श्रीमद भगवद महात्म्य:गीता शास्त्रं इदं पुण्यं यः पठेत् प्रयतः पुमान् ।विष्णोः पादं अवाप्नोति भय शोकादि वर्जितः ।।१।।भगवद्गीता दिव्य साहित्य है। जो इसे ध्यानपूर्वक पढ़ता है और इसके उपदेशों का पालन करता है, वह भगवान् विष्णु का आश्रय प्राप्त करता है जो कि समस्त भय तथा चिंताओं से मुक्त है।गीताध्ययनशीलस्य प्राणायामपरस्य च। नव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्मकृतानि च ||२।।“यदि कोई भगवद्गीताको निष्ठा तथा गम्भीरता के साथ पढ़ता है तो भगवान् की कृपा से उसके सारे पूर्व दुष्कर्मों के फ़लों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
पहला अध्यायःअर्जुन विषाद योग
॥ श्रीपरमात्मने नमः ॥श्रीमद्भगवद्गीताअथ प्रथमोऽध्यायःधृतराष्ट्र उवाचधर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥१॥धृतराष्ट्र बोले- हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें एकत्रित, युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? ॥१॥सञ्जय उवाचदृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्॥२॥संजय बोले—उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचना युक्त पाण्डवों की सेना को देख कर और द्रोणाचार्य के पास जा कर यह वचन कहा ॥२॥पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डु पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये ॥३॥
द्वितीयोऽध्यायः सांख्य योग श्लोक १-३५
अथ द्वितीयोऽध्यायःसञ्जय उवाचतं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥ १॥ संजय बोले— उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रोंवाले शोकयुक्त उस अर्जुनके प्रति भगवान् मधुसूदनने यह वचन कहा ॥१॥ श्रीभगवानुवाचकुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥२॥श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देनेवाला है और न कीर्तिको करनेवाला ही है॥ २॥
द्वितीयोऽध्यायः सांख्य योग श्लोक ३६ -७२
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः। निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥३६॥तेरे वैरीलोग तेरे सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥ ३६॥ हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥३७॥या तो तू युद्धमें मारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ॥३७॥
श्रीमद भगवद गीत-तृतीयोऽध्यायः कर्मयोग
अथ तृतीयोऽध्यायःअर्जुन उवाचज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥१॥अर्जुन बोले - हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञानश्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म मेंक्यों लगाते हैं? ॥१॥व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥२॥आप मिले हुए-से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कररहे हैं। इसलिये उस एक बात को निश्चित करके कहियेजिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ॥ २ ॥
अथ चतुर्थोऽध्यायःश्रीभगवानुवाचइमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥१॥श्रीभगवान् बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था; सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा ॥ १ ॥एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥२॥हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना; किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वीलोक में लुप्तप्राय हो गया ॥ २ ॥
श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय-५ कर्मसंन्यासयोग
अथ पञ्चमोऽध्यायःअर्जुन उवाचसन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥१॥अर्जुन बोले – हे कृष्ण ! आप कर्मों के संन्यास की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं । इसलिये इन दोनों में से जो एक मेरे लिये भलीभाँति निश्चित कल्याणकारक साधन हो, उसको कहिये ॥ १ ॥श्रीभगवानुवाचसन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥२॥श्रीभगवान् बोले- कर्मसंन्यास और कर्मयोग- ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है ॥२॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-६ आत्मसंयमयोगो
अथ षष्ठोऽध्यायःश्रीभगवानुवाचअनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥१॥श्रीभगवान् बोले—जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करनेवाला योगी नहीं है ॥ १ ॥यं सन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।न ह्यसन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥२॥हे अर्जुन ! जिसको संन्यास' ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग जान; क्योंकि संकल्पों का त्याग न करने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता ॥ २ ॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-७ ज्ञानविज्ञानयोगो
अथ सप्तमोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥१॥
श्रीभगवान् बोले—हे पार्थ! अनन्य प्रेम से मुझमें आसक्तचित्त तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर योग में लगा हुआ तू जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशयरहित जानेगा, उसको सुन॥ १॥
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥२॥
मैं तेरे लिये इस विज्ञान सहित तत्त्वज्ञान को सम्पूर्णतया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर और कुछ भी जाननेयोग्य शेष नहीं रह जाता ॥ २ ॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-८ अक्षरब्रह्मयोगो
अथाष्टमोऽध्यायःअर्जुन उवाचकिं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥१॥अर्जुन ने कहा- हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है ? अधिभूत नामसे क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं ॥ १ ॥अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥२॥हे मधुसूदन ! यहाँ अधियज्ञ कौन है ? और वह इस शरीर में कैसे है ? तथा युक्तचित्त वाले पुरुषों द्वारा अन्त समय में आप किस प्रकार जाननेमें आते हैं ॥ २ ॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-९ राजविद्याराजगुह्ययोगो
अथ नवमोऽध्यायःश्रीभगवानुवाचइदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥१॥श्रीभगवान् बोले – तुझ दोष दृष्टि रहित भक्त के लिये इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुनः भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जायगा ॥ १ ॥राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥२॥यह विज्ञान सहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फल वाला, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है ॥ २ ॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-१० विभूतियोगो
अथ दशमोऽध्यायःश्रीभगवानुवाचभूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः । यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१॥श्रीभगवान् बोले—हे महाबाहो ! फिर भी मेरे परम रहस्य और प्रभावयुक्त वचन को सुन, जिसे मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिये हित की इच्छा से कहूँगा ॥ १ ॥न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥२॥मेरी उत्पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ ॥ २ ॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-११ विश्वरूपदर्शनयोगो
अथैकादशोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्।यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥१॥
अर्जुन बोले- मुझपर अनुग्रह करने के लिये आपने जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक वचन अर्थात् उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है ॥ १ ॥
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥२॥
क्योंकि हे कमलनेत्र! मैंने आपसे भूतोंकी उत्पत्ति और प्रलय विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपकी अविनाशी महिमा भी सुनी है ॥ २ ॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-१२ भक्तियोगो
अथ द्वादशोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥१॥
अर्जुन बोले- जो अनन्यप्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकारसे निरन्तर आपके भजन ध्यानमें लगे रहकर आप संगुणरूप परमेश्वरको और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को हो अतिश्रेष्ठ भावसे भजते हैं- उन दोनों प्रकारके उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं ? ॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥२॥
श्रीभगवान् बोले-मुझमें मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यानमें लगे हुए* जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वरको भजते हैं, वे मुझको योगियोंमें अति उत्तम योगी मान्य हैं ॥ २ ॥
अथ त्रयोदशोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥१॥
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’* इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको 'क्षेत्रज्ञ' इस नामसे उनके तत्त्वको जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं ॥१॥
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥२॥
हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात् विकार सहित प्रकृतिका और पुरुषका जो तत्त्वसे जानना है, वह ज्ञान है -ऐसा मेरा मत है ॥२॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-१४ गुणत्रयविभागयोगो
अथ चतुर्दशोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥१॥
श्रीभगवान् बोले- ज्ञानोंमें भी अति उत्तम उस परम ज्ञानको मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसारसे मुक्त होकर परम सिद्धिको प्राप्त हो गये हैं ॥ १ ॥
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥२॥
इस ज्ञानको आश्रय करके अर्थात् धारण करके मेरे स्वरूपको प्राप्त हुए पुरुष सृष्टिके आदिमें पुन: उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकालमें भी व्याकुल नहीं होते ॥ २ ॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-१५ पुरुषोत्तमयोगो
अथ पञ्चदशोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥
श्रीभगवान् बोले—आदिपुरुष परमेश्वररूप मूलवाले* और ब्रह्मारूप मुख्य शाखावाले* जिस संसाररूप पीपल के वृक्षको अविनाशी* कहते हैं, तथा वेद जिसके पत्ते* कहे गये हैं- उस संसाररूप वृक्षको जो पुरुष मूलसहित तत्त्वसे जानता है, वह वेदके तात्पर्यको जाननेवाला* है ॥ १ ॥
(*१. आदिपुरुष नारायण वासुदेव भगवान ही नित्य और
अनन्त तथा सबके आधार होनेके कारण और सबसे ऊपर नित्यधाममें सगुणरूपसे वास करनेके कारण ऊर्ध्व नामसे कहे
गये हैं और वे मायापति, सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ही इस संसाररूप वृक्षके कारण हैं, इसलिये इस संसार वृक्षको 'ऊर्ध्वमूलवाला' कहते हैं।
*२. उस आदिपुरुष परमेश्वरसे उत्पत्तिवाला होनेके कारण तथा
नित्यधामसे नीचे ब्रह्मलोकमें वास करनेके कारण, हिरण्यगर्भ रूप ब्रह्मा को परमेश्वर की अपेक्षा 'अध:' कहा है और वही इस संसारका विस्तार करनेवाला होनेसे इसकी मुख्य शाखा है, इसलिये इस संसारवृक्षको 'अधः शाखावाला' कहते हैं।
*३. इस वृक्षका मूल कारण परमात्मा अविनाशी है तथा
अनादिकालसे इसकी परम्परा चली आती है, इसलिये इस
संसारवृक्षको 'अविनाशी' कहते हैं।
*४. इस वृक्षकी शाखारूप ब्रह्मासे प्रकट होनेवाले और यज्ञादिक
कर्मोंके द्वारा इस संसारवृक्षकी रक्षा और वृद्धि करनेवाले एवं
शोभाको बढ़ानेवाले होनेसे वेद 'पत्ते' कहे गये हैं।
*५. भगवान्की योगमायासे उत्पन्न हुआ संसार क्षणभंगुर,
नाशवान् और दुःखरूप है, इसके चिन्तनको त्यागकर, केवल
परमेश्वरका ही नित्य निरन्तर अनन्यप्रेमसे चिन्तन करना 'वेदके
तात्पर्यको जानना' है।)
अथ षोडशोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥१॥
श्रीभगवान् बोले- भयका सर्वथा अभाव, अन्त: करणकी पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञानके लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति* और सात्त्विक दान, इन्द्रियोंका दमन, भगवान्, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मोंका आचरण
एवं वेद-शास्त्रोंका पठन-पाठन तथा भगवान्के नाम और गुणोंका कीर्तन, स्वधर्मपालन के लिये कष्टसहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता ॥ १ ॥
(*परमात्माके स्वरूपको तत्त्वसे जाननेके लिये सच्चिदानन्दघन
परमात्माके स्वरूपमें एकीभावसे ध्यानकी निरन्तर गाढ़ स्थिति का ही नाम 'ज्ञानयोगव्यवस्थिति' समझना चाहिये ।)
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥२॥
मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी किसीको कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण*, अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोधका न होना, कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात् चित्तकी चञ्चलता का अभाव, किसीकी भी निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होनेपर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ॥ २ ॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-१७ श्रद्धात्रयविभागयोगो
अथ सप्तदशोऽध्यायः
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥१॥
अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्रविधिको त्यागकर श्रद्धासे युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं, उनकी स्थिति फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है। अथवा राजसी किंवा तामसी ?॥१॥
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥२॥
श्रीभगवान् बोले – मनुष्योंकी वह शास्त्रीय
संस्कारोंसे रहित केवल स्वभावसे उत्पन्न श्रद्धा* सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी-ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उसको तू मुझसे सुन ॥ २ ॥
श्रीमद भगवद गीत- आध्याय-१८ मोक्षसन्न्यासयोगो
अथाष्टादशोऽध्यायःअर्जुन उवाचसन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥१॥अर्जुन बोले- हे महाबाहो ! हे अन्तर्यामिन्! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्यागके तत्त्वको पृथक्- पृथक् जानना चाहता हूँ ॥ १ ॥श्रीभगवानुवाचकाम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः।सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥२॥श्रीभगवान् बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्यकर्मो* के त्याग को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को* त्याग कहते हैं ॥२॥