महाराज पृथु का शौर्य (पृथ्वी बनी गाय)एक समय राजा वेन के अत्याचार के बाद सबकुछ नष्ट हो चुका था। देश में भुखमरी फैली थी वर्षा न होने से अकाल पड़ा था। पृथ्वी की उर्वरा शक्ति समाप्त हो गई थी। प्रजा अराजक हो गई थी। अत्याचारी राजा वेन के मरने पर ऋषियों ने उसके वंशज पृथु का राज्याभिषेका किया। पृथु राजा तो हो गए, पर उनको उत्तराधिकार में ऐसा राज्य मिला, यज्ञ, पाठ, पूजा आदि धार्मिक कर्म-काण्ड बंद हो चुके थे। महाराज पृथु की चिंता बढ़ी। प्रजा भूख से पीड़ित होकर मरणासन्न स्थिति में पहुंच गई है। मैं राजा का कर्त्तव्य कैसे निभाऊं ? ऋषियों से परामर्श किया कि देश की दशा और राज्यकोष में कुछ भी न होने से वे राज-काज कैसे करें । ऋषियों ने कहा, “महाराज पृथु ! आपके पिता के अत्याचारों से दुखी होकर हम लोगों ने वेन को मारकर आपको सर्व शक्तिमान समझकर राजा बनाया है, यदि आप भी असहाय होकर बैठ जाएंगे तो क्या होगा। यही तो आपके शौर्यतथा कार्य कुशलता का अवसर है।"
वचन की मर्यादा
वचन की मर्यादा
फूल दार पेड़ों की लताओं से धूप छन-छन कर आ रही थी। यज्ञवेदी के समीप समिधा, घृत और कुशासन था। हल्की धुएं
की रेखा यह बता रही थी कि अभी-अभी यज्ञ समाप्त हुआ है। हवन सामग्री की उठती हुई सुगंध से समस्त आश्रम का वातावरण पवित्र हो रहा था। यह ऋषि दध्यंच का आश्रम था, जो हरे-भरे वृक्षों से घिरा हुआ था आश्रम के समीप जलाशय था। इन्द्र पृथ्वीलोक पर विचरण करने निकले तो फूलों से सजे
एक ऐसे सुरभित रम्य आश्रम को देखकर इन्द्र की इच्छा हुई कि थोड़ी देर के लिए आश्रम में चलकर ऋषि के दर्शन करें। रथ रुका। सारथि को रुके रहने का आदेश देकर इन्द्र ने पुष्पित-पल्लवित आश्रम को पुनः आंखें घुमाकर देखा। यज्ञशाला से उठती हवि की सुगंधित धूम्र राशि वायुमण्डल को शुद्ध कर रही थी। तपोनिष्ठ ऋषि दध्यंच के हृदय की पवित्रता विकसित होकर आश्रम के कण-कण में मुखरित थी ।
असुर गय बने गया तीर्थ (बहुजन हिताय)
असुर गय बने गया तीर्थ
(बहुजन हिताय)
श्री ब्रह्मा जी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो असुर कुल में “गय” का जन्म हुआ, असुर कुल में उत्पन्न होने के बाद भी उसमें आसुरी वृत्ति नहीं थी। वह परम वैष्णव तथा वेदज्ञ था। वेद संहिताओं में जिन असुरों का नाम आया है, उनमें गय प्रमुख है। एक बार उसकी इच्छा हुई कि वह अच्छे कार्य कर इतना पुण्यात्मा हो जाए कि लोग उसका दर्शन करके ही सब पापों से
मुक्त हो जाएं तथा मृत्यु के बाद उन लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति हो। इसी विचार से उसने कोलाहल पर्वत पर समाधि लगाकर श्री विष्णु जी की तपस्या करनी प्रारंभ की। अनेक वर्षों तपस्या रत रहने पर उसकी तपस्या दृढ़ होती गई। उसके कठोर तप से भगवान विष्णु प्रकट हुए और प्रभावित होकर गय की समाधि भंग करते हुए कहा, “महात्मन् गय, उठो! तुम्हारी तपस्या पूर्ण
हुई। किस उद्देश्य के लिए इतना कठोर तप किया ?
मनुष्य से देव बनने की यात्रा (कर्म की प्रधानता)
मनुष्य से देव बनने की यात्रा
(कर्म की प्रधानता)
ऋभु, विम्बन और बाज तीनों भाई शिल्पकला सीखने की आकांक्षा लेकर गुरु त्वष्टा के पास आए। त्वष्टा शिल्पकला में निष्णात थे। उन तीनों ने अपनी इच्छा गुरु त्वष्टा से समक्ष प्रकट की। त्वष्टा सामान्य रूप से किसी को अपना शिष्य नहीं बनाते थे। अतः आदेश देते हुए बोले, “पहले शिल्पकला में अपनी रुचि पैदा करो।" गुरु की आज्ञा पाकर तीनों भाई शिल्पकला में रुचि लेकर दक्षता प्राप्त करने हेतु पूर्ण आस्था व परिश्रम के साथ तल्लीन हो गए। त्वष्टा भी अपने कुशल एवं निष्ठावान तथा परिश्रमशील तीनों शिष्यों को पाकर बहुत संतुष्ट थे।
शीतल छायादार वृक्षों की छाया में काष्ठ (लकड़ी) की मूर्तियां बनाने में तीनों युवक कलाकार तल्लीन थे।
योग्यता की परख (उत्तराधिकारी का चुनाव)
योग्यता की परख (उत्तराधिकारी का चुनाव)
एक समय राजा वृहद्रथ बहुत ही सुयोग्य तथा प्रजापालक राजा हुए ।वे स्वयं को राजा की अपेक्षा प्रजा का संरक्षक अधिक समझते थे। उनका राज्य धन-धान्य से भरपूर था तथा प्रजा सुखी थी। जब वे वृद्ध हुए तो सोचा कि राज्य का उत्तराधिकारी
नियुक्त कर वे वानप्रस्थ आश्रम में जाकर शेष जीवन ईश्वर भक्ति में बिताएंगे। उनके तीन पुत्रों में नियम के अनुसार तो बड़े पुत्र को ही राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जा सकता था, पर तीनों पुत्रों में आपस में सहमति न होने तथा भिन्न-भिन्न गुणों के कारण वे निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि किसको उत्तराधिकारी
बनाया जाए। उन्हें डर था कि यदि राजा योग्य न निकला तो प्रजा दुखी हो जाएगी। पड़ोसी राजा आक्रमण कर इस राज्य को ही हड़प लेंगे। इसी चिंता में वे घुले जा रहे थे।
अपने पुत्रों का व्यवहार तथा स्वभाव देखकर वे कुछ निर्णय नहीं ले पा रहे थे। उन्होंने मंत्रिपरिषद से सलाह की, मंत्रियों ने कहा,
'महाराज ! इसके बारे में हम क्या सलाह दें ? राज्य का उत्तराधिकारी आप जिसे चाहें उसे बनाएं। हम उसे ही अपना राजा मानकर उसके आदेशों का पालन करेंगे।"
महाराजा वृहद्रथ ने कहा, "अगर वह राजा अविवेकपूर्ण आदेश देने लगे और उससे प्रजा का कष्ट बढ़ने की संभावना हो तथा राज्य अशक्त हो तो क्या तब भी आप उसके आदेश मानेंगे? अपने विवेक से उसे परामर्श नहीं देंगे ?"
मद से पतन (प्रभुता का मद)
मद से पतन (प्रभुता का मद)
इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर दिया इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। वृत्रासुर त्वष्टा ऋषि का यज्ञपुत्र था। तब इन्द्र अपना लोक छोड़कर भागे और एक अज्ञात सरोवर में जा छिपे। ब्रह्महत्या के भय से इंद्र बहुत वर्षों उस सरोवर से निकले ही नहीं, इन्द्रासन सूना हो गया। राजा के न रहने से बड़ी अव्यवस्था हो गई।
सब विचार करने लगे कि राजकाज कौन देखे, किसे राजा बनाया जाए? देवगुरु बृहस्पति ने कहा, “इन्द्रलोक का राजकाज चलाने के लिए किसी समर्थ, योग्य और अनुभवी राजा को ही इस पद पर बैठाया जाए।" बहुत सोच-
विचार के बाद गुरु बृहस्पति ने कहा, "इस समय भूलोक में नहुष का राज है।। वे बहुत ही समर्थ, योग्य और चक्रवर्ती साम्राट हैं। इन्द्र के न आने तक उन्हें इंद्र की पदवी देकर इन्द्रासन पर बैठाया जाए।"
एकादशी व्रत में निष्ठा (भगवान विष्णु की आराधना)
एकादशी व्रत में निष्ठा (भगवान विष्णु की आराधना)
प्राचीनकाल में रुक्मांगद नामक एक प्रसिद्ध नरेश थे। राजा रुक्मांगद का गृहस्थ-जीवन पूर्ण रूप से सुखमय था। वे पीताम्बरधारी भगवान श्री हरि की आराधना करते हुए मनुष्यलोक के उत्तम भोग भोग रहे थे। उनकी पत्नी संध्यावली साक्षात् भगवती लक्ष्मी का दूसरा रूप हों वे पतिव्रता थी। वह सभी दृष्टि से पति का सुख-सम्पादन करने में अद्वितीय थी। राजा रुक्मांगद के लिए भगवान विष्णु की आराधना ही उनका जीवन था। वे चराचर जगत में अपने आराध्य भगवान हृषीकेश के दर्शन करते तथा पद्मनाभ भगवान की सेवा की भावना से ही अपने राज्य का संचालन करते थे। वे सभी प्राणियों के प्रति क्षमाभाव रखते थे। राजा रुक्मांगद ने अपने जीवन में अपनी समस्त प्रजा एवं परिवार सहित एकादशी व्रत के अनुष्ठान का नियम धारण कर रखा था। एकादशी के दिन राज्य की ओर से घोषणा होती थी कि 'आज एकादशी के दिन आठ वर्ष से अधिक और पचासी वर्ष से कम आयु वाला जो भी मनुष्य अन्न खाएगा, वह राजा की ओर से दण्ड का भागी होगा।' एकादशी के दिन सभी लोग गंगा स्नान एवं दान-पुण्य करते थे। राजा के धर्म की ध्वजा सर्वत्र फहराने लगी। धर्म के प्रभाव से प्रजा
सर्वथा सुखी एवं समृद्ध थी। पति की सेवा वह अपने हाथों से करती थी।
लम्बी उम्र का जीवन दर्शन (सत्कर्म का यश)
लम्बी उम्र का जीवन दर्शन (सत्कर्म का यश)
पांडवों को उनके वनवासकाल में ऋषि मार्कण्डेय ने
अनेक कथाएं सुनाई थीं। एक बार ऋषि मार्कण्डेय से पांडवों ने पूछा, "आप किसी ऐसे को जानते हैं जो आपसे भी लम्बी उम्र का हो?" ऋषि ने कहा, "एक बार प्रसिद्ध राजर्षि इन्द्रद्युम्न,
जिन्हें स्वर्ग से इसलिए निकलना पड़ा था कि इस संसार में उनके सुकर्मों का यशगान होना बंद हो गया था, मेरे पास आकर पूछने लगे कि महाराज! आपने मुझे पहचाना? मैंने उत्तर दिया कि हम वनवासी रमते साधु, जिन्हें यही याद नहीं रहता कि उन पर क्या गुजर रही है, भला आपको क्या जानें ? हां, मुझसे
अधिक आयु वाला प्रवरकर्ण नाम का एक उलूक, जो हिमालय पर्वत के एक प्रसिद्ध रास्ते के पास रहता है, वह शायद आपके बारे में जानता हो। तब इन्द्रद्युम्न घोड़ा बनकर मुझे मेरे दिखाए मार्ग के अनुसार उस उलूक के पास ले गए।राजा उलूक से पूछा, "महाशय ! क्या आप मुझे जानते हैं?” उलूक ने कुछ देर सोचकर कहा कि वह उन्हें नहीं जानता। इन्द्रद्युम्न ने उलूक से पूछा, "क्या आपसे बड़ी उम्र वाला कोई और जीव को आप जानते हैं ?"
गोधन में प्रियता (वीरांगना इन्द्रसेना)
गोधन में प्रियता (वीरांगना इन्द्रसेना)
तपस्वी मुद्गल अपनी पत्नी इन्द्रसेना के साथ बहुत प्रसन्न थे। अपने पशुओं से उन्हें बहुत प्रेम था। वे वन के मध्य स्थित मैदानी भाग में अपने पशुधन के साथ रहा करते थे। तपश्चर्या और पशु धन की सेवा-सुश्रूषा में दोनों व्यस्त रहते। ऋषि मुद्गल दिन भर जंगल में अपने पशुओं को चराते। ऋषि पत्नी इन्द्रसेना उनकी अनुपस्थिति में पशुओं के बच्चों की देख-रेख करती थी। प्रसन्न एवं स्वस्थ पशुओं को देख-देखकर इस दम्पतिके आनंद की सीमा नहीं रहती।
उनके जीवन में एक दिन ऐसी घटना घटी कि अचानक तूफान आ गया हो। प्रतिदिन की भांति ऋषि मुद्गल ने रात्रि विश्राम के पहले अपनी गायों एवं वृषभों को बाड़े में बंद कर दिया और पत्नी के साथ कुटिया में सो गए। प्रातः जब आकर बाड़े में देखा तो उनका दिल ही बैठ गया। चोर एक बूढ़े बैल को छोड़कर शेष समस्त पशुधन को चुराकर ले गए। मुद्गल व्यथित हो अपने मस्तक से हाथ लगाकर निःसहाय की तरह बाड़े के द्वार पर ही बैठे रह गए। उनकी पत्नी को यह सब देखकर बहुत चिंता हुई।
कुसंग का दुष्परिणाम
कुसंग का दुष्परिणाम
प्राचीनकाल में चंद्रवंश में धर्मकीर्ति नामक एक राजा हुए थे।
वे बड़े ही बुद्धिमान और पुण्यकर्मा थे। उनके प्रजापालन में कोई त्रुटि नहीं थी। वैदिक मार्ग का अनुसरण करना उनका सहज स्वभाव था। वे समय-समय पर यज्ञों का आयोजन भी करते रहते थे। ऐसे गुणवान राजा का ऐश्वर्य सम्पन्न होना स्वाभाविक ही था।
परंतु कोई पुरुष अत्यन्त धैर्यवान, दयालु, सद्गुणी, सदाचारी, नीति, कर्त्तव्यनिष्ठ और गुरु का भक्त अथवा विद्या - विवेक सम्पन्न भी क्यों न हो, यदि वह निरंतर अत्यन्त पापबुद्धि दुष्ट पुरुषों का संग करेगा तो अवश्य ही उन्हीं की बुद्धि से प्रभावित होकर उन्हीं के समान हो जाएगा। इसलिए सदा ही दुष्ट पुरुषों का संग त्याग देना चाहिए। उपयुक्त नीतियुक्त वचन का पालन न करने से राजा धर्मकीर्ति का भी पतन हो गया था।
राजा धर्मकीर्ति के कोष में धन की कोई कमी न थी। दुराचारी- पाखंडियों की दृष्टि तो सदैव धन पर ही रहती है। उन्होंने राजा
धर्मकीर्ति पर भी अपना चक्र चलाया। पाखण्डी लोग बार-बार राजा को यह समझाते कि यज्ञ आदि सत्कर्म करने से क्या लाभ?