के पास आए। त्वष्टा शिल्पकला में निष्णात थे। उन तीनों ने अपनी इच्छा गुरु त्वष्टा से समक्ष प्रकट की। त्वष्टा सामान्य रूप से किसी को अपना शिष्य नहीं बनाते थे। अतः आदेश देते हुए बोले, “पहले शिल्पकला में अपनी रुचि पैदा करो।" गुरु की आज्ञा पाकर तीनों भाई शिल्पकला में रुचि लेकर दक्षता प्राप्त करने हेतु पूर्ण आस्था व परिश्रम के साथ तल्लीन हो गए। त्वष्टा भी अपने कुशल एवं निष्ठावान तथा परिश्रमशील तीनों शिष्यों को पाकर बहुत संतुष्ट थे। शीतल छायादार वृक्षों की छाया में काष्ठ (लकड़ी) की मूर्तियां बनाने में तीनों युवक कलाकार तल्लीन थे।
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योग्यता की परख (उत्तराधिकारी का चुनाव)

योग्यता की परख (उत्तराधिकारी का चुनाव) एक समय राजा वृहद्रथ बहुत ही सुयोग्य तथा प्रजापालक राजा हुए ।वे स्वयं को राजा की अपेक्षा प्रजा का संरक्षक अधिक समझते थे। उनका राज्य धन-धान्य से भरपूर था तथा प्रजा सुखी थी। जब वे वृद्ध हुए तो सोचा कि राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त कर वे वानप्रस्थ आश्रम में जाकर शेष जीवन ईश्वर भक्ति में बिताएंगे। उनके तीन पुत्रों में नियम के अनुसार तो बड़े पुत्र को ही राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जा सकता था, पर तीनों पुत्रों में आपस में सहमति न होने तथा भिन्न-भिन्न गुणों के कारण वे निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि किसको उत्तराधिकारी बनाया जाए। उन्हें डर था कि यदि राजा योग्य न निकला तो प्रजा दुखी हो जाएगी। पड़ोसी राजा आक्रमण कर इस राज्य को ही हड़प लेंगे। इसी चिंता में वे घुले जा रहे थे। अपने पुत्रों का व्यवहार तथा स्वभाव देखकर वे कुछ निर्णय नहीं ले पा रहे थे। उन्होंने मंत्रिपरिषद से सलाह की, मंत्रियों ने कहा, 'महाराज ! इसके बारे में हम क्या सलाह दें ? राज्य का उत्तराधिकारी आप जिसे चाहें उसे बनाएं। हम उसे ही अपना राजा मानकर उसके आदेशों का पालन करेंगे।" महाराजा वृहद्रथ ने कहा, "अगर वह राजा अविवेकपूर्ण आदेश देने लगे और उससे प्रजा का कष्ट बढ़ने की संभावना हो तथा राज्य अशक्त हो तो क्या तब भी आप उसके आदेश मानेंगे? अपने विवेक से उसे परामर्श नहीं देंगे ?"
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मद से पतन (प्रभुता का मद)

मद से पतन (प्रभुता का मद) इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर दिया इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। वृत्रासुर त्वष्टा ऋषि का यज्ञपुत्र था। तब इन्द्र अपना लोक छोड़कर भागे और एक अज्ञात सरोवर में जा छिपे। ब्रह्महत्या के भय से इंद्र बहुत वर्षों उस सरोवर से निकले ही नहीं, इन्द्रासन सूना हो गया। राजा के न रहने से बड़ी अव्यवस्था हो गई। सब विचार करने लगे कि राजकाज कौन देखे, किसे राजा बनाया जाए? देवगुरु बृहस्पति ने कहा, “इन्द्रलोक का राजकाज चलाने के लिए किसी समर्थ, योग्य और अनुभवी राजा को ही इस पद पर बैठाया जाए।" बहुत सोच- विचार के बाद गुरु बृहस्पति ने कहा, "इस समय भूलोक में नहुष का राज है।। वे बहुत ही समर्थ, योग्य और चक्रवर्ती साम्राट हैं। इन्द्र के न आने तक उन्हें इंद्र की पदवी देकर इन्द्रासन पर बैठाया जाए।"
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एकादशी व्रत में निष्ठा (भगवान विष्णु की आराधना)

एकादशी व्रत में निष्ठा (भगवान विष्णु की आराधना) प्राचीनकाल में रुक्मांगद नामक एक प्रसिद्ध नरेश थे। राजा रुक्मांगद का गृहस्थ-जीवन पूर्ण रूप से सुखमय था। वे पीताम्बरधारी भगवान श्री हरि की आराधना करते हुए मनुष्यलोक के उत्तम भोग भोग रहे थे। उनकी पत्नी संध्यावली साक्षात् भगवती लक्ष्मी का दूसरा रूप हों वे पतिव्रता थी। वह सभी दृष्टि से पति का सुख-सम्पादन करने में अद्वितीय थी। राजा रुक्मांगद के लिए भगवान विष्णु की आराधना ही उनका जीवन था। वे चराचर जगत में अपने आराध्य भगवान हृषीकेश के दर्शन करते तथा पद्मनाभ भगवान की सेवा की भावना से ही अपने राज्य का संचालन करते थे। वे सभी प्राणियों के प्रति क्षमाभाव रखते थे। राजा रुक्मांगद ने अपने जीवन में अपनी समस्त प्रजा एवं परिवार सहित एकादशी व्रत के अनुष्ठान का नियम धारण कर रखा था। एकादशी के दिन राज्य की ओर से घोषणा होती थी कि 'आज एकादशी के दिन आठ वर्ष से अधिक और पचासी वर्ष से कम आयु वाला जो भी मनुष्य अन्न खाएगा, वह राजा की ओर से दण्ड का भागी होगा।' एकादशी के दिन सभी लोग गंगा स्नान एवं दान-पुण्य करते थे। राजा के धर्म की ध्वजा सर्वत्र फहराने लगी। धर्म के प्रभाव से प्रजा सर्वथा सुखी एवं समृद्ध थी। पति की सेवा वह अपने हाथों से करती थी।
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लम्बी उम्र का जीवन दर्शन (सत्कर्म का यश)

लम्बी उम्र का जीवन दर्शन (सत्कर्म का यश) पांडवों को उनके वनवासकाल में ऋषि मार्कण्डेय ने अनेक कथाएं सुनाई थीं। एक बार ऋषि मार्कण्डेय से पांडवों ने पूछा, "आप किसी ऐसे को जानते हैं जो आपसे भी लम्बी उम्र का हो?" ऋषि ने कहा, "एक बार प्रसिद्ध राजर्षि इन्द्रद्युम्न, जिन्हें स्वर्ग से इसलिए निकलना पड़ा था कि इस संसार में उनके सुकर्मों का यशगान होना बंद हो गया था, मेरे पास आकर पूछने लगे कि महाराज! आपने मुझे पहचाना? मैंने उत्तर दिया कि हम वनवासी रमते साधु, जिन्हें यही याद नहीं रहता कि उन पर क्या गुजर रही है, भला आपको क्या जानें ? हां, मुझसे अधिक आयु वाला प्रवरकर्ण नाम का एक उलूक, जो हिमालय पर्वत के एक प्रसिद्ध रास्ते के पास रहता है, वह शायद आपके बारे में जानता हो। तब इन्द्रद्युम्न घोड़ा बनकर मुझे मेरे दिखाए मार्ग के अनुसार उस उलूक के पास ले गए।राजा उलूक से पूछा, "महाशय ! क्या आप मुझे जानते हैं?” उलूक ने कुछ देर सोचकर कहा कि वह उन्हें नहीं जानता। इन्द्रद्युम्न ने उलूक से पूछा, "क्या आपसे बड़ी उम्र वाला कोई और जीव को आप जानते हैं ?"
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गोधन में प्रियता (वीरांगना इन्द्रसेना)

गोधन में प्रियता (वीरांगना इन्द्रसेना) तपस्वी मुद्गल अपनी पत्नी इन्द्रसेना के साथ बहुत प्रसन्न थे। अपने पशुओं से उन्हें बहुत प्रेम था। वे वन के मध्य स्थित मैदानी भाग में अपने पशुधन के साथ रहा करते थे। तपश्चर्या और पशु धन की सेवा-सुश्रूषा में दोनों व्यस्त रहते। ऋषि मुद्गल दिन भर जंगल में अपने पशुओं को चराते। ऋषि पत्नी इन्द्रसेना उनकी अनुपस्थिति में पशुओं के बच्चों की देख-रेख करती थी। प्रसन्न एवं स्वस्थ पशुओं को देख-देखकर इस दम्पतिके आनंद की सीमा नहीं रहती। उनके जीवन में एक दिन ऐसी घटना घटी कि अचानक तूफान आ गया हो। प्रतिदिन की भांति ऋषि मुद्गल ने रात्रि विश्राम के पहले अपनी गायों एवं वृषभों को बाड़े में बंद कर दिया और पत्नी के साथ कुटिया में सो गए। प्रातः जब आकर बाड़े में देखा तो उनका दिल ही बैठ गया। चोर एक बूढ़े बैल को छोड़कर शेष समस्त पशुधन को चुराकर ले गए। मुद्गल व्यथित हो अपने मस्तक से हाथ लगाकर निःसहाय की तरह बाड़े के द्वार पर ही बैठे रह गए। उनकी पत्नी को यह सब देखकर बहुत चिंता हुई।
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कुसंग का दुष्परिणाम

कुसंग का दुष्परिणाम प्राचीनकाल में चंद्रवंश में धर्मकीर्ति नामक एक राजा हुए थे। वे बड़े ही बुद्धिमान और पुण्यकर्मा थे। उनके प्रजापालन में कोई त्रुटि नहीं थी। वैदिक मार्ग का अनुसरण करना उनका सहज स्वभाव था। वे समय-समय पर यज्ञों का आयोजन भी करते रहते थे। ऐसे गुणवान राजा का ऐश्वर्य सम्पन्न होना स्वाभाविक ही था। परंतु कोई पुरुष अत्यन्त धैर्यवान, दयालु, सद्गुणी, सदाचारी, नीति, कर्त्तव्यनिष्ठ और गुरु का भक्त अथवा विद्या - विवेक सम्पन्न भी क्यों न हो, यदि वह निरंतर अत्यन्त पापबुद्धि दुष्ट पुरुषों का संग करेगा तो अवश्य ही उन्हीं की बुद्धि से प्रभावित होकर उन्हीं के समान हो जाएगा। इसलिए सदा ही दुष्ट पुरुषों का संग त्याग देना चाहिए। उपयुक्त नीतियुक्त वचन का पालन न करने से राजा धर्मकीर्ति का भी पतन हो गया था। राजा धर्मकीर्ति के कोष में धन की कोई कमी न थी। दुराचारी- पाखंडियों की दृष्टि तो सदैव धन पर ही रहती है। उन्होंने राजा धर्मकीर्ति पर भी अपना चक्र चलाया। पाखण्डी लोग बार-बार राजा को यह समझाते कि यज्ञ आदि सत्कर्म करने से क्या लाभ?
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कौत्स की गुरु दक्षिणा (साईं थोड़ा राखिए)

कौत्स की गुरु दक्षिणा (साईं थोड़ा राखिए)प्राचीन काल में महर्षि वर्तन्तु के गुरुकुल में कौत्स नामक एक विद्यार्थी था। गुरुकुल से शिक्षा समाप्त कर जब कौत्स जाने लगा तो गुरु को प्रणाम कर बोला, "गुरुदेव ! आपकी कृपा तथा आशीर्वाद से मैंने शिक्षा पूरी कर ली। अब गुरु-दक्षिणा के लिए आज्ञा दें।"आचार्य आशीर्वाद देते हुए बोले, "वत्स कौत्स ! तुम गुरुकुल के मेधावी छात्र रहे हो । मेरा आशीष है, तुम जीवन तथा समाज का विकास करने के लिए अपनी शिक्षा का उपयोग करो।"कौत्स सिर झुकाकर बोला, "मैंने आपके आश्रम में रहकर इतने दिनों तक जीवन बिताया तथा गुरुकुल में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण की। इसके लिए मुझे गुरु-दक्षिणा की आज्ञा दीजिए। गुरु-दक्षिणा देकर मुझे बड़ा संतोष होगा।"
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यज्ञ का स्वरूप यह भी (अद्भुत हविष्य)

यज्ञ का स्वरूप यह भी (अद्भुत हविष्य)राजा खनिनेत्र के राज्य में सब प्रकार से शांति तथा सुख सम्पत्ति होने के बाद भी उन्हें एक दुख था कि उनके कोई संतान नहीं थी। वे बहुत ही धार्मिक तथा दानी राजा थे। उनकी मृत्यु के बाद राज्य का उत्तराधिकारी कौन होगा, तथा पितरों को तर्पण देने के लिए कौन है? कोई संतान न होने से वृद्धावस्था में उनकी सेवा करने वाला कोई नहीं । इस प्रकार से दुःख और उनकी इस चिंता को देखकर उनके कुलगुरु ने एक यज्ञ करने के लिए कहा और यह भी कहा कि यह राजस सकाम यज्ञ होगा। इसलिए इसमें किसी जीव की बलि देनी होगी। यज्ञदेव के प्रसन्न होने के बाद फिर पुत्रेष्टि यज्ञ किया जाएगा, जिसके फल से आपको संतान पैदा होगी। कुलगुरु के कहे अनुसार महाराज ने यज्ञ प्रारंभ किया। यज्ञ समाप्ति के पूर्व यज्ञ में किसी जीव की बलि के लिए महाराज वन में शिकार के लिए गए तो अचानक एक मृग सामने आ गया।
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सम्राट मुचुकुन्द ( मुचुकुन्द)

सम्राट मुचुकुन्द ( मुचुकुन्द) साक्षात् परब्रह्म परमात्मा श्रीराम रूप से जिस कुल में अवतीर्ण हुए वह सूर्यवंश में इक्ष्वाकु कुल बड़ा ही प्रसिद्ध है, इसी वंश में महाराज मान्धाता जैसे महान् प्रतापी राजा हुए। महाराज मुचुकुन्द उन्हीं मान्धाता के पुत्र थे। वे सम्पूर्ण पृथ्वी के एक छत्र सम्राट थे बल पराक्रम में वे इतने बढे चढे थे कि पृथ्वी के राजाओं की तो बात ही क्या, देवराज इन्द्र भी उनकी सहायता के लिए लालायित रहते थे। एक बार असुरों ने देवताओं पर विजय प्राप्त ली, देवता बड़े दुःखी हुए। उनके पास कोई योग्य सेनापति नहीं था। अतः उन्होंने महाराज मुचुकुन्द से सहायता की प्रार्थना की। महाराज ने देवराज की प्रार्थना स्वीकार की और वे बहुत समय तक देवताओं की रक्षा के लिए असुरों से लड़ते रहे। बहुत काल के पश्चात् देवताओं को शिवजी के पुत्र स्वामी कार्तिकेय योग्य सेनापति मिल गए। तब देवराज इन्द्र ने महाराज मुचुकुन्द से कहा, "राजन्! आपने हमारी बड़ी सेवा की, अपने स्त्री- बच्चों को छोड़कर आप हमारी रक्षा में लग गए। वहां स्वर्ग में जिसे एक वर्ष कहते हैं, पृथ्वी में उतने ही समय को तीन सौ साठ वर्ष कहते हैं। आप हमारे यहां हजारों वर्षों से हैं। अतः आपकी राजधानी का कहीं पता भी नहीं, आपके परिवार वाले काल के गाल में चले गए या जीवित हैं, यह भी पता नहीं। हम आप पर बड़े प्रसन्न हैं। मोक्ष को छोड़कर आप जो कुछ भी वरदान मांगना चाहें मांग लें, मोक्ष देना हमारी शक्ति के बाहर की बात है।"
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राजा मयूरध्वज की परीक्षा (मयूरध्वज)

राजा मयूरध्वज की परीक्षा (मयूरध्वज)द्वापर के अंत में रत्नपुर के अधिपति महाराज मयूरध्वज बहुत बड़े धर्मात्मा तथा भगवद्भक्त संत हुए। उनकी धर्मशीलता, प्रजावत्सलता एवं भगवान् के प्रति स्वाभाविक अनुराग अतुलनीय ही था। उन्होंने भगवत्प्रीत्यर्थं अनेकों बड़े-बड़े यज्ञ किए थे और करते ही रहते थे। एक बार उनका अश्वमेध का घोड़ा छूटा हुआ था और उसके साथ उनके वीर पुत्र ताम्रध्वज प्रधानमंत्री सेना के साथ रक्षा करते हुए घूम रहे थे। उधरउन्हीं दिनों धर्मराज युधिष्ठिर का भी अश्वमेध यज्ञ चल रहा था और उनके घोड़े के रक्षक के रूप में अर्जुन और उनके सारथि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण साथ थे। मणिपुर में दोनों की मुठभेड़ हो गई।उन दिनों भगवान के सारथ्य और अनेकों वीरों पर विजय प्राप्त करने के कारण अर्जुन के मन में कुछ अपनी भक्ति तथा वीरता का घमण्ड-सा हो गया था। संभव है इसीलिए अथवा अपने एक छिपे हुए भक्त की महिमा प्रकट करने के लिए भगवान् ने एक अद्भुत लीला रची। परिणामतः युद्ध में श्रीकृष्ण के हीबल पर मयूरध्वज के पुत्र ताम्रध्वज ने विजय प्राप्त की और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन दोनों को मूच्छित करके वह दोनों घोड़ों को अपने पिता के पास ले गया।
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जो होनी हो सो होय (भक्त चन्द्रहास)

जो होनी हो सो होय (भक्त चन्द्रहास) द्वापर युग में केरल देश में मेधावी नामक एक धर्मात्मा राजा थे, उनके एकमात्र पुत्र का नाम चन्द्रहास था। जब चन्द्रहास की छोटी ही अवस्था थी तभी शत्रुओं ने युद्ध में केरलपति को मारकर राज्य पर अधिकार कर लिया था। पतिव्रता रानी उन्हीं के साथ सती हो गई। इस विपत्ति काल में एक स्वामिभक्ता धाय चन्द्रहास को लिए हुए चुपके से नगर से निकलकर कुन्तलपुर चली गई और चन्द्रहास की तीन वर्ष की अवस्था तक मेहनत-मजदूरी करके पुत्रवत् पालन करती रही। अंत में वह भी काल का ग्रास बन गई। चन्द्रहास अब अनाथ और निराश्रय हो गया। परन्तु अनाथनाथ भगवान् निराधार के आधार हैं। भगवत्कृपावश चन्द्रहास का पालन नगर की स्त्रियों द्वारा होने लगा। उसके मनोहर मुखमण्डल ने सबके मन हर लिए। एक दिन देवर्षि नारद घूमते-घामते उधर आ निकले। बालक को योग्य अधिकारी जानकर उन्होंने उसे शालग्राम जी की एक मूर्ति और 'राम' मंत्र का उपदेश दिया। शुद्ध हृदय बालक बड़े प्रेम से मूर्ति की पूजा और हरिनाम कीर्तन करने लगा। कीर्तन करते समय चन्द्रहास को मालूम होता कि मानो एक जन-मन मोहन श्यामबदन बालक उसके साथ नाच और गा रहा है।
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ब्रह्मवेत्ता याज्ञवल्क्य

ब्रह्मवेत्ता याज्ञवल्क्य यज्ञवल्क के वंशज होने के कारण उनका नाम याज्ञवल्क्य पड़ा। महर्षि याज्ञवल्क्य का शास्त्र ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान अपूर्व था । एक बार राजा जनक ने यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में हजारों ऋषि पधारे। राजा जनक ने यह जानना चाहा कि उपस्थित ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी कौन हैं ? इसके लिए राजा ने एक उपाय किया। उन्होंने एक हजार गौओं को गोशाला में रोक लिया। प्रत्येक गाय के सींगों में दस-दस पाद सुवर्ण बंधे हुए थे। राजा ने हाथ जोड़कर ऋषियों से कहा कि मैं आप लोगों की शरण में हूं। आप सबके सब महान हैं। मैं चाहता हूं कि आप लोगों में जो सबसे बड़े ब्रह्मनिष्ठ हों, वे इन गौओं को ले जाएं।सभा में सभी ज्ञानी थे, प्रत्येक ने चाहा कि यह धन हमें मिले, किंतु किसी ब्राह्मण का साहस नहीं हुआ। तब महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्य को आदेश दिया कि इन गौओं को हांक ले चलो। यह सुनकर उपस्थित ब्राह्मणों में हलचल मच गई। सब का कहना था कि यह अपने को ब्रह्मनिष्ठ कैसे कह रहा है ? विदेहराज जनक की सभा से आश्वल ने पूछा, “याज्ञवल्क्य ! क्या हम लोगों में तुम्हीं ब्रह्मनिष्ठ हो ?" याज्ञवल्क्य ने कहा, “ब्रह्मनिष्ठ को मैं नमस्कार करता हूं। मैं तो गौओं की इच्छा करता हूं।" लोगों में क्रोध बढ़ता देख कर याज्ञवल्क्य ने प्रसन्नता के साथ कहा, " आप लोग क्रोध न करें। जो चाहें, मुझसे प्रश्न करें।" फिर तो एक ओर सारे ऋषि हो गए और दूसरी ओर अकेले याज्ञवल्क्य । एक-एक कर ऋषियों ने याज्ञवल्क्य से गहन-से-गहन प्रश्न पूछे।
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कल्याण कैसे होगा?

कल्याण कैसे होगा? एक के मन में विचार आया कि कल्याण कैसे हो? अपने कल्याण के लिये वह साधु के पास गयी। उन्होंने कहा कि तुम साधुओं का संग करो। साधु की सेवा करो तो कल्याण होगा। वह ब्राह्मणोंके पास गयी तो उन्होंने कहा कि साधु तो बना हैं, पर हम जन्म से ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सबका गुरु होता है । अत: तुम ब्राह्मणों की सेवा करो तो कल्याण होगा। इस के बाद वह संन्यासियों के पास गयी तो उन्होंने कहा कि संन्यासी सब वर्णों का गुरु होता है, इसलिये उसकी सेवा करें कल्याण होगा। फिर वह वैरागियों के पास गयी तो उन्हों कहा कि वैरागी सबसे महान होता है; अतः उसकी सेवा से तो कल्याण होगा ही। फिर वह अलग-अलग सम्प्रदाय के गुरुओं के पास गयी तो उन्होंने कहा कि हम सबसे ऊँचे हैं शेष सब पाखण्डी हैं। तुम हमारी चेली बन जाओ, हमसे मन्त्र लो, तब हम वह बात बतायेंगे, जिससे तुम्हारा कल्याण हो जायगा। इस प्रकार वह वेश्या जहाँ भी गयी, वहीं उसके अपने-अपने वर्ण, आश्रम, मत, सम्प्रदाय आदि का पक्षपात दिखायी दिया। यह देखकर उसके मन में आया कि अब तत्व समझ में आ गया! युक्ति हाथ लग गयी ! साधु कहते हैं कि साधुओं को पूजो, ब्राह्मण कहते हैं कि ब्राह्मणों को पूजो, मैं वेश्या हूँ तो क्यों न वेश्याओं को पूजें! ऐसा सोचकर उसने वेश्याभोज करने का विचार किया। उसमें सब वेश्याओं को निमन्त्रण दिया। निश्चित समयपर सब वेश्याएँ वहाँ आने लगीं।
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भगवान्‌ की मर्ज़ी

भगवान्‌ की मर्ज़ी नाव मैं बैठ कर साधु बाबा कहीं जा रहे थे साथ में और भी बहुत लोग थे। बीच धारा में नाव बहने लगी ज्यों ही वह नौका जोरसे बही, मल्लाह ने कहा अपने इष्ट को याद करो, अब नौका हमारे हाथ में नहीं रही। पानी तेजी से आ रहा है और आगे भवर पड़ता है, अतः प्रभु को याद करो।' यह सुनकर कई तो रोने लगे, भगवान्को याद करने लगे। बाबाजी भी बैठे थे। उनके पास कमण्डलु था । उन्होंने 'जय सियाराम जय जय सियाराम, सियाराम जय जय सियाराम' बोलना शुरू कर दिया और कमण्डलुसे पानी भर-भरकर नौकामें गिराने लगे। लोगों ने कहा- 'यह क्या करते हैं?' पर कौन सुने! वे तो नदी से पानी नौका में भरते रहे और 'जय सियाराम जय जय सियाराम कहते रहे। कुछ ही देर में नौका घूमकर ठीक प्रवाह में गयी, जहाँ नाविक कुशलता से नाव चला सकता था। तब नाविक बोला 'अब घबरानेकी बात नहीं रही, किनारा निकट है।'
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भगवान् किसके दास होते हैं?

भगवान् किसके दास होते हैं? वृन्दावन में एक भक्त को बिहारीजी के दर्शन नहीं हुए। लोग कहते कि अरे ! बिहारी जी सामने ही तो खड़े हैं। पर वह कहता कि भाई ! मुझे तो नहीं दिख रहे ! इस तरह तीन दिन बीत गये पर दर्शन नहीं हुए। उस भक्तने ऐसा विचार किया कि सबको दर्शन होते हैं पर मुझे नहीं, तो मैं बड़ा पापी हूँ कि ठाकुरजी दर्शन नहीं देते; अतः यमुनाजी में डूब जाना चाहिये। ऐसा विचार करके रात्रिके समय वह यमुनाजी की तरफ चला । वहाँ यमुनाजी के पास एक कोढ़ी सोया हुआ था । उसको भगवान् ने स्वप्र में कहा कि अभी यहाँपर जो आदमी आयेगा, उसके तुम पैर पकड़ लेना। उसकी कृपा से तुम्हारा कोढ़ दूर हो जायगा । वह कोढ़ी उठकर बैठ गया। जैसे ही वह भक्त वहाँ आया, कोढ़ी ने पैर पकड़ लिये और कहा कि मेरा कोढ़ दूर करो। भक्त बोला कि अरे! मैं तो बड़ा पापी हूँ, ठाकुरजी मुझे दर्शन भी नहीं देते ! बहुत कहने पर भी कोढ़ी ने उसको छोड़ा नहीं। अन्त में कोढ़ी ने कहा कि अच्छा, तुम इतना कह दो कि तुम्हारा कोढ़ दूर हो जाय। वह बोला कि इतनी हमारी योग्यता ही नहीं है कि तुम्हें ठीक कर सकें ।
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बुराईके बदले भलाई

एक संत हुए हैं पण्डित जयदेव, एक राजा उनके शिष्य थे और उनका सब प्रबन्ध किया करता था। वे त्यागी थे और गृहस्थ होते हुए भी 'मेरेको कुछ मिल जाय कोई धन दे दे'–ऐसा चाहते नहीं थे। उनकी स्त्री भी बड़ी विलक्षण पतिव्रता थी; क्योंकि उनका विवाह भगवान् ने करवाया था, वे विवाह करना नहीं चाहते थे। एक दिन की बात है, राजा ने उनको बहुत-सा धन दिया, लाखों रुपयों के रत्न दिये। उनको लेकर वे वहाँसे रवाना हुए रास्ते में जंगल था। डाकुओं को इस बात का पता लग गया। उन्होंने उनके पास जो धन था, वह सब छीन लिया। डाकुओं के मनमें आया कि यह राजा का गुरु है, कहीं जीता रह जायगा तो हमारे को पकड़वा देगा। अत: उन्होंने जयदेव के दोनों हाथ काट लिये और उनको एक सूखे हुए कुएँमें गिरा दिया। जयदेव कुएँके भीतर पड़े रहे। एक-दो दिनमें राजा जंगलमें आया। उसके आदमियों ने पानी लेने के लिये कुएँमें लोटा डाला तो वे कुएँमेंसे बोले कि ‘भाई, ध्यान रखना, मुझे लग न जाय। इस कुएँ में जल नहीं है, !' उन लोगों ने आवाज सुनी तो बोले कि यह आवाज तो पण्डितजी की है! पण्डितजी यहाँ कैसे आये ! उन्होंने राजा को कहा कि महाराज! पण्डितजी तो कुएँ में से बोल रहे हैं।
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