भक्तिवर्धिनी/ Bhakti Vardhini


श्रीकृष्णाय नमः



श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥



श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित



 भक्तिवर्धिनी



यथा भक्तिः प्रवृद्धा स्यात् तथोपायो निरूप्यते।



बीजभावे दृढ़े तु स्यात् त्यागाच्छ्रवणकीर्तनात् ॥१॥



भावार्थ:- जिस प्रकार भक्ति की वृद्धि हो उस प्रकार का उपाय निरूपण किया जाता है, बीज भाव के दृढ़ होने पर ही



भक्ति की वृद्धि होती है, साथ ही त्याग पूर्वक श्रीभगवान की कथाओं के श्रवण तथा कीर्तन से भक्ति की वृद्धि होती है ॥१॥



बीजदार्ढ्य प्रकारस्तु गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः ।



अव्यावृत्तो भजेत् कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः॥२॥



भावार्थ:- बीज की दृढ़ता का प्रकार इस रीति से है, स्वधर्म पालन पूर्वक घर में रहकर सब व्यवसाय मात्र का



त्याग कर भगवत् सेवा श्रवणादि द्वारा श्रीकृष्ण का भजन करे॥२॥



व्यावृत्तोपि हरौ चितं श्रवणादौ यतेत् सदा ।



ततः प्रेम तथासक्तिर्व्यसनं च यदा भवेत्॥३॥



भावार्थः– यदि गृहस्थाश्रम के अङ्ग में व्यवसाय करना पड़े तो उसे करते हुए भगवान में चित्त रखें तथा



सदैव श्रवणादि भक्ति में प्रयत्नशील बना रहे । जिससे प्रभु में प्रेम, आसक्ति और व्यसन होंगे ॥३॥



बीजं तदुच्यते शास्त्र दृढं यन्नापि नश्यति ।



स्नेहाद रागविनाशः स्यादासक्त्या स्याद् गृहारुचिः ll४ll



भावार्थ:- शास्त्र में उस बीज को दृढ़ कहते हैं जो किसी कारण से नष्ट नहीं होता है । प्रभु में स्नेह करने से सांसारिक



रागों की निवृत्ति होती है तथा प्रभु में आसक्ति होने पर घर से अरुचि हो जाती है ॥ ४ ॥



गृहस्थानां बाधकत्वमनात्मत्वं च भासते ।



यदा स्याद व्यसनं कृष्णे कृतार्थः स्यात् तदैव हि ll५ll



भावार्थ:- इस अवस्था में घर में रहने वालों की बाधकता तथा अनात्मता विदित होती है, जिस समय श्रीकृष्ण में



व्यसन हो जाता है, उसी समय वह जीव कृतार्थ हो जाता है ॥५॥



तादृशस्यापि सततं गृहस्थानं विनाशकम् |



त्यागं कृत्वा यतेद्यस्तु तदर्थार्थैकमानसः॥६॥



लभते सुदृढ़ां भक्तिं सर्वतोप्यधिकां पराम् ।



भावार्थः– ऐसे व्यसनावस्था वाले भक्त को घर में सदैव रहना बाधक है। अतएव जो भक्त घर को त्यागकर केवल



भगवत् प्राप्ति निमित्त एकाग्रचित्त होकर प्रयत्नशील रहता है वह भक्त सबसे अधिक और दृढ़ भक्ति को प्राप्त होता है ॥६॥



त्यागे बाधकभूयस्त्वं दुःसंसर्गात् तथान्नतः॥७॥



अतः स्थेयं हरिस्थाने तदीयैः सह तत्परैः ।



अदूरे विप्रकर्षे वा यथा चित्तं न दुष्यति ॥८॥



भावार्थ:- अब घर के त्याग करने पर भी अनेक प्रकार की बाधकता है ; क्योंकि अन्यत्र भी दुःसंग और अन्नदोष भक्ति में



प्रतिबन्धक होते हैं । अतएव भगवदीयजनों के साथ भगवत्परायण होकर श्रीभगवत् स्थान में निवास करना चाहिये ।



भगवन्मन्दिर के तथा भगवदियों के समीप में अथवा दूर में इसप्रकार रहना जिस प्रकार चित्त दूषित न हो॥७-८॥



सेवायां वा कथायां वा यस्यासक्तिर्दृढा भवेत् ।



यावज्जीवं तस्य नाशो न क्वापीति मतिर्मम॥९॥



भावार्थ:- भगवत् सेवा में अथवा भगवत् कथा में जिनकी जीवन पर्यन्त दृढ़ासक्ति रहती है उनका कहीं पर भी



नाश नहीं होता इस प्रकार मेरी सम्मति है ॥९॥



बाधसम्भावनायां तु नैकान्ते वास इष्यते ।



हरिस्तु सर्वतो रक्षां करिष्यति न संशयः ॥१०॥



भावार्थः–प्रभु की भक्ति करने में यदि किसी प्रकार की बाधा होने की सम्भावना हो तो भक्ति के लिये एकान्त वास श्रेष्ठ नहीं हैं,



हरि तो भक्ति की सब प्रकार से रक्षा करेंगे । इसमें कुछ संशय नहीं है ॥१०॥



इत्येवं भगवच्छास्त्रं गूढतत्त्वं निरूपितम् ।



य एतत् समधीयीत तस्यापि स्याद् दृढा रतिः ॥११॥



भावार्थ:- इस प्रकार जिसका रहस्य गुप्त है ऐसा भगवत्शास्त्र मैंने निरूपण किया। जो भक्त इसका अच्छी तरह से अध्ययन करेंगे ।



उनकी भी प्रभु में दृढ भक्ति होगी ॥११॥



इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचिता भक्तिवर्धिनी सम्पूर्णा ॥११॥