पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद/ Pushti Pravah Maryada Bhed


 श्रीकृष्णाय नमः



श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥



श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित



 पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेदः



पुष्टिप्रवाहमर्यादा विशेषेण पृथक् पृथक् ।



जीवदेहक्रियाभेदैः प्रवाहेण फलेन च ॥१॥



वक्ष्यामि सर्वसन्देहा न भविष्यन्ति यच्छुतेः।



भक्तिमार्गस्य कथनात् पुष्टिरस्तीति निश्चयः ॥२॥



भावार्थः– पुष्टि, प्रवाह, और मर्यादा, ये तीनों मार्ग पृथक्- पृथक हैं। जिनके जीव, देह, क्रिया, प्रवाह( प्रवृति) और फल,



इन पाँचों को विशेष रूप से पृथक- पृथक कहता हूँ, जिसके सुनने से किसी प्रकार का भी संदेह नहीं रहेगा।



शास्त्रों में जहाँ-जहाँ पुष्टिमार्ग आये वहाँ- वहाँ भक्ति मार्ग का निरूपण किया समझना ॥ १-२॥



द्वौ भूतसर्गा वित्युक्तेः प्रवाहोऽपि व्यवस्थितः।



वेदस्य विद्यमानत्वात् मर्यादापि व्यवस्थिता ॥३॥



भावार्थः —– श्रीभगवद्गीता के" द्वौ भूतसर्गो लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च” इस लोक में दो प्रकार की सृष्टि है, एक दैवी सृष्टि,



और दूसरी आसुरी सृष्टि है, इस प्रमाण से" प्रवाह मार्ग" भी है वर्णाश्रम धर्मादि की मर्यादा बतलाने वाला वेद विद्यमान है



इसलिये“ मर्यादा मार्ग" भी है || ३ ||



कश्चिदेव हि भक्तो हि यो मद्भक्त इतीरणात्।



सर्वत्रोत्कर्षकथनात् पुष्टिरस्तीतिनिश्चयः ॥४॥



भावार्थः -- भगवद्गीता में कहा है कि "कश्चिदेव हि भक्तो हि यो मद्भक्तः स मे प्रियः"। कोई बिरला ही मेरा भक्त होता है।



और जो मेरा भक्त है, वह मुझको अत्यन्त प्यारा है। इस प्रकार भगवान ने श्रीमुख से भक्त की सबसे श्रेष्ठता कही है।



अतः निश्चय है कि इस कारण से भी "पुष्टिमार्ग" की प्रवाहमार्ग से भिन्नता है॥ ४॥



न सर्वोतः प्रवाहाद्धि भिन्नो वेदाच्च भेदतः।



यदा यस्येति वचनान्नाहं वेदैरितीरणात् ॥५॥



भावार्थ:- सब मार्गों का पुष्टिमार्ग के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। भागवत में लिखा है कि “ यदा यस्यानुगृह्णाति



भगवानात्म भावितः। स जहाति मर्तिं लोके वेदे च परिनिष्ठिताम्।" आत्मा के प्यारे भगवान् जब इस जीव का ग्रहण करते हैं



अर्थात् अपनाते हैं,तब वह लौकिक, और वैदिक, कामनाओं को त्याग देता है।गीता में लिखा है कि" नाहं वेदैर्न



तपसा न शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥" तूने जो मेरे स्वरूप का दर्शन अभी किया है वह दर्शन न तो किसी



को वेदपाठ करने से हो सकता हैं, और न तपस्या करने से, न दान करने से, और न यज्ञादि से ही हो सकता हैं। उपरोक्त



श्रीभागवत के और गीता के प्रमाणों से यह बात विदित होती है कि पुष्टिमार्गीय भक्त को लौकिक अलौलिक और वैदिक



कर्म करने से कुछ अपराध वा हानि नहीं है। इसलिये पुष्टिमार्ग को प्रवाह मार्ग और मर्यादा मार्ग की अपेक्षा नहीं है,



क्योंकि यह मार्ग इनसे भिन्न है और परमोत्तम है॥ ५॥



मार्गेकत्वेपि चेदन्त्यौ तनू भक्त्यागमौ मतौ।



न तद् युक्तं सूत्रतो हि भिन्नो युक्त्या हि वैदिकः ॥६॥



भावार्थ:- यदि कोई कहे कि सब मार्ग भक्तिमार्ग के ही साधक हैं इसलिये इसी के अंग है। ऐसा कहना अयुक्त है क्योंकि



भक्ति सूत्र की और वेद की युक्ति के अनुसार पुष्टिमार्ग दोनों; मार्गो से भिन्न है ।। ६ ।।



जीवदेहकृतीनाञ्च भिन्नत्वं नित्यता श्रुतेः।



यथा तद्वत् पुष्टिमार्गे द्वयोरपि निषेधतः ॥७॥



भावार्थः— जीव सब नित्य हैं और उनके देह की कृति एक दूसरे से विभिन्न है ऐसा वेद में लिखा है इस प्रमाण से



"पुष्टि मार्ग” दोनों मार्गों से भिन्न है॥ ७॥



प्रमाणभेदाद् भिन्नो हि पुष्टिमार्गे निरूपितः।



सर्गभेदं प्रवक्ष्यामि स्वरूपाङ्गक्रियायुतम् ॥८॥



भावार्थ:- उपरोक्त प्रमाणानुसार“ पुष्टिमार्ग" सबसे भिन्न है, ऐसा मैंने निरूपण किया है। अब सर्गभेद को



उसके स्वरूप, अंग, और क्रिया सहित बतलाता हूँ॥ ८॥



इच्छामात्रेण मनसा प्रवाहं सृष्टवान् हरिः।



वचसा वेदमार्ग हि पुष्टिं कायेन निश्चयः ॥९॥



भावार्थ:- प्रभु ने अपनी इच्छा मात्र से प्रवाही सृष्टि रची है और वाणी से वेदमार्ग बनाया है,



और पुष्टि सृष्टि अपने साक्षात् श्रीअङ्ग से बनायी है॥ ९॥



मूलेच्छातः फलं लोके वेदोक्तं वैदिकेऽपि च।



कायेन तु फलं पुष्टौ भिन्नेच्छातोऽपि नैकधा॥ १०॥



भावार्थ:- प्रवाही सृष्टि को मूल इच्छा के अनुसार फल मिलता है और वैदिक सृष्टि को वेद में लिखे अनुसार



फल मिलता है और पुष्टि सृष्टि को प्रभु के स्वरूपानन्द का फल मिलता है। इस प्रकार फल भी सबको



भिन्न भिन्न प्रकार से मिलते हैं एक प्रकार से नहीं॥ १०॥



‘तानहं द्विषतो' वाक्याद् भिन्ना जीवाः प्रवाहिणः।



अतएवेतरौ भिन्नौ सान्तौ मोक्षप्रवेशतः ॥११॥



भावार्थ:- गीताजी में भगवान ने कहा है कि "तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् ।



क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु”॥ मैं उन द्वेष करने वाले क्रूर नराधमों को



संसार में अशुभ आसुरी योनि में ही बारंबार फेंकता हूँ। इस गीता के प्रमाणानुसार प्रवाही



जीव भिन्न हैं, और दूसरे मर्यादामार्गीय जीव प्रवाही जीवों से भिन्न हैं, क्योंकि अन्त में उनको मोक्ष का अधिकार है ॥११॥



तस्माज्जीवाः पुष्टिमार्गे भिन्ना एव न संशयः।



भगवद्रूपसेवार्थं तत्सृष्टिर्नान्यथा भवेत् ॥१२॥



भावार्थ– इसलिये निःसन्देह पुष्टिमार्गीय जीव सबसे भिन्न हैं, और यह सृष्टि केवल भगवद् रूप की सेवा के लिये ही



बनायी गयी है। इसलिये इसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हो सकता ॥ १२॥



स्वरूपेणावतारेण लिड्गेन च गुणेन च।



तारतम्यं न स्वरूपे देहे वा तत्क्रियासु वा ॥१३॥



भावार्थ:- पुष्टिमार्गीय जीव, देह में, चिह्न में, क्रिया मैं, गुण में, एक दूसरे से न्यूनाधिक देखने में नहीं आते हैं,



अर्थात् तीनों प्रकार के जीवों के देहादि बाह्यदृष्टि वालों को एक समान दीखते हैं ॥१३॥



तथापि यावता कार्यं तावत् तस्य करोति हि।



ते हि द्विधा शुद्धमिश्रभेदान् मिश्रास्त्रिधा पुनः॥ १४॥



भावार्थः —– तो भी प्रभु को काम जितना जिससे कराना है उसमें न्यूनाधिकता करते हैं। वे पुष्टिमार्गीय जीव दो



प्रकार के हैं। एक "शुद्धपुष्टि” और दूसरे “ मिश्रपुष्टि”। फिर मिश्रपुष्टि तीन भागों में विभक्त हैं॥१४॥



प्रवाहादिविभेदेन भगवत्कार्यसिद्धये।



पुष्ट्या विमिश्राः सर्वज्ञाः प्रवाहेण क्रियारताः ॥१५॥



भावार्थ:- एक तो “ पुष्टिमिश्र” पुष्टि दूसरा " मर्यादा मिश्र” पुष्टि तीसरा “ प्रवाहीमिश्र" पुष्टि। इस प्रकार के भेद



भगवान् ने अपना कार्य सिद्ध करने के लिये बनाये हैं ॥ १५॥



मर्यादया गुणज्ञास्ते शुद्धा: प्रेम्णातिदुर्लभाः।



एवं सर्गस्तु तेषां हि फलं त्वत्र निरूप्यते॥ १६॥



भावार्थः–“पुष्टिमिश्र" पुष्टिजीव हैं वे सभी बातों को जानने वाले हैं।" प्रवाहमिश्र" पुष्टिजीव हैं वे काम- काज में तत्पर रहते हैं।



“ मर्यादामिश्र" पुष्टि जीव हैं वे गुण गान करने में तत्पर रहते हैं, और आनन्द रूप "शुद्ध पुष्टि” अर्थात् जिनको



प्रेम लक्षणा भक्ति सिद्ध हो गयी है ऐसे जीव मिलने तो अत्यन्त दुर्लभ हैं, इस प्रकार पुष्टि सृष्टि है।



अब उनके फलों का निरूपण करता हूँ॥ १६॥



भगवानेव हि फलं स यथाऽविर्भवेद्भुवि।



गुणस्वरूपभेदेन तथा तेषां फलं भवेत् ॥१७॥



भावार्थ: -- पुष्टिमार्गीय जीव को भूतलपर आने के पश्चात् गुण और स्वरूप के अनुसार जैसा उनका



अधिकार है, भगवान् ही फलरूप हैं ॥१७॥



आसक्तौ भगवानेव शापं दापयति क्वचित्।



अहङ्कारेऽथवा लोके तन्मार्गस्थापनाय हि ॥१८॥



भावार्थ:-:- भक्त लौकिक विषयों में आसक्त हो जाने के कारण अथवा अहंकारी हो जाय तो कभी कुछ शाप



भी दिला देते हैं; परन्तु वह शाप भी मार्गस्थापन के लिये दिलाया जाता है ॥१८॥



न ते पाषण्डतां यान्ति न च रोगाद्युपद्रवाः।



महानुभावाः प्रायेण शास्त्रं शुद्धत्वहेतवे ॥१९॥



भावार्थ:- शाप देने पर उनमें पाखण्डता नहीं होती है, और न उनको रोग आदि से उपद्रव होते हैं।



वे तो महानुभाव अर्थात् बड़े ही महात्मा होते हैं! प्रायः उनकी शुद्धि के लिये शास्त्र ( भागवत भगवद्गीतादि)



का श्रवण पाठादि साधन है॥१९॥



भगवत्तारतम्येन तारतम्यं भजन्ति हि।



लौकिकत्वं वैदिकत्वं कापट्यात् तेषु नान्यथा ॥२०॥



भावार्थः– श्री भगवान की इच्छा के भेद से वे पुष्टिमार्गीय जीव तारतम्य भाव को प्राप्त होते हैं, इन पुष्टिमार्गीय



जीवों में लौकिक और वैदिकपन कापट्य से अर्थात् भगवान को छोड़कर लौकिक वैदिक कर्मों में प्रीति न रहनेपर भी



दिखाव मात्र के लिये उन कर्मों में प्रवृति रहती है अन्यथा इनमें रुचि नहीं होती॥ २०॥



वैष्णवत्वं हि सहजं ततोऽन्यत्र विपर्ययः।



सम्बन्धिनस्तु ये जीवाः प्रवाहस्थास्तथापरे॥२१॥



भावार्थ:- इन पुष्टिमार्गीय जीवों में वैष्णवता स्वाभाविक है इससे जीव और विषयों में विपरीतता है,



और जो जीव प्रवाह मार्ग में स्थिति वाले हैं उसी प्रकार दूसरे भी जीव हैं ॥२१॥



चर्षणीशब्दवाच्यास्ते ते सर्वे सर्वसु।



क्षणात् सर्वत्वमायान्ति रुचिस्तेषां न कुत्रचित्॥२२॥



भावार्थः– वे जीव चर्षणी शब्द के द्वारा परिचय देने योग्य हैं, वे सब मार्गों में क्षणमात्र के लिये तन्मयता को प्राप्त हो जाते हैं।



वस्तुत उन चर्षणी जीवों की कहीं पर भी रुचि नहीं रहती। चर्षणी शब्द- का अर्थ कडछुल है। जिस प्रकार पाक बनाने



अथवा परोसने के अवसर पर कडछुल खाद्य पदार्थों के साथ तन्मयता को प्राप्त हो जाती है, वास्तविक में उस का



किसी पदार्थ से दृढ़ सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार इन चर्षणी जीवों के सम्बन्ध में समझना।श्रीमद्भागवत के



“सचर्षणीनामुद्गाच्छुचोमृजन्” इस श्लोक की सुबोधिनीजी में चर्षणी जीवों के सम्बन्ध में उल्लेख किया है॥२२॥



तेषां क्रियानुसारेण सर्वत्र सकलं फलम्।



प्रवाहस्थान् प्रवक्ष्यामि स्वरूपाङ्गक्रियायुतान् ॥२३॥



भावार्थ:- उन जीवों को क्रिया के अनुसार सब स्थानों में सब प्रकार का फल प्राप्त होता है, अब स्वरूप,



अङ्ग एवं क्रिया सहित प्रवाह में रहने वाले जीवों का मैं कथन करता हूँ। इस कथन का प्रयोजन यह है कि



हमारे पुष्टिमार्गीय दैवी जीव प्रवाही जीवों को पहिचान कर उनसे सावधान रहें और अपने जीवन में प्रवाही जीवों के



लक्षण न आ जायँ इसके लिये सदैव सचेत रहें ॥२३॥



जीवास्ते ह्यासुराः सर्वे ‘प्रवृत्तिं चे' ति वर्णिताः।



ते च द्विधा प्रकीर्त्यंते ह्यज्ञदुर्ज्ञविभेदतः ॥२४॥



भावार्थ: -- वे सब आसुरी जीव हैं, उनके विषय में भगवान ने गीता में कहा है कि “ प्रवृत्तिं च निवृत्तिञ्च जना न विदुरासुराः!



न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।” अ० १६ श्लोक ७ आसुर प्रवृत्ति और निवृत्ति को नहीं जानते अर्थात किस कार्य में



प्रवृत्त होना तथा किससे निवृत्त होना ये नहीं जानते। इन आसुरी जीवों में न शुद्धता, न श्रेष्ठ आचार, न सत्यता ही रहती है।



अज्ञ और दुर्ज्ञ भेद से वे जीव दो प्रकार के कहे गये हैं ॥२४॥



दुर्ज्ञास्ते भगवत्प्रोक्ता ह्यज्ञास्ताननु ये पुनः।



प्रवाहेऽपि समागत्य पुष्टिस्थस्तैर्न युज्यते ॥२५॥



भावार्थ:- वे दुर्ज्ञेय भगवान के द्वारा गीता में कथित है, और जो आसुरी जीवों का अनुकरण करते हैं वे अज्ञेय हैं



अर्थात् पहिचानने में नहीं आते हैं। पुष्टिमार्ग वाले प्रवाह में आकर भी उनके साथ नहीं मिलते हैं ॥२५॥



सोऽपि तैस्तत्कुले जातः कर्मणा जायते यतः ॥२५-१/२॥



भावार्थः— वह असुर भी उनके साथ यदि उनके कुल में पैदा हुआ हो तो वेद विरोधी कर्मों द्वारा असुर हुआ है॥२५-१/२॥



इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचितः पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेदः सम्पूर्णः ।।४ ।।