श्रीकृष्णाय नमः
श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥
श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित
सेवाफलम्
यादृशी सेवना प्रोक्ता तत्सिद्धौ फलमुच्यते।
अलौकिकस्य दाने हि चाद्यः सिध्येन् मनोरथः || १॥
फलं वा ह्यधिकारो वा न कालोऽत्र नियामकः।
उद्वेगः प्रतिबन्धो वा भोगो वा स्यात् तु बाधकम्॥ २॥
भावार्थ:- जिस प्रकार सेवा बतायी गयी है उसकी सिद्धि होने से अब फल को कहते हैं। अलौकिक के दान में
प्रथम मनोरथ सिद्ध होता है ।उसका फल प्राप्त होने में अथवा अधिकार प्राप्त होने में यहाँ पर काल को नियामक नहीं माना है।
उद्वेग और प्रतिबन्ध अथवा भोग ये सेवा में विघ्न करनेवाले हैं॥ १,२॥
अकर्तव्यं भगवतः सर्वथा चेद गतिर्न हि।
यथा वा तत्त्वनिर्धारो विवेकः साधनं मतम् || ३॥
भावार्थ:- यदि भगवान को सब प्रकार से फल का दान न करना हो तब उपाय ही नहीं है। यहाँ पर प्रमाण
तत्व के निश्चय को अथवा विवेक को ही साधन माना है॥ ३॥
बाधकानां परित्यागो भोगेप्येकं तथा परम्।
निष्प्रत्यूहं महान् भोगः प्रथमे विशते सदा || ४ ||
भावाथः -- सेवा में विघ्न करने वाले समस्त कारणों का परित्याग करना ही उचित है। लौकिक और अलौकिक दो प्रकार के
भोग में से एक लौकिक भोग का परित्याग करना उचित है इसी प्रकार सेवा में लोककृत प्रतिबन्ध और भगवत्कृत प्रतिबन्ध में से
लौकिक प्रतिबन्ध का त्याग करना उचित है। महान् भोग अर्थात् अलौकिक भोग सेवा में अन्तराय रूप नहीं है क्योंकि वह
अलौकिक भोग फलान्तर्गत है॥ ४॥
सविघ्नोऽल्पो घातकः स्याद् बलादेतौ सदा मतौ।
द्वितीये सर्वथा चिन्ता त्याज्या संसारनिश्चयात् ॥५॥
भावार्थ: -- लौकिक भोग अनेक प्रकार से विघ्न वाले हैं एवं अल्प तथा घातक हैं। वे दोनों अर्थात् लौकिक भोग और लोककृत प्रतिबन्ध
सेवा फलमें अन्तराय करनेवाले माने गये हैं। इन दोनों के प्रबल होने में अहन्ता ममतात्मक संसार में स्थिति निश्चित है।
यह समझ कर सर्वविध चिन्ता परित्याग करना योग्य है॥ ५॥
नन्वाद्ये दातृता नास्ति तृतीये बाधकं गृहम् ।
अवश्येयं सदा भाव्या सर्वमन्यन् मनोभ्रमः || ६ ॥
भावार्थ: -- सेवा में उद्वेग होने पर समझ लेना चाहिये कि फल देने की भगवान की इच्छा नहीं है और तृतीय प्रतिबंध में
घर(गृह) बाधक रूप है, जो हमने कहा है। अवश्य यह विचारने योग्य है इसके अतिरिक्त सब मन की भ्रान्ति है॥ ६॥
तदीयैरपि तत् कार्यं पुष्टौ नैव विलम्बयेत् ।
गुणोक्षोभेऽपि द्रष्टव्यमेतदेवेति मे मतिः॥७॥
कुसृष्टिरत्र वा काचिदुत्पद्येत स वै भ्रमः || ७.१/२ ||
भावार्थ -- यदि भगवदीयजन ऐसा करेंगे तो भगवत् कृपा में विलम्ब नहीं होगा। गुणों के कारण क्षोभ होने पर भी ऐसा ही
विचार रखना यह मेरी श्रीवल्लभाचार्यजीकी सम्मति है। यहाँ पर किसी प्रकार की कुसृष्टि उत्पन्न हो यह भ्रम( भ्रान्ति) है || ७ ||
॥ इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचितं सेवाफलं सम्पूर्णम्॥ १६॥