श्रीकृष्णाय नमः
श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥
श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित
सिद्धान्तरहस्यम्
श्रावणस्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि ।
साक्षाद् भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते ॥१॥
भावार्थ:-श्रावणमास के शुक्लपक्ष की एकादशी (पवित्राएकादशी) की मध्यरात्रि में साक्षात् अर्थात्
भगवान् श्रीगोवर्धनोद्धरण ने प्रकट होकर जो कुछ कहा वह अक्षरशः मैं श्रीवल्लभाचार्य कहता हूँ ॥१॥
ब्रह्मसम्बन्धकरणात् सर्वेषां देहजीवयोः ।
सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषा पञ्चविधाः स्मृताःll२ll
भावार्थ:- समस्त के ब्रह्मसम्बन्ध करने से देह और जीव सम्बन्धी सर्व दोषों की अवश्य निवृति होती है ।
ये दोष पाँच प्रकार के कहे हुए हैं ॥२॥
सहजा देशकालोत्था लोकवेदनिरूपिताः ।
संयोगजाः स्पर्शजाश्च न मन्तव्याः कथञ्चन ll३ll
भावार्थः—लोक और वेद में निरूपण किये हुए सहज,देशज, कालज, संयोगज और स्पर्शज दोष किसी
प्रकार भी नहीं मानने योग्य हैं । सहज दोष वे हैं जो जीव के साथ उत्पन्न होते हैं । देशज दोष उसे कहते हैं
जो देश से उत्पन्न होते हैं। कालज काल से उत्पन्न होनेवाले, संयोगज संयोग से उत्पन्न होनेवाले,
स्पर्शज जो स्पर्श से उत्पन्न होते हैं ||३||
अन्यथा सर्वदोषाणां न निवृत्तिः कथञ्चन ।
असमर्पित वस्तूनां तस्माद् वर्जनमाचरेत ||४||
भावार्थ:अन्यथा अर्थात् ब्रह्म सम्बन्ध किये बिना दूसरे प्रकार से समस्त दोषों की किसी प्रकार निवृत्ति नहीं होती
इसलिए ब्रह्म सम्बन्ध अर्थात् आत्मनिवेदन अवश्य कर्तव्य है तथा असमर्पित वस्तुओं का सर्वथा त्याग करना चाहिये ||४||
निवेदिभिः समर्प्यैव सर्वं कुर्यादिति स्थितिः
न मतं देवदेवस्य सामिभुक्तं समर्पणम् ॥५॥
भावार्थ:- जिनका आत्मनिवेदन अर्थात् ब्रह्म सम्बन्ध हो चुका है वे समस्त वस्तुओं को भगवान के लिये समर्पण करके ही
अपना सब कार्य करें, इस प्रकार भक्तिमार्ग की मर्यादा है। सामिमुक्त अर्थात् अर्धमुक्त वस्तु का समर्पण करना
देवाधिदेव श्रीकृष्ण के लिये योग्य नहीं है ॥ ५ ॥
तस्मादादौ सर्वकार्ये सर्ववस्तुसमर्पणम् ।
दत्तापहारवचनं तथा च सकलं हरेः ॥ ६॥
भावार्थः– अतएव प्रथम समस्त कार्यों में सब वस्तुएं श्रीभगवान को समर्पण करनी चाहिये ।
भगवान को समर्पित वस्तु का उपयोग जीव अपने लिये न करें । दत्तापहार वचन से भगवन्निवेदित वस्तु का उपयोग
अपने लिये नहीं करना चाहिये ।ये वचन भिन्नमार्ग अर्थात् पूजामार्ग के लिये हैं, क्योंकि भक्ति-मार्ग की
रीति के अनुसार सब कुछ श्रीहरि का ही है ll६ll
न 'ग्राह्य' मितिवाक्यं हि भिन्नमार्गपरं मतम् ।
सेवकानां यथा लोके व्यवहारः प्रसिध्यति ॥७॥
तथा कार्यं समर्प्यैव सर्वेषां ब्रह्मता ततः ।
भावार्थ:- लोक में सेवकों का जिस प्रकार कार्य सिद्ध हो उस प्रकार सब कुछ भगवान को समर्पण करके ही
सर्व कार्य करना उचित है क्योंकि ऐसा करने से ही सब वस्तुओं की ब्रह्मता सिद्ध होती है ।
गड्गात्वं सर्वदोषाणां गुणदोषादिवर्णना ॥८॥
गड्गात्वेन निरुप्या स्यात्तद्वदत्रापि चैव ही ॥८-१/२॥
भावार्थ:- जिस प्रकार गङ्गाजी में आनेवाले समस्त दोष और गुणों का वर्णन न करके उन सब में गंगापन ही है; इसलिये
उनका गङ्गारूप से निरूपण किया जाता है, ठीक उसी प्रकार इस आत्मनिवेदन में भी समझना ।
सारांश यह है कि गगांजी में मिलने से सभी पदार्थ गङ्गारूप बन जाते हैं; उसी प्रकार सब पदार्थ
आत्मनिवेदन होने पर ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं ||८||
श्रीमदवल्लभाचार्य विरचितं सिद्धान्तरहस्यं सम्पूर्णम् ॥५॥