पञ्चपद्यानि /Panchapadhyani


श्रीकृष्णाय नमः



श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥



श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित



पञ्चपद्यानि



 श्रीकृष्णरसविक्षिप्तमानसाऽरतिवर्जिताः ।



अनिर्वृता लोकवेदे ते मुख्याः श्रवणोत्सुकाः ॥१॥



 भावार्थ:- जिन्होंने प्रेमयुक्त होकर भगवान् श्रीकृष्ण के भजनानन्द रूपी रस में अपना मन विक्षिप्त किया है तथा श्रवण में प्रीति वाले हैं



तथा लोक और वेद के सुख में जिन्होंने आनन्द नहीं माना है तथा भगवत्कथा सुनने में उत्साह वाले हैं वे उत्तम श्रोता हैं ॥१॥



 विक्लिन्नमनसो ये तु भगवत्स्मृतिविह्वलाः ।



अर्थैकनिष्ठास्ते चापि मध्यमाः श्रवणोत्सुकाः ॥२॥



 भावार्थ:- इस प्रकार विशेष रूपसे भगवत् स्मरण में जिनका मन आद्र तथा विह्वल हो जाता है,



ऐसे भगवान के गुण श्रवण में उत्साह वाले और जो अर्थ अर्थात् अर्थादि में मुख्य निष्ठा रखते हैं, वे मध्यम श्रोता कहलाते हैं ॥२॥



 निःसन्दिग्धं कृष्णतत्त्वं सर्वभावेन ये विदुः ।



 ते त्वादेशात् तु विकला निरोधाद्वा न चान्यथा ॥३॥



 भावार्थ:- जो भक्तगण संदेह रहित होकर सर्वभाव द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के तत्व को भली भाँति जानते हैं,



वे आवेश द्वारा अथवा निरोध से विकल हो जाते हैं किसी प्रकार की व्याजरीति से नहीं होते, वे पूर्ण भक्त होते हैं ॥३॥



 पूर्णभावेन पूर्णार्थाः कदाचिन्न तु सर्वदा ।



अन्यासक्तास्तु ये केचिदधमाः परिकीर्तिताः ॥४॥



भावार्थ:- कभी पूर्ण रीति से सफल मनोरथ भी हो जाता है । परन्तु वह भाव उनका सदा स्थायी नहीं रहता और लौकिक तथा



वैदिक अन्य कार्यों में भी कुछ आसक्त रहते हैं वे अधम श्रोता कहे गये हैं ॥४॥



अनन्यमनसो मर्त्या उत्तमाः श्रवणादिषु ।



 देशकालद्रव्यकर्तृ मन्त्रकर्मप्रकारतः ॥५॥



 भावार्थः– देश, काल, द्रव्य, कर्ता, मन्त्र और कर्म को जानकर उसके अनुसार जो यज्ञादि कार्य करते हैं उनकी अपेक्षा



अनन्य मन से श्रवणादि नवधा भक्ति वाले श्रोता उत्तम कहे गये हैं ॥५॥



 ॥ इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचितानि पञ्चपद्यानि सम्पूर्णानि ॥१३॥