संन्यासनिर्णयः/Sanyasnirnayah


श्रीकृष्णाय नमः



श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥



श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित



 संन्यासनिर्णयः



पश्चात्तापनिवृत्त्यर्थं परित्यागो विचार्यते ।



 स मार्गद्वितये प्रोक्तो भक्तौ ज्ञाने विशेषतः॥१॥



भावार्थः - पश्चात्ताप की निवृत्ति के लिये परित्याग के विषय में विचार करते हैं । सन्यास ग्रहण के दो मार्ग हैं। एक तो भक्तिमार्गीय सन्यास



और दूसरा ज्ञानमार्गीय संन्यास बताया है ॥१॥



 कर्ममार्गे न कर्तव्यः सुतरां कलिकालतः ।



 अतः आदौ भक्तिमार्गे कर्तव्यत्वाद विचारणा ॥२॥



भावार्थः- इस समय कराल कलिकाल है, इसलिये कर्ममार्ग की प्रणाली के अनुसार त्याग अर्थात् संन्यास नहीं करना चाहिये ।



भक्तिमार्ग के अनुसार संन्यास ग्रहण करना हमारा परम कर्तव्य है, इसलिये प्रथम इस भक्तिमार्गीय सन्यास पर विचार करते हैं ॥२॥



 श्रवणादिप्रसिद्ध्यर्थं कर्तव्यश्चेत् स नेष्यते ।



सहायसंग साध्यत्वात् साधनानां च रक्षणात् ॥३॥



 अभिमानान्नियोगाच्च तद्वर्मैश्च विरोधतः l



 भावार्थ:- श्रवणादि नवधा भक्ति में प्रवृत्त होने के लिये त्याग ( सन्यास ) करना सर्वथा उचित नहीं है,



क्योंकि नवधाभक्ति के साधनों की रक्षा करने के लिये दूसरे मनुष्यों की सहायता की परमावश्यकता रहती है ।



और सन्यास अवस्था में अभिमान और सन्यासी धर्म भक्तिमार्ग के विरुद्ध होते हैं ॥३॥



गृहादेर्बाधकत्वेन साधनार्थं तथा यदि ॥ ४॥



अग्रेपि तादृशैरेव संगो भवति नान्यथा ।



 स्वयं च विषयाक्रान्तः पाखण्डी स्यात् तुकालतः ॥५॥



भावार्थ:- नवधा भक्ति के साधन करने में गृह को बाधकता समझकर यदि त्याग ( संन्यास ) ग्रहण किया जाय तो आगे



 भी इसी प्रकार के मनुष्यों का समाग़म होगा । कोई अच्छे महात्मा नहीं मिलेंगे,



क्योंकि कराल कलिकाल है अतः यदि इन पाखण्डियों के साथ रहना पड़े तो स्वयं भी विषयाक्रान्त हो सकते हैं ॥५॥



विषयाक्रान्तदेहानां नावेशः सर्वदा हरेः ।



अतोऽत्र साधने भक्तौ नैव त्यागः सुखावहः ॥६॥



 भावार्थ:- जिनके हृदयों में विषयवासनायें अपना स्थान बनाये हैं । उनके हृदय में प्रभु का आवेश कभी नहीं हो सकता ।



इसलिये भक्तिमार्ग का साधन करने के लिये तो इस समय त्याग (संन्यास) ग्रहण करना सुखप्रद नहीं हो सकता है ॥६॥



विरहानुभवार्थं तु परित्यागः प्रशस्यते ।



स्वीयबन्धनिवृत्त्यर्थं वेषः सोऽत्र न चान्यथा ॥७॥



भावार्थ:-विरह का अनुभव करने के लिये ही परित्याग अर्थात संन्यास ग्रहण करना उचित कहा है यह भक्तिमार्गीय संन्यास



अपने कुटुम्ब के मनुष्यों का मोहरूपी बन्धन तोड़ने अर्थात उनके सम्बन्ध से होने वाली विविध उपाधियों से बचने के



लिये भेष बदल दिया जाता है और कुछ भी कारण नहीं है॥७॥



 कौंण्डिन्यो गोपिकाः प्रोक्ता गुरवः साधनं च तत्।



 भावो भावनया सिद्धः साधनं नान्यदिष्यते ॥८॥



भावार्थ:- इस मार्ग में कौण्डिन्य ऋषि और गोपिकाएँ गुरु हैं और उन्होंने जो साधन किया वहीं साधन श्रेष्ठ है ।



भाव भावना के द्वारा सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई साधन परमोत्तम नहीं हैं ॥८॥



 विकलत्वं तथा स्वास्थ्यं प्रकृतिः प्राकृतं न हि ।



 ज्ञानं गुणाश्च तस्यैवं वर्तमानस्य बाधकाः ॥९॥



 भावार्थ:- इस मार्ग में विकलता अस्वस्थता तथा स्वभाव प्राकृत मनुष्यों के तुल्य नहीं रहता है ।



इस प्रकार की अवस्था में रहने वाले भक्तजनों के लिये ज्ञान और लौकिक गुण बाधक होते हैं ॥९॥



 सत्यलोके स्थितिर्ज्ञानात् संन्यासेन विशेषितात् ।



भावना साधनं यत्र फल चापि तथा भवेत् ॥१०॥



 भावार्थ:- ज्ञान मार्ग के अनुसार संन्यास लेने से उसको विशेष करके सत्यलोक की प्राप्ति होती है ।



परन्तु यहाँ तो भक्ति ही साधन है। तब उसका फल भी साक्षात् प्रभु दर्शन प्राप्ति है ॥१०॥



 तादृशाः सत्यलोकादौ तिष्ठन्त्येव न संशयः ।



बहिश्चेत् प्रकटः स्वात्मा वह्निवत् प्रविशेद यदि ॥११॥



तदैव सकलो बन्धो नाशमेति न चान्यथा ।



भावार्थ:- ज्ञानमार्ग के अनुसार संन्यास निःसन्देह सत्यलोक आदि में ही पहुँचते हैं। परन्तु भक्तिमार्ग में तो अपना ही



आत्मा बाहर से प्रकट होकर अग्नि के समान जब हृदय में प्रवेश करता है तब समस्त सांसारिक बन्धन टूट जाते हैं,



इसमें कुछ सन्देह नहीं है ॥११॥



 गुणास्तु सङ्गराहित्याज्जीवनार्थं भवन्ति हि ॥१२॥



 भगवान् फलरूपत्वान्नात्र बाधक इष्यते ।



 स्वास्थ्यवाक्यं न कर्तव्यं दयालुर्न विरुध्यते ॥१३॥



भावार्थः- लौकिक आसक्ति रहितों को भगवत् गुणगान ही जीवन है । इस भक्तिमार्ग में तो भगवान् ही स्वयं फलरूप हैं



इस प्रकार यह बाधकता कुछ नहीं है । स्वस्थता का बचन भगवान के लिये कर्तव्य नहीं हैं, क्योंकि भगवान् सदा दयालु हैं



वे अपनी दयालुता के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करते हैं ॥१३॥



दुर्लभोऽयं परित्यागः प्रेम्णा सिध्यति नान्यथा।



 ज्ञानमार्गे तु संन्यासो द्विविधोऽपि विचारितः ॥१४॥



भावार्थ:- यह परित्याग ( सन्यास ) दुर्लभ है वह प्रेम के द्वारा सिद्ध होता है अन्य साधनों से नहीं ।



ज्ञानमार्ग में सन्यास दो प्रकार का कहा गया है ॥१४॥



 ज्ञानार्थमुत्तराङ्गं च सिद्धिर्जन्मशतैः परम् ।



ज्ञानं च साधनापेक्षं यज्ञादिश्रवणान् मतम् ॥१५॥



भावार्थ:- ज्ञान प्राप्ति के लिये (विविदिषा संन्याम ) और उत्तरड्ग ( विकृत् संन्यास ) अनेक जन्मों के पश्चात् सिद्धि देने वाला है ।



यज्ञादिक करने का कथन शास्त्र में होने से ज्ञान को साधन की अपेक्षा स्पष्ट है ॥१५॥



अतः कलौ सःसंन्यासः पश्चात्तापाय नान्यथा ।



 पाखण्डित्वं भवेच्चापि तस्माज्ज्ञाने न संन्यसेत् ॥१६॥



 सुतरां कलिदोषाणां प्रबलत्वादितिस्थितिः ।



भावार्थ:- अतएव ज्ञानमार्गीय सन्यास कलियुग में पश्चाताप के निमित्त ही है । अन्य प्रकार से फलप्रद नहीं है ।



फिर इस प्रकार के संन्यास से पाखण्डिता हो जाती है इसलिये ज्ञानमार्ग में संन्यास लेना किसी प्रकार उचित नहीं है।



कलियुग के दोषों की विशेष प्रबलता के कारण इस प्रकार पूर्वोक्त व्यवस्था प्रदर्शित की गई है ॥१६॥



 भक्तिमार्गेऽपि चेद दोषस्तदा किं कार्यमुच्यते ॥१७॥



 अत्रारम्भे न नाशः स्याद् दृष्टान्तस्याप्यभावतः।



 स्वास्थ्य हेतोः परित्यागाद् बाधः केनास्य सम्भवेत् ॥१८॥



 भावार्थः- यहाँ भक्तिमार्ग में आरम्भ करते ही नाश नहीं होता है क्योंकि भक्तिमार्ग में किये हुये कर्म के नाश होने के



उदाहरण नहीं प्राप्त होते हैं फिर लौकिक स्वास्थ्य के कारणों का परित्याग कहा है जिससे उनको बाधा



अर्थात् अड़चन कौन कर सकता है ॥१७-१८॥



 हरिरत्र न शक्नोति कर्तु बाधां कुतोऽपरे ।



 अन्यथा मातरो बालान् न स्तन्यैः पुपुषुः क्वचित् ॥१९॥



 भावार्थ:- यहाँ पर तो स्वयं श्रीहरि भी बाधा नहीं कर सकते हैं तब और दूसरे को समर्थय ही क्या है जो कि बाधा कर सके ।



यदि ऐसा न हो तो फिर माताएँ अपने प्रिय बालकों को कभी अपने स्तन दुग्धपान के द्वारा पोषण न करें ॥१९॥



 ज्ञानिनामपि वाक्येन न भक्तं मोहयिष्यति ।



 आत्मप्रदः प्रियश्चापि किमर्थं मोहयिष्यति ॥२०॥



भावार्थ:- ज्ञानियों के उपदेश वाक्यों से प्रभु अपने भक्त को मोह में नहीं डालते हैं क्योंकि वे हमको अपना



स्वरूप दान करने वाले और प्रिय हैं वे भक्त को किसलिये मोहित करेंगे ॥२०॥



 तस्मादुक्तप्रकारेण परित्यागो विधीयताम् ।



 अन्यथा भ्रंश्यते स्वार्थादिति मे निश्चिता मतिः॥२१॥



भावार्थः- अतएव उपरोक्त प्रकार से संन्यास की व्यवस्था कही है इसके विना अन्य प्रकार से यदि कोई संन्यास



ग्रहण करेगा तो वह अपने पुरुषार्थ से भ्रष्ट होगा, यह मेरी निश्चित सम्मति है ॥२१॥



इति कृष्णप्रसादेनवल्लभेन विनिश्चितम् ।



 संन्यासवरणं भक्तोवन्यथा पतितो भवेत् ॥२२॥



भावार्थ:- इस प्रकार श्रीकृष्ण की कृपा से श्रीमद्वल्लभाचार्यजी श्रीमहाप्रभुजी ने अच्छी प्रकार से विचार पूर्वक निश्चय किया हुआ



भक्तों के लिये संन्यासग्रहण का निरूपण किया है। यदि कोई इसके विपरित करेगा तो उसका पतन ही होगा ॥२२॥



 इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचितः संन्यासनिर्णयः सम्पूर्णः॥१४॥