श्रीकृष्णाय नमः
श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥
श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित
सिद्धान्तमुक्तावली
नत्वा हरिं प्रवक्ष्यामि स्वसिद्धान्तविनिश्चयम् ।
कृष्णसेवा सदा कार्या मानसी सा परा मता ॥ १ ॥
भावार्थ:- श्रीहरि को नमस्कार कर के अपना विवेक पूर्वक निश्चय किया हुआ सिद्धान्त कहता हूँ ।
कृष्ण की सेवा सदा ही करनी चाहिये। वह मानसी सेवा सबमें उत्तम और परम फलरूप मानी जाती हैं ॥ १ ॥
चेतस्तत्प्रवणं सेवा तत्सिद्ध्यै तनुवित्तजा।
ततः संसारदुःखस्य निवृत्तिर्ब्रह्मबोधनम् ॥ २॥
भावार्थः — चित्त को प्रभु में परोना अर्थात् लवलीन कर देना ही सेवा है, और उसकी सिद्धि के लिये, (तनुजा ) शरीर से,
और ( वित्तजा ) द्रव्य से, प्रभु की सेवा मन लगाकर करे । ऐसा करने से संसार के दुःखों से छुटकारा हो जाता है और
ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप जानने में आता है ॥ २॥
परं ब्रह्म तु कृष्णो हि सच्चिदानन्दकं बृहत् ।
द्विरूपं तद्वि सर्वं स्यादेकं तस्माद् विलक्षणम् ॥३॥
सबसे श्रेष्ठ ब्रह्म तो एक श्रीकृष्ण ही हैं । सत्, चित् और आनन्द रूप से जो कि सबमें व्याप्त है वह अक्षर ब्रह्म कहलाता है ।
उस अक्षर ब्रह्म के दो स्वरूप हैं । एक तो "जगत्" रूप और दूसरा उससे विलक्षण है ॥३॥
अपरं तत्र पूर्वस्मिन् वादिनो बहुधा जगुः ।
मायिकं सगुणं कार्यं स्वतन्त्रं चेति नैकधा ॥४॥
प्रथम कहे हुए उस प्रपञ्चरूपी ब्रह्म के विषय में विविधवाद वाले दूसरे वेदमत विरोधमत वाले विविध प्रकार से कहते हैं।
शंकरमत वाले इस प्रकार माया का बना हुआ कहते है, और सांख्यवाले गुणों का कार्य नैयायिक द्वयगुणादि क्रम से
ईश्वर का बनाया हुआ, मीमांसक अनादिकाल से ऐसा ही चला आ रहा है, और बौद्ध,माध्यमिक, वैशेषिक, सौत्रान्तिक,
आर्हन्त (जैन),चार्वाक, लोकायन्तिक, वाम और शाक्त आदि वेदविरोध मत वाले अपनी इच्छानुकूल जगत्
( प्रपञ्चके सम्बन्ध में ) कहते हैं । अतः एक प्रकार से नहीं कहकर भिन्न भिन्न प्रकार से कहते हैं ॥४॥
तदेवैतत् प्रकारेण भवतीति श्रुतेर्मतम् ।
द्विरूपं चापि गङ्गावज्ज्ञेयं सा जलरूपिणी ॥५॥
माहात्म्यसंयुता नृणां सेवतां भुक्तिमुक्तिदा ।
मर्यादामार्गविधिना तथा ब्रह्मापि बुध्यताम् ॥६॥
परन्तु वेद का मत तो यह है कि जो अक्षर ब्रह्म है वही जगत् रूप बना हुआ है । "जगत्" रूप
ब्रह्म के गङ्गा के समान दो रूप हैं । एक तो जैसे केवल जलरूपिणी गङ्गाजी हैं और दूसरी
मर्यादामार्ग की विधि की अनुसार माहात्म्य जानकर सेवन करने-वालों को,
भोग और मोक्ष की देनेवाली है। उसी प्रकार जगतरूप ब्रह्म को मानना चाहिये ॥५-६॥
तत्रैव देवतामूर्तिर्भक्त्या या दृश्यते क्वचित् ।
गङ्गायां च विशेषेण प्रवाहाभेदबुद्धये ॥७॥
उस जल रूपिणी गङ्गाजी में उसकी विशेषता को जानकर अभेद बुद्धि से जो भक्ति रखता है उसको गङ्गाजी का
साक्षात् मूर्तिमान दर्शन होता है ॥ ७ ॥
प्रत्यक्षा सा न सर्वेषां प्राकाम्यं स्यात् तया जले।
विहिताच्च फलात् तद्धि प्रतीत्यापि विशिष्यते ॥८॥
भावार्थ-प्रत्यक्षदृष्टि सन्मुख समस्त प्राणियों को समान दीखती हैं।तथापि उनसे परमभक्त को प्रत्यक्ष होने वाली
गङ्गाजी से गङ्गाजल में उत्तम कामना की पूर्ति होती है उसी प्रकार वह श्रीगङ्गाजी का जल निश्चय ही शास्त्रों
में कहे हुए फल से और प्रतीति से बड़ों के अन्तःकरण के विश्वास के द्वारा भी अन्य जल की अपेक्षा विशेष होता है ॥८॥
यथा जलं तथा सर्वं यथा शक्ता तथा बृहत् ।
यथा देवी तथा कृष्णस्तत्राप्येतदिहोच्यते ॥९॥
भावार्थः—जिस प्रकार जल रूपिणी गङ्गाजी हैं, उसी प्रकार जगत् रूप ब्रह्म हैं । जैसे तीर्थरूपिणी गङ्गाजी हैं
वैसे अक्षर ब्रह्म हैं, और जैसे देवीरूपा साकार गङ्गाजी हैं वैसे कृष्ण हैं, ऐसा शास्त्रों में कहा हुआ है ।ll९ll
जगत्तु त्रिविधं प्रोक्तं ब्रह्मविष्णुशिवास्ततः
देवतारूपवत् प्रोक्ता ब्रह्मणीत्थं हरिर्मतः ॥१o॥
भावार्थ:- अक्षर ब्रह्म में स्थित श्रीकृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु,शिव आदि देवतारूप होकर उत्पत्ति,
स्थिति, प्रलय आदि जगत का सब कार्य करते हैं ॥१o॥
कामचारस्तु लोकेऽस्मिन् ब्रह्मादिभ्यो न चान्यथा।
परमानन्दरूपे तु कृष्णे स्वात्मनि निश्चयःll११ll
भावार्थ:- इच्छानुसार विषय भोगों की प्राप्ति तो ब्रह्मा आदि देवताओं से मिलती है, और
अपनी आत्मा में परमानन्द स्वरूप का दान श्रीकृष्ण से मिलता है॥११॥
अतस्तु ब्रह्मवादेन कृष्णे बुद्धिर्विधीयताम् ।
आत्मनि ब्रह्मरूपे हि छिद्रा व्योम्नीव चेतनाः॥१२॥
भावार्थ--अतएव पुनः ब्रह्मवाद के द्वारा परब्रह्म श्रीकृष्ण में अन्तःकरण विशेष रूप से लगाना ।
ब्रह्मरूप अपनी आत्मा में आकाश में जिस प्रकार अनन्त छिद्र दीखते हैं, उसी प्रकार अन्तः-करण की
वृत्तियाँ हैं चेतना का अर्थ जीवात्मा भी लिया है।।१२।।
उपाधिनाशे विज्ञाने ब्रह्मात्मत्वावबोधने ।
गङ्गातीरस्थितो यद्वद् देवतां तत्र पश्यति॥१३॥
भावार्थ:-- जिस प्रकार गङ्गा तीरपर स्थित गङ्गा का भक्त देवता रूपी मूर्तिमती गङ्गाजी के दर्शन करता है ।
उसी प्रकार हृदय की काम क्रोधादिक उपाधियों का नाश होने पर ब्रह्म और आत्मा का अनुज्ञान होने
पर सर्वत्र भगवद्दर्शन होते हैं ll१३ll
तथा कृष्णं परं ब्रह्म स्वस्मिन् ज्ञानी प्रपश्यति ।
संसारी यस्तु भजते स दूरस्थो यथा तथा ॥१४॥
अपेक्षितजलादीनामभावात् तत्र दुःखभाक् ।
तस्मात् श्रीकृष्णमार्गस्थो विमुक्तः सर्वलोकतः ll१५ll
भावार्थ:- उसी प्रकार कृष्ण का भक्त ज्ञानी पुरुष अपनी आत्मा में परब्रह्म कृष्ण के दर्शन करता है ।
जिस प्रकार गङ्गाजी से दूर देश में रहनेवाला गङ्गाजी के जल की अप्राप्ति के कारण दुःखी होता है । जिनका मन
अहन्ता ममता रूपी संसार में लगा हुआ है वे भी भगवान के स्वरूपानन्द के सुख से बञ्चित रहने के कारण दुःखित रहते हैं।
अतः जिन्होंने श्रीकृष्ण के भक्तिमार्ग में प्रवेश किया है,वे सब सांसारिक उपाधियों से मुक्त हैं ll१४-१५ll
आत्मानन्दसमुद्रस्थं कृष्णमेव विचिन्तयेत् ।
लोकार्थी चेद्र भजेत् कृष्णं क्लिष्टो भवति सर्वथा ॥१६॥
भावार्थ:- अपने आत्मानन्द समुद्र में विराजमान श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करे। यदि लौकिक कामना के निमित्त जो
कोई कृष्ण का भजन करे तो उसे बहुत कष्ट होता है ll१६ll
क्लिष्टोपि चेद् भजेत् कृष्णं लोको नश्यति सर्वथा।
ज्ञानाभावे पुष्टिमार्गी तिष्ठेत् पूजोत्सवादिषु ॥ १७ ॥
भावार्थ:- कष्टों को सहन करते हुए बराबर कृष्ण का भजन करता ही जाय तो उसकी लौकिक कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं।
ज्ञान के अभाव में पुष्टिमार्गीय भक्त पूजा तथा उत्सव आदि में नित्य तत्पर रहे || १७ ॥
मर्यादास्थस्तु गङ्गायां श्रीभागवततत्परः ।
अनुग्रहः पुष्टिमार्गे नियामक इतिस्थितिः ॥ १८॥
भावार्थ:- मर्यादा मार्गीय भक्त गङ्गा के तीर पर निवास करके श्रीभागवत का पाठादि नित्यप्रति किया करे।
शुद्ध पुष्टिमार्ग में श्री प्रभु का अनुग्रह नियामक है। ऐसी स्थिति में इस प्रकार की व्यवस्था है ॥ १८ ॥
उभयोस्तु क्रमेणैव पूर्वोक्तैव फलिष्यति ।
ज्ञानाधिको भक्तिमार्ग एवं तस्मात् निरूपितः ॥१९॥
भावार्थ:- दोनों - ज्ञानी और भक्त को क्रम से प्रथम पुष्टिमार्ग में लेकर ही पुनः प्रथम कही हुई मानसी सेवा
सिद्ध होगी इस प्रकार प्रथम कथनानुसार भक्तिमार्ग ज्ञानमार्ग से श्रेष्ठ है । इसलिये गङ्गाजी के
दृष्टान्त द्वारा विवेचन पूर्वक निरूपण किया है ॥१९॥
भक्त्यभावे तु तीरस्थो यथा दुष्टैः स्वकर्मभिः ।
अन्यथाभावमापन्नस्तस्मात् स्थानाच्च नश्यति ॥२०॥
भावार्थ:- जिस प्रकार श्रीगङ्गाजी के तटपर स्थित रहने वाला पुरुष भक्ति के अभाव में अर्थात् भक्ति न हो, तो दुष्टता पूर्ण
अपने कर्मों द्वारा अन्यथाभाव – पाखण्डादि दोषों को प्राप्त होकर उस स्थान से भी नाश को प्राप्त होता है ॥२o॥
एवं स्वशास्त्रसर्वस्वं मया गुप्तं निरूपितम् ।
एतद् बुद्ध्वा विमुच्येत पुरुषः सर्वसंशयात् ll२१ll
भावार्थ - इस प्रकार मैने (श्रीवल्लभाचार्यजीने) अपने शास्त्र-का सर्व स्वरूप जो गुप्त है, वह भी निरूपण किया है।
इस हमारे कहे सिद्धान्त को जानकर कोई भी पुरुष सम्पूर्ण संशयों से मुक्त हो जाता है ॥२१॥
इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचिता सिद्धान्तमुक्तावली सम्पूर्णा ॥३॥