श्रीकृष्णाय नमः
श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥
श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित
श्रीकृष्णाश्रयः
सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खलधर्मिणि ।
पाखण्डप्रचुरे लोके कृष्णएव गतिर्मम॥१॥
भावार्थः- दुष्ट धर्मवाले इस कलिकाल में मनोवाञ्छित फल प्राप्ति के साधन, कर्म, ज्ञान, उपासना आदि सब मार्ग लुप्त हो
चुके हैं और लोक अत्यन्त पाखण्डी हो गये हैं । इसलिये श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ॥१॥
म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु च ।
सत्पीडाव्यग्रलोकेषु कृष्णएव गतिर्मम॥२॥
भावार्थ:- कुरुक्षेत्र गङ्गा तट आदि सब पवित्र देश म्लेच्छ पुरुषों से व्याप्त हो गये हैं तथा एक मात्र पाप के स्थान बन गये हैं
और सज्जनों की पीड़ा को देखकर लोग अधीर हो रहे हैं। इसलिये श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ॥२॥
गङ्गादितीर्थवर्येषु दुष्टैरेवावृतेष्विह ।
तिरोहिताधिदेवेषु कृष्णएव गतिर्मम॥३॥
भावार्थ:- इस कलियुग में दुष्ट पुरुषों से घिरे हुए गङ्गादि मुख्य तीर्थों के अधिष्ठाता देवता तिरोहित हो (छिप) गये हैं,
इस कारण ही उनसे यथार्थ फल की प्राप्ति नहीं होती है । इसलिये श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं॥३॥
अहंकारविमूढेषु सत्सु पापानुवर्तिषु ।
लाभ पूजार्थयत्नेषु कृष्णएव गतिर्मम ॥४॥
भावार्थ:- सज्जन पुरुष भी अभिमान से भ्रान्त हो रहे हैं, स्वार्थसिद्धि के लिये पाप का अनुसरण तथा प्रतिष्ठा के
लिये प्रयत्न कर रहे हैं इसलिये श्रीकृष्ण हो मेरे रक्षक हैं ॥४॥
अपरिज्ञाननष्टेषु मन्त्रेष्वव्रतयोगिषु ।
तिरोहितार्थदेवेषु कृष्णएव गतिर्मम ॥५॥
भावार्थ:- गुरुसेवा न बनने के कारण पाठ, अर्थ और विनियोग आदि के अज्ञान से वैदिक तथा अन्य मन्त्रों का नाश हो गया है,
तथा ब्रह्मचर्य आदि व्रतों से हीन पुरुषों के पास रहने से उन मन्त्रों के अर्थ और अधिष्ठाता देवता तिरोहित हो (छिप) गये हैं ।
इसलिये श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ॥५॥
नानावादविनष्टेषु सर्व कर्मव्रतादिषु ।
पाखण्डैकप्रयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥६॥
भावार्थ:- शास्त्र विरुद्ध अनेक प्रकार के विवादों से वेदोक्त सम्पूर्ण कर्म, व्रत आदि का नाश हो गया और लोग
केवल पाखण्ड दिखाने के लिये ही प्रयत्न कर रहे हैं । इसलिये श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ॥६॥
अजामिलादिदोषाणां नाशकोऽनुभवे स्थितः ।
ज्ञापिताखिलमाहात्म्यः कृष्ण एव गतिर्मम ॥७॥
भावार्थः- नाम ग्रहण मात्र से अजामिल आदि दुष्ट जीवों के महापापों का नाश करने वाले, आप दोषों के नाश करने वाले हैं,
इस रूप से भक्तों के अनुभव में आने वाले और दैवी जीवों को अपने सम्पूर्ण माहात्म्य का ज्ञान कराने वाले श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं॥७॥
प्राकृताः सकला देवा गणितानन्दकं बृहत् ।
पूर्णानन्दो हरिस्तस्मात् कृष्ण एव गतिर्मम ॥८॥
भावार्थ:- ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता भगवान की शक्ति माया के वशीभूत हैं और अक्षर ब्रह्म के आनन्द की भी अवधि है।
इसलिये अगणित आनन्द वाले और भक्तों के सब दुःख दूर करनेवाले श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं ॥ ८ ॥
विवेकधैर्य भक्त्यादिरहितस्य विशेषतः ।
पापासक्तस्य, दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम॥९॥
भावार्थ:- विवेक, धैर्य, भक्ति आदि भगवान के धर्मो से रहित, पापों में अत्यन्त आसक्त तथा अत्यन्त दीन ऐसे मेरे लिये श्रीकृष्ण ही रक्षक हैं ॥९॥
सर्वसामर्थ्य सहितः सर्वत्रैवाखिलार्थकृत् ।
शरणस्थसमुद्धारं कृष्णं विज्ञापयाम्यहम् ॥१०॥
भावार्थ-हे कृष्ण ! आप सम्पूर्ण शक्तियों से युक्त हैं, और सब अवस्थाओं में भक्तों के सारे मनोरथ पूर्ण करने वाले |
इसलिये शरण में आये हुये भक्त का उद्धार करने वाले प्रभो ! आपकी प्रार्थना करता हूँ ॥१०॥
कृष्णाश्रयमिदंस्तोत्रं यः पठेत् कृष्णसन्निधौ ।
तस्याश्रयो भवेत् कृष्ण इति श्रीवल्लभोऽब्रवीत्॥११॥
भावार्थ:- जो भगवान् श्रीकृष्ण के समीप इस कृष्णाश्रय स्तोत्र का पाठ करता है उस मनुष्य के श्रीकृष्ण स्वयं आश्रय हो जाते हैं ।
यह श्रीवल्लभाचार्यजी महाप्रभु ने आज्ञा की है ।भगवान के आश्रय हो जाने में श्रीवल्लभाचार्यजी के वचनों की वस्तुशक्ति ही कारण है;
क्योंकि श्रीआचार्यचरणों के वचनों से प्रेरित होकर ही भगवान् किसी साधन की अपेक्षा न रखकर भक्त के आश्रयरूप होते हैं॥११॥
इति श्रीमद्वल्लभाचार्य विरचितं श्रीकृष्णाश्रयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥९॥