चतुःश्लोकी/ Chatuh Shloki


श्रीकृष्णाय नमः



श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥



श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित



 चतुःश्लोकी



सर्वदा सर्वभावेन भजनीयों व्रजाधिपः ।



स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्यः क्वापि कदाचन॥१॥



भावार्थ:- सदैव सर्वभाव से श्रीव्रजाधिप श्रीकृष्ण भजनेयोग्य हैं। अपना (जीवात्मा का) यही धर्म है। किसी देश में और



किसी काल में श्रीकृष्ण की भक्ति के अतिरिक्त दूसरा कोई धर्म नहीं है॥१॥



एवं सदा स्म कर्तव्यं स्वयमेव करिष्यति ।



प्रभुः सर्वसमर्थो हि ततो निश्चिन्ततां व्रजेत् ॥२॥



भावार्थ:- इस प्रकार सदैव सेवारूप स्वधर्म का पालन करना चाहिये और प्रभु स्वयं अपना कर्तव्य पूर्ण करेंगे ।



श्रीप्रभु सब कुछ करने को समर्थ हैं यह समझकर भक्त निश्चिन्त रहें, मूल में 'स्म' शब्द सिद्धार्थक है ॥ २॥



यदि श्रीगोकुलाधीशो धृतः सर्वात्मना हृदि ।



ततः किमपरं ब्रूहि लौकिकै वैदिकैरपि ॥३॥



भावार्थ:- यदि श्रीगोकुल के अधिपति श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण रूप में सब प्रकार से अपने हृदय में धारण कर लिया है तो फिर



लौकिक और वैदिक फलों से क्या प्रयोजन है ? हे मन ! वह तुम मुझे कहो ॥३॥



अतः सर्वात्मना शश्वद् गोकुलेश्वरपादयोः ।



स्मरणं भजनं चापि न त्याज्यमिति मे मतिः ॥४॥



भावार्थ:- अतएव सब प्रकार से सदैव श्रीगोकुलेश के चरणकमल का स्मरण और भजन त्याग करने योग्य नहीं है इस प्रकार की मेरी सम्मति है ॥४॥



इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचिता चतुःश्लोकी सम्पूर्णा ॥१०॥