श्रीकृष्णाय नमः
श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥
श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित
बालबोधः
नत्वा हरिं सदानन्दं सर्वसिद्धान्तसंग्रहम् ।
बालप्रबोधनार्थाय वदामि सुविनिश्चितम् ॥१॥
भावार्थः– सदा आनन्द रूप हरि को नमस्कार करके बालकों के जानने के लिये अच्छी तरह विचार पूर्वक
निश्चय किया हुआ सब सिद्धान्तों का स्वरूप कहता हूँ ॥१॥
धर्मार्थकाममोक्षाख्याश्चत्वारोऽर्था मनीषिणाम्
जीवेश्वरविचारेण द्विधा ते हि विचारिताः ॥२॥
भावार्थः– विवेकी पुरुषों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थ कहे है । वे दो प्रकार के हैं ।
एक ईश्वर के कहे हुए हैं और दूसरे जीव के कहे हुए हैं ॥ २ ॥
अलौकिकास्तु वेदोक्ताः साध्यसाधनसंयुताः ।
लौकिका ऋषिभिः प्रोक्तास्तथैवेश्वरशिक्षया ll३॥
भावार्थः – ईश्वर के कहे हुए अलौकिक पुरुषार्थों का साधन फल सहित वेद में वर्णन है ।
ईश्वर की ही प्रेरणा से ऋषियों के द्वारा बनाये हुए लौकिक पुरुषार्थों का वर्णन पुराणादि में है ॥३॥
लौकिकांस्तु प्रवक्ष्यामि वेदादाद्या यतः स्थिताः।
धर्मशास्त्राणि नीतिश्च कामशास्त्राणि च क्रमात् ॥४॥
त्रिवर्गसाधकानीति न तन्निर्णय उच्यते ।
भावार्थ – अब लौकिक पुरुषार्थों का निर्णय कहता हूँ, अलौकिक पुरुषार्थों का तो वेद में ही निर्णय है।
धर्मशास्त्र धर्म का साधक है । नीति-शास्त्र अर्थ का साधक है और काम-शास्त्र काम का साधक है ।
इन तीनों शास्त्रों का निर्णय मैं नहीं कहता हूँ ।। ४-ll
मोक्षे चत्वारि शास्त्राणि लौकिके परतः स्वतः॥५॥
द्विधा द्वे द्वे स्वतस्तत्र सांख्ययोगौ प्रकीर्तितौ ।
त्यागात्यागविभागेन साङ्ख्ये त्यागः प्रकीर्तितः॥६॥
अहन्ताममतानाशे सर्वथा निरहंकृतौ ।
स्वरूपस्थो यदा जीवः कृतार्थः स निगद्यते।७।
भावार्थः—लौकिक में मोक्ष के साधक चार शास्त्र है और ये दो भागों में विभक्त हैं ।
एक तो दूसरे की कृपा से मोक्ष लाभ करना,
उसमें दो शास्त्र हैं, और स्वयं अपने पुरुषार्थ से मोक्ष लाभ करना, इसमें भी दो शास्त्र हैं ।
जो कि सांख्य और योग नाम से प्रसिद्ध हैं । सांख्य शास्त्र का मत है, कि सब वस्तुओं का त्याग कर
दिया जाय, और योग शास्त्र का मत है कि त्याग नहीं किया जाय ।
सांख्य मत के अनुसार सबका त्याग करने से अहंता अर्थात् अहंकार और ममता अर्थात मोह का नाश हो जाता है,
और अहंकार रहित जीव जब अपने ही स्वरूप में स्थित हो जाय तब कृतार्थी माना जाता है ।। ५--६--७ ।।
तदर्थं प्रक्रिया काचित् पुराणेऽपि निरूपिता ।
ऋषिभिर्बहुधा प्रोक्ता फलमेकमबाह्यतः ॥ ८॥
भावार्थ:-
उस मोक्ष के लिये ऋषियों ने कोई-कोई पुराणों में साधन करने के लिये बहुत-सी क्रियाएं भी निरूपण की हैं;
किन्तु इनके अन्तरंग होने के कारण उसका फल भी एक ही है ॥ ८ ॥
अत्यागे योगमार्गो हि त्यागोऽपि मनसैव हि ।
यमादयस्तु कर्तव्याः सिद्धयोगे कृतार्थता ॥९॥
भावार्थ:- योगमार्ग के साधन में साक्षात् सब वस्तुओं का त्याग नहीं हैं, और त्याग बिना योग सिद्ध हो नहीं सकता
इसलिये मन से त्याग करना चाहिये, और यम, नियम आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान,
समाधि इन अष्टाङ्गयोग का साधन क्रमानुसार करे । जिससे मन निश्चल होकर योग सिद्ध होता है,
और ऐसा होने से ही कृतार्थता मानी जाती है ॥ ९ ॥
पराश्रयेण मोक्षस्तु द्विधा सोऽपि निरूप्यते ।
ब्रह्मा ब्राह्मणतां यातस्तद्रूपेण सुसेव्यते ॥१०॥
भावार्थ:- पराये के आश्रय से मोक्ष लाभ करने के दो मार्ग हैं सो मैं बतलाता हूँ | ब्रह्माजी तो ब्राह्मणत्वको प्राप्त हैं
इसलिये ब्राह्मण रूपसे उनकी सेवा उपासना आदि होती है ॥ १० ॥
ते सर्वार्था न चाद्येन शास्त्रं किञ्चिदुदीरितम् ।
अतः शिवश्च विष्णुश्च जगतो हितकारकौ ll११ll
वस्तुनः स्थितिसंहारौ कार्यौ शास्त्रप्रवर्तकौ।
ब्रह्मैव तादृशं यस्मात् सर्वात्मकतयोदितौ ll१२॥
भावार्थ:- चारों पुरुषार्थ ब्रह्मा से सिद्ध भी नहीं हो सकते उन्होंने तो किञ्चित् शास्त्र निरूपण किया है.
जिससे जीवों का कल्याण होता है। अतएव शिव और विष्णु जगत् के हितकारी हैं। उसके स्थिति और
संहार करने में भी दोनों समर्थ हैं और शास्त्र के प्रवर्तक हैं, और शास्त्रों में दोनों की सर्वात्मकता कही
है इसलिये मूल पुरुष ब्रह्म हैं ।। ११-१२ ।।
निर्दोषपूर्णगुणता तत्तच्छास्त्रे तयोः कृता।
भोगमोक्षफले दातुं शक्तौ द्वावपि यद्यपिll१३॥
भोगः शिवेन मोक्षस्तु विष्णुनेतिविनिश्चयः ।
लोकेऽपियत् प्रभुर्भुङ्क्ते तन्न यच्छति कर्हिचित् ll१४ll
भावार्थ:- उनके शास्त्रों में अर्थात् शैवपुराणों में शिव की और विष्णुपुराणों में विष्णु की निर्दोष पूर्णगुणता लिखी है,
यद्यपि भोग और मोक्षरूपी फल देने में दोनों ही समर्थ हैं !तो भी गुणावतार में तो शिव से भोग की और
विष्णु से मोक्ष की प्राप्ति होती है। लोक में भी यह बात प्रसिद्ध हैं कि स्वामी के भोगने की वस्तु
दूसरे को कदापि नहीं मिल सकती ।।१३–१४ll
अतिप्रियाय तदपि दीयते क्वचिदेव हि ।
नियतार्थप्रदानेन तदीयत्वं तदाश्रयः ॥ १५ ॥
भावार्थ:- तथापि कोई अत्यन्त प्यारा हो तो उसको कुछ दे देते हैं । नित्य प्रति जो वस्तु प्राप्त हो वह उनको समर्पण की जाय
और उनमें से प्रत्येक को प्रसन्न करने का यही साधन है॥१५॥
प्रत्येकं साधनं चैतद् द्वितीयार्थे महान् श्रमः ।
जीवाः स्वभावतो दुष्टाः दोषाभावाय सर्वदा ॥१६॥
भावार्थ:- उनकी भक्ति की जाय और उनका आश्रय किया जाय, परन्तु मोक्ष लाभ करने के लिए
तो महान् परिश्रम करना होगा ।जीव स्वभाव से ही दुष्ट है इसलिए इसे निर्दोष बनाने के लिए
सदा श्रवण, कीर्तन आदि नवधा भक्ति करनी चाहिये ||१६||
श्रवणादि ततः प्रेम्णा सर्वं कार्यं हि सिद्धयति ।
मोक्षस्तु सुलभो विष्णोर्भोगश्च शिवतस्तथा ll१७ll
भावार्थ:- ऐसा करने से जब भगवान् में प्रेम हो जावेगा तब सब कार्य सिद्ध हो जायंगे ।
मोक्ष की प्राप्ति विष्णु से सुलभ है और भोग की प्राप्ति शिव से सुलभ है ||१७||
समर्पणेनात्मनो हि तदीयत्वं भवेद् ध्रुवम् ।
अतदीयतया चापि केवलश्चेत् समाश्रितः ll१८ll
भावार्थ:- उनको आत्म समर्पण करने से और उनकी अटल भक्ति करने से ही प्राप्त होते हैं।
जिन्होंने आत्मनिवेदन नहीं किया है, और ईश्वर का आश्रय लिया है ॥ १८ ॥
तदाश्रयतदीयत्वबुद्ध्यै किंचित् समाचरेत् ।
स्वधर्ममनुतिष्ठन् वै भारद्वैगुण्यमन्यथा ॥१९॥
भावार्थ:- वे प्रभु का आश्रय लेकर दासपन की बुद्धि रखकर थोड़ा बहुत जो कुछ भी बन
आवे मन लगाकर भगवद्धर्म का पालन करें, और अपने धर्म में स्थित रहें यदि ऐसा न करें
तो उस पर दुगुना भार चढ़ता है ॥१९॥
इत्येवं कथितं सर्वं नैतज्ज्ञाने भ्रमः पुनः ॥१९-१/२॥
भावार्थः--इस प्रकार से सब सिद्धान्त का सार मैंने कहा है इसको अच्छी प्रकार जान लेने पर फिर सब लोगों को
किसी प्रकार का भ्रम नहीं रहेगा १९-१/२॥
इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचित बालबोधग्रन्थः सम्पूर्णः ॥२॥