श्रीकृष्णाय नमः
श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥
श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित
नवरत्नम्
चिन्ता कापि न कार्या निवेदितात्मभिः कदापीति ।
भगवानपि पुष्टिस्थो न करिष्यति लौकिकीं च गतिम् ll१ll
भावार्थ:- जन्होंने प्रभु को आत्मनिवेदन किया है, उनको चाहिये कभी किसी प्रकार की चिन्ता न करें ।
अनुग्रह परायण भगवान् अङ्गीकृत जीवों की लौकिक गति नहीं करेंगे ll१ll
निवेदनं तु स्मर्तव्यं सर्वथा तादृशैर्जनैः ।
सर्वेश्वरश्च सर्वात्मा निजेच्छातः करिष्यति ll२ll
भावार्थ: - पुष्टिमार्गीय जीव तादृशीय ( भगवदीय ) महानुभावों के साथ निवेदन का विशेष रूप से स्मरण करते रहें ।
भगवान् सब के ईश्वर अर्थात् सब के नियामक हैं, एवं सब के हैं; वे अपनी इच्छा से यथोचित ही करेंगे ।
कोई टीकाकर “निजेच्छातः” का अर्थ अपने भक्तों की इच्छा के अनुसार करेंगे, इस प्रकार का तात्पर्य निकालते हैं ॥ २ ॥
सर्वेषां प्रभुसम्बन्धो न प्रत्येकमितिस्थितिः ।
अतोऽन्यविनियोगेऽपि चिंता का स्वस्य सोऽपि चेत् ३ ॥
भावार्थः—आत्मनिवेदन होने के पश्चात् निवेदित समस्त पदार्थों के साथ श्रीप्रभु का सम्बन्ध है । केवल
जिन्होंने निवेदन किया है, उनका कोई भिन्न सम्बन्ध नहीं है । यदि ऐसा ही है तो किसी पदार्थ का
अन्य में विनियोग होने पर चिन्ता करना उचित नहीं, क्योंकि वह भी तो भगवान का ही है ॥ ३ ॥
अज्ञानादथवा ज्ञानात् कृतमात्मनिवेदनम् ।
यैः कृष्णसात्कृतप्राणैस्तेषां का परिवेदना ll४॥
भावार्थः— अज्ञान से अथवा ज्ञान से जिन्होंने आत्मनिवेदन किया है, उन्हें चिन्ता करना उचित नहीं ।
पुनः श्रीकृष्ण को जिन्होंने प्राण समर्पण किया है; उन्हें किस विषय का शोक है ? ||४||
तथा निवेदने चिन्ता त्याज्या श्रीपुरुषोत्तमे ।
विनियोगेऽपि सा त्याज्या समर्थो हि हरिः स्वतः ॥५॥
भावार्थ:- इस प्रकार श्रीपुरुषोत्तम में “निवेदन" और अन्य के "विनियोग" के विषय में चिन्ता छोड़ देनी चाहिये,
क्योंकि प्रभु स्वतः सब कुछ समर्थ हैं || ५ ||
लोके स्वास्थ्यं तथा वेदे हरिस्तु न करिष्यति ।
पुष्टिमार्गस्थितो यस्मात्साक्षिणोभवताखिलाः ll६ll
भावार्थ:— पुष्टिमार्ग अर्थात् अनुग्रह मार्ग में स्थित श्रीभगवान् लोक और वेद में स्वस्थता न करेंगे।
इस विषय में आप सब पुष्टिमार्गीय भक्त साक्षी रूप हैं ॥ ६ ॥
सेवाकृतिर्गुरोराज्ञा बाधनं वा हरीच्छया ।
अतः सेवापरं चित्तं विधाय स्थीयतां सुखम् ll७ll
भावार्थ:— श्रीगुरुदेव की आज्ञानुसार प्रभु की सेवा करनी चाहिये। किसी समय प्रभु की इच्छा से उसमें कोई
प्रकार की अड़चन आ पड़े और गुरु की प्रथम आज्ञानुसार सेवा न बन सके तो कोई चिन्ता की बात नहीं वैष्णव को
चाहिये कि चित्त को सेवा परायण रखकर सुख पूर्वक रहे ॥७॥
चित्तोद्वेगं विधायापि हरिर्यद्यत् करिष्यति ।
तथैव तस्य लीलेति मत्वा चिन्तां द्रुतं त्यजेत् ॥८॥
भावार्थ:— श्रीप्रभु की सेवा करते हुये किसी समय भगवान्चित्त में उद्वेग कराकर जो-जो करेंगे, उनकी
वैसी ही लीला अर्थात् खेल मानकर बहुत शीघ्र चिन्ता का त्याग करें ॥८॥
तस्मात् सर्वात्मना नित्यं “श्रीकृष्णःशरणंमम"।
वदद्भिरेव सततं स्थेयमित्येव मे मतिः ॥ ९ ॥
भावार्थ:— इसलिये सब प्रकार सदैव "श्रीकृष्णः शरणं मम" इस प्रकार उच्चारण करते रहना मेरी यह सम्मति है ॥ ९ ॥
lइति श्रीमदवल्लभाचार्यविरचितं नवरत्नं सम्पूर्णम् ॥६॥