अथ द्वितीयोऽध्यायः सांख्य योग
श्लोक ३६ -७२
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥३६॥
तेरे वैरीलोग तेरे सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए तुझे बहुत
से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे
अधिक दुःख और क्या होगा?॥ ३६॥
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥३७॥
या तो तू युद्धमें मारा जाकर स्वर्गको प्राप्त होगा अथवा
संग्राममें जीतकर पृथ्वीका राज्य भोगेगा।
इस कारण हे अर्जुन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ॥३७॥
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥३८॥
जय- पराजय, लाभ- हानि और सुख- दुःखको समान समझकर,
उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको
नहीं प्राप्त होगा॥ ३८॥
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥३९॥
हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोगके विषयमें कही गयी और
अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन- जिस बुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को
भलीभाँति त्याग देगा अर्थात् सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥ ३ ९॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥४०॥
इस कर्मयोग में आरम्भ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है
और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा- सा भी साधन
जन्म- मृत्युरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है॥ ४०॥
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥४१॥
हे अर्जुन! इस कर्मयोगमें निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किन्तु अस्थिर विचारवाले विवेकहीन
सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदोंवाली और अनन्त होती हैं ॥४१॥
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥४२॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्। क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥४३॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥४४॥
हे अर्जुन! जो भोगोंमें तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के
प्रशंसक वेदवाक्योंमें ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धिमें स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है
और जो स्वर्गसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहनेवाले हैं,
वे अविवेकीजन इस प्रकारकी जिस पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणीको कहा करते हैं
जो कि जन्मरूप कर्मफल देनेवाली एवं भोग तथा ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये
नाना प्रकारकी बहुत- सी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है,
उस वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्यमें
अत्यन्त आसक्त हैं; उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती॥ ४२–४४॥
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥४५॥
हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकारसे तीनों गुणोंके कार्यरूप समस्त
भोगों एवं उनके साधनोंका प्रतिपादन करनेवाले हैं; इसलिये तू उन भोगों
एवं उनके साधनोंमें आसक्तिहीन, हर्ष- शोकादि द्वन्द्वोंसे रहित, नित्यवस्तु परमात्मामें स्थित,
योग- क्षेमको न चाहनेवाला और स्वाधीन अन्तः- करणवाला हो॥ ४५॥
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥४६॥
,सब ओरसे परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जानेपर छोटे जलाशयमें मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है,
ब्रह्मको तत्त्वसे जाननेवाले ब्राह्मणका समस्त वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रह जाता है॥ ४६॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥४७॥
तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं।
इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो॥ ४७॥
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥४८॥
बवहे धनञ्जय! तू आसक्तिको त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धिमें
समान बुद्धिवाला होकर योगमें स्थित हुआ कर्तव्यकर्मोंको कर,
समत्व ही योग कहलाता है ॥४८॥
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥ ४९॥
इस समत्वरूप बुद्धियोगसे सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणीका है।
इसलिये हे धनञ्जय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ़ अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर;
क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं॥ ४९॥
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥५०॥
समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है
अर्थात् उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग में लग जा; समत्वरूप योग ही कर्मोंमें कुशलता है
अर्थात् कर्मबन्धन से छूटने का उपाय है॥ ५०॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिण। जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥५१॥
क्योंकि समबुद्धिसे युक्त ज्ञानीजन कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाले
फलको त्यागकर जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो निर्विकार परमपदको प्राप्त हो जाते हैं॥ ५१॥
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥५२॥
जिस कालमें तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को भलीभाँति पार कर जायगी,
उस समय तू सुने हुए और सुनने में आनेवाले इस लोक और परलोक सम्बन्धी सभी भोगों से
वैराग्य को प्राप्त हो जायगा ॥५२॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥५३॥
भाँति- भाँतिके वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब
परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जायगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायगा अर्थात्
तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जायगा ॥५३॥
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥५४॥
अर्जुन बोले— हे केशव! समाधिमें स्थित परमात्माको प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुषका क्या लक्षण है?
वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥ ५४॥
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥५५॥
श्रीभगवान् बोले— हे अर्जुन! जिस कालमें यह पुरुष मनमें स्थित सम्पूर्ण कामनाओंको
भलीभाँति त्याग देता है और आत्मासे आत्मामें ही संतुष्ट रहता है,
उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥ ५५॥
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः
स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥५६॥
दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता,
सुखोंकी प्राप्तिमें जो सर्वथा नि: स्पृह है तथा जिसके राग,
भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है॥ ५६॥
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥५७॥
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस- उस शुभ या अशुभ
वस्तुको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है॥ ५७॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥५८॥
और कछुवा सब ओरसे अपने अंगों को जैसे समेट लेता है,
वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है,
तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये)॥ ५८॥
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥५९॥
इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं,
परन्तु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुषकी तो आसक्ति भी
परमात्माका साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है ॥५९॥
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥६०॥
हे अर्जुन! आसक्तिका नाश न होनेके कारण ये प्रमथनस्वभाव वाली इन्द्रियाँ
यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुषके मनको भी बलात् हर लेती हैं॥ ६०॥
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥६१॥
इसलिये साधकको चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वशमें करके
समाहितचित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यानमें बैठे, क्योंकि जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ वशमें होती हैं,
उसीकी बुद्धि स्थिर हो जाती है॥ ६१॥
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥६२॥
विषयोंका चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जाती है,
आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है॥ ६२॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ ६३॥
क्रोधसे अत्यन्त मूढभाव उत्पन्न हो जाता है,
मूढभावसे स्मृति भ्रम हो जाता है, स्मृतिमें भ्रम हो जानेसे बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश हो जाता है
और बुद्धिका नाश हो जानेसे यह पुरुष अपनी स्थितिसे गिर जाता है॥ ६३॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥६४॥
परंतु अपने अधीन किये हुए अन्तःकरणवाला साधक अपने वशमें की हुई, राग- द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंमें विचरण
करता हुआ अन्तःकरणकी प्रसन्नताको प्राप्त होता है॥ ६४॥
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥६५॥
अन्तःकरणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि
शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥ ६५॥
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥६६॥
न जीते हुए मन और इन्द्रियोंवाले पुरुषमें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती
और उस अयुक्त मनुष्यके अन्तःकरणमें भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्यको शान्ति नहीं मिलती
और शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है? ॥६६॥
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥६७॥
क्योंकि जैसे जलमें चलनेवाली नावको वायु हर लेती है,
वैसे ही विषयोंमें विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे मन जिस इन्द्रियके साथ रहता है वह एक
ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुषकी बुद्धिको हर लेती है॥ ६७॥
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥६८॥
इसलिये हे महाबाहो! जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सब
प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसीकी बुद्धि स्थिर है॥ ६८॥
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥६९॥
सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जो रात्रिके समान है, उस नित्य
ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस
नाशवान् सांसारिक सुखकी प्राप्तिमें सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के
तत्त्वको जानने वाले मुनिके लिये वह रात्रिके समान है ॥६ ९॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥७०॥
जैसे नाना नदियोंके जल सब ओरसे परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठावाले
समुद्रमें उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं वैसे ही सब भोग जिस
स्थितप्रज्ञ पुरुषमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं,
वही पुरुष परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंको चाहनेवाला नहीं॥ ७०॥
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥७१॥
जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर ममतारहित,अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ
विचरता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्तिको प्राप्त है॥ ७१॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥७२॥
हे अर्जुन! यह ब्रह्मको प्राप्त हुए पुरुषकी स्थिति है,
इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्तकालमें भी इस
ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥ ७२॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्म- विद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥