श्रीकृष्णाय नमः
श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥
श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित
अन्तःकरणप्रबोधः
अंतःकरण मद्वाक्यं सावधानतया शृणु ।
कृष्णात् परं नास्ति दैवं वस्तुतो दोषवर्जितम् ॥१॥
भावार्थ:- हे अन्तःकरण ! मेरे वाक्यों को सावधान होकर श्रवण कर, वस्तुतः दोष रहित “श्रीकृष्ण" से
अन्य कोई भी देवता नहीं है ॥१॥
चांडाली चेद् राजपत्नी जाता राज्ञा च मानिता।
कदाचिदपमानेऽपि मूलतः का क्षतिर्भवेत् ॥२॥
भावार्थः– यदि कोई चाण्डाली राजपत्नी हुई और राजा ने उसका विशेष सम्मना भी किया, और किसी समय
राजा की ओर से उसे अपमानित किया गया, तो मूल में उसे क्या हानि होती है ? सारांश यह है कि राजा ने जिसको
एक बार रानी बना लिया है, उसका सम्मान न रहने पर भी वह रानी मिटकर फिर चाण्डाली तो हो ही नहीं सकती॥२॥
समर्पणादहं पूर्वमुत्तमः किं सदा स्थितः ।
का ममाधमता भाव्या पश्चात्तापो यतो भवेत् ॥३॥
भावार्थ:- समर्पण अर्थात् आत्मनिवेदन के पहले क्या मैं सदा उत्तम रहा और अब मेरे में कौन सी अधमता
आ गई है कि जिसके कारण मेरे को पश्चात्ताप हो ॥३॥
सत्यसङ्कल्पतो विष्णुर्नान्यथा तु करिष्यति ।
आज्ञैव कार्या सततं स्वामिद्रोहोऽन्यथा भवेत् ॥४॥
भावार्थः–भगवान् विष्णु सत्य प्रतिज्ञा वाले हैं, वे अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत कभी भी नहीं करेंगे। हमें सदैव
उनकी आज्ञा के अनुसार ही चलना चाहिये । यदि ऐसा न करें तो स्वामी द्रोह होगा ॥४॥
सेवकस्य तु धर्मोऽयं स्वामी स्वस्य करिष्यति ।
आज्ञा पूर्वं तु या जाता गङ्गासागरसङ्गमे॥५॥
यापि पश्चान् मधुवने न कृतं तद् द्वयं मया ।
देहदेशपरित्यागस्तृतीयो लोकगोचरः ॥६॥
भावार्थ:-स्वामी की आज्ञा के अनुसार चलना यह सेवक का धर्म है और वे अपने वचन का पालन स्वयं करेंगे।
प्रथम गंगा-सागर के संगम पर जो आज्ञा हुई और फिर मधुवन में जो अज्ञा हुई 'देह और देश के परित्याग के सम्बन्ध में'
उस आज्ञा का पालन मैंने नहीं किया किन्तु तृतीय आज्ञा का पालन मैंने किया जो कि लोक प्रसिद्ध है ll५-६॥
पाश्चात्तापः कथं तत्र सेवकोऽहं न चान्यथा ।
लौकिक प्रभुवत् कृष्णो न द्रष्टव्यः कदाचन ॥
सर्वं समर्पितं भक्त्या कृतार्थोऽसि सुखीभव ll७½ll
भावार्थः–मैं तो सेवक हूँ, अतः स्वामी की आज्ञा के विपरीत नहीं कर सकता हूं, फिर पाश्चात्ताप कैसा !
क्योंकि लौकिक स्वामी के समान श्रीकृष्ण को कभी भी नहीं देखना चाहिये । भक्ति के द्वारा सब समर्पण
करके तुम कृतार्थ हो गये अतः सुख से रहो ॥७½ ॥
प्रौढ़ापि दुहिता यद्वत् स्नेहान्न प्रेष्यते वरे ॥
तथा देहे न कर्तव्यं वरस्तुष्यति नान्यथा ।
लोकवच्चेत् स्थितिमें स्यात् किं स्यादिति विचारय ॥९॥
भावार्थः—जिस प्रकार माता, पिता प्रौढ़ावस्था सम्पन्न पुत्री को स्नेहवश उसके स्वामी (पति) के पास नहीं
भेजते हैं, उसी प्रकार अपने शरीर में ममता न करनी, अन्यथा अर्थात् सेवा के विना पति प्रसन्न नहीं होता है ।
यदि लोक के समान मेरी स्थिति रही तो क्या होगा, यह तो विचार करें ॥९॥
अशक्ये हरिरेवास्ति मोहं मा गाः कथञ्चन ।
इति श्रीकृष्णदासस्य वल्लभस्य हितं वचः ॥
चित्तं प्रति यदाकर्ण्य भक्तो निश्चिन्ततां व्रजेत् ॥१०½ ॥
भावार्थः-असमर्थ अवस्था में प्रभु ही हमारी सहायता करेंगे।इसलिये हे अन्तःकरण ! तू मोह को प्राप्त मत हो ।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के दास श्रीवल्लभाचार्यजी ने अपने चित्त को हितकारी बचन कहे हैं जिसकों
सुनकर भक्त चिन्ता रहित बनें ॥१०½ ॥
॥इति श्रीमद्वल्लभाचार्य विरचित अन्तःकरणप्रबोधः सम्पूर्णः ॥ ७॥