निरोधलक्षणम्/ Nirodhlakshanam


श्रीकृष्णाय नमः



श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥



श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित



निरोधलक्षणम्



यच्च दुखं यशोदाया नन्दादीनां च गोकुले।



गोपिकानां तु यद्दुःखं तद्दुःखं स्यान्मम क्वचित्। ॥१॥



भावार्थ: --:- जब श्रीव्रजाधिप भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी मथुरा पुरी में पधारे उस समय यशोदाजी और नन्द आदि गोकुल के सब



 व्रजवासियों और श्रीगोपीजनों को जो दुःख हुआ था इस प्रकार का दुःख क्या मुझको भी कभी होगा?॥ १॥



गोकुले गोपिकानां तु सर्वेषां व्रजवासिनाम्।



यत् सुखं समभूत् तन्मे भगवान् किं विधास्यति। २ ॥



भावार्थः —– गोकुल में, गोपिकाओं और समस्त व्रजवासियों को जो प्रभुके साक्षात् स्वरूपानन्द का सुखानुभव हुआ था,



क्या उसी प्रकार का सुख श्रीभगवान् मुझको भी प्रदान करेंगे?॥ २॥



उद्धवागमने जात उत्सवः सुमहान् यथा।



वृन्दावने गोकुले वा तथा मे मनसि क्वचित्॥ ३॥



भावार्थः– भक्तप्रवर श्रीउद्धवजी के( मथुरापुरी से) आने पर वृन्दावन और श्रीगोकुल में जो महान् उत्सव अर्थात्· समस्त



व्रजवासियों को जो अनन्त हर्ष हुआ था। इसी प्रकार का हर्ष क्या मेरे मन में भी कभी उत्पन्न होगा?॥ ३॥



महतां कृपया यावद् भगवान् दययिष्यति।



तावदानन्दसन्दोहः कीर्त्यमानः सुखाय हि॥ ४॥



भावार्थ:- पूज्य गुरुजनों की परम कृपा से जब भगवान् गोकुलेन्दु दया करेंगे। तब तक अपने सुख के लिये आनन्द रूप प्रभु



का कीर्तन करना ही परम सुखकर है || ४ ||



महतां कृपया यद्वत् कीर्तनं सुखदं सदा।



न तथा लौकिकानां तु स्निग्धभोजन रुक्षवत् ॥५॥



भावार्थ: —बड़े पुरुषों की परम कृपा से भक्तों द्वारा लीला आदि का विधि पूर्वक कीर्तन सर्वदा सुख का अनुभव कराने वाला है।



जिस प्रकार घृत से स्निग्ध भोजन करने वाले को शुष्क भोजन सुखप्रद नहीं होता। उसी प्रकार लौकिक पुरुषों का



कीर्तन तो कभी सुखप्रद नहीं हो सकता है | ५ ||



गुणगाने सुखावाप्तिर्गोविन्दस्य प्रजायते।



यथा तथा शुकादीनां नैवात्मनि कुतोऽन्यतः॥ ६॥



भावार्थ- श्रीगोविन्द भगवान का गुणगान करने से जो अनन्त सुख मिलता है। उस प्रकार का सुख तो शुकदेव



आदि मुनीश्वरों को आत्मानन्द में भी कभी नहीं मिला। अब दूसरों की तो गणना ही क्या है?॥ ६॥



क्लिश्यमानान् जनान् दृष्ट्वा कृपायुक्तो यदा भवेत्।



तदा सर्वं सदानन्दं हृदिस्थं निर्गतं बहिः || ७ ||



भावार्थ:- अपने भक्तों को क्लेश युक्त देखकर भक्तवत्सल भगवान् जब कृपायुक्त होते हैं। उस समय पूर्णतया सदा



आनन्द स्वरूप प्रभु अपने हृदय में स्वयं बाहर प्रकट होते हैं ॥७॥



सर्वानन्दमयस्यापि कृपानन्दः सुदुर्लभः।



हृद्गतः स्वगुणान् श्रुत्वा पूर्णः प्लावयते जनान् || ८ ||



भावार्थ:- सम्पूर्ण आनन्दमय प्रभु का कृपानन्द अत्यन्त दुर्लभ है। हृदय पंकज में विराजमान होकर जब भगवान् अपने



गुणों को सुनते हैं। तब अपने भक्त को पूर्ण आनन्द सागर में आप्लावित कर देते हैं॥ ८॥



तस्मात् सर्वं परित्यज्य निरुद्धैः सर्वदा गुणाः।



सदानन्दपरैर्गेयाः सच्चिदानन्दता ततः || ९||



भावार्थः– अतएव सदा आनन्द रूप प्रभु में आसक्त पुरुषों को समस्त लौकिक आसक्तियाँ छोड़कर चित्त को अवरोध करने के



लिये सदा प्रभु का गुणगान करना ही परमोचित है। ऐसा करने से सच्चिदानन्दता सिद्ध होती है अर्थात् सत्, चित् और आनन्दरूप



प्रभु स्वयं प्रकट हो जाते हैं॥ ९॥



अहं निरुद्धो रोधेन निरोधपदवीं गतः।



निरुद्धानां तु रोधाय निरोधं वर्णयामि ते॥ १०॥



भावार्थः— मैं निरुद्धों के मार्ग में अंगीकृत हूँ और सकल इंद्रियों का प्रभु में निरोध करने से निरोध पदवी को (फल को) प्राप्त हुआ हूँ,



अतः अब जो निरोधके अभिलाषी हैं उनके लिये निरोध का वर्णन किया जाता है॥ १०॥



हरिणा ये विनिर्मुक्तास्ते मन्ना भवसागरे।



ये निरुद्धास्तएवात्र मोदमायान्त्यहर्निशम्॥ ११॥



भावार्थ: -श्रीहरि ने जिनको त्याग रखा है वे समस्त प्राणी भवसागर में निमग्न( डूबे हुए) हैं, और जिन भक्तजनों का निरोध किया है



वे यहाँ भगवत् सन्निधि में प्रत्येक क्षण आनन्दमय रहते हैं॥ ११॥



संसारावेशदुष्टानामिन्द्रियाणां हिताय वै।



कृष्णस्य सर्ववस्तूनि भूम्न ईशस्य योजयेत्॥ १२॥



भावार्थः– सांसारिक कामों में लगी हुई दुष्ट इन्द्रियों के हित के लिये समस्त वस्तुओं का श्रीजगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र



के साथ सम्बन्ध कर देना ही सर्वोत्तम है॥ १२॥



गुणेष्वाविष्टचित्तानां सर्वदा मुरवैरिणः।



संसार विरहक्लेशौ न स्यातां हरिवत् सुखम्॥१३॥



भावार्थः– जिनके चित्त में भगवान् मुरारि के गुणों का सुख भरा हुआ है उनके लिये सांसारिक विरह तथा क्लेश का कुछ भी



भान नहीं होता है अर्थात् वे श्रीहरि के तुल्य सर्वदा सुखमय रहते हैं ॥१३॥



तदा भवेद् दयालुत्वमन्यथा क्रूरता मता।



बाधशङ्कापि नास्त्यत्र तदध्यासोपि सिद्धयति॥ १४॥



भावार्थ:- इसी को प्रभु का दयालुपन कहते हैं। नहीं तो इसके विरुद्ध को तो क्रूरता ही मना है। यहाँ पर बाधाओं की तो



आशंका भी उत्पन्न नहीं हो सकती और असाध्य भी सिद्ध हो जाता है अर्थात् अनायास ही प्रभु का स्मरण सफल हो जाता है॥ १४॥



भगवद्धर्मसामर्थ्यात् विरागो विषये स्थिरः।



गुणैर्हरेः सुखस्पर्शान्न दुःखं भाति कर्हिचित् || १५ ||



भावार्थ: -श्रीभगवान के प्रताप से विषयों में स्थिर विराग उत्पन्न हो जाता है। प्रभु के गुणों के सुख का अनुभव



होनेपर किसी समय में भी दुःख की प्रतीति नहीं हो सकती है ॥१५॥



एवं ज्ञात्वा ज्ञानमार्गादुत्कर्षो गुणवर्णने।



अमत्सरैरलुब्धैश्च वर्णनीयाः सदा गुणाः॥ १६॥



भावार्थः -- इस प्रकार ज्ञानमार्ग से परमश्रेष्ठ भगवद्गुणगान को मानकर द्वेष और लोभ रहित होकर सदैव प्रभु का



गुणगान करना ही सर्वश्रेष्ठ हैं॥ १६॥



हरिमूर्तिः सदा ध्येया सङ्कल्पादपि तत्र हि।



दर्शनं स्पर्शनं स्पष्टं तथा कृतिगती सदा॥ १७॥



भावार्थ: –जिस प्रकार श्रीहरि के स्वरूप का दर्शन तथा स्पर्श करते हैं उसी प्रकार संकल्प द्वारा भी सदैव हृदय



में ध्यान करना चाहिये॥ १७॥



श्रवणं कीर्तनं स्पष्टं पुत्रे कृष्णप्रिये रतिः।



पायोर्मलांशत्यागेन शेषभागं तनौ नयेत्॥ १८॥



भावार्थ: -श्रवण और कीर्तन स्पष्ट रूप से करना चाहिये, और पुत्र भी भगवान् कृष्ण का भक्त होगा, इस भाव से



अपनी स्त्री के साथ सहवास करना चाहिये। केवल गुदा इन्द्रिय मलांश त्यागने का स्थान छोड़कर शरीर की समस्त इन्द्रियों



को भगवत् सेवा में लगाना चाहिये॥ १८॥



यस्य वा भगवत्कार्यं यदा स्पष्ट न दृश्यते।



तदा विनिग्रहस्तस्य कर्तव्य इति निश्चयः॥ १९॥



भावार्थ:- जिस इन्द्रिय का भगवत् सेवा कार्य में उपयोग नहीं होता होय उसको निग्रह अर्थात् अवरोध करके



अवश्य ही उसे भगवत् कार्य में लगाना चाहिए ॥१९॥



नातः परतरो मन्त्रो नातः परतरः स्तवः।



नातः परतरा विद्या तीर्थं नातः परात् परम् ॥२०॥



भावार्थ:- अतएव पराभक्ति से बढ़कर न तो कोई मन्त्र है, न कोई स्तोत्र ही हैं न कोई विद्या ही है, और न कोई तीर्थ

 



ही है॥ २०॥



॥ इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचितं निरोधलक्षणं सम्पूर्णम्॥