महाराज पृथु का शौर्य (पृथ्वी बनी गाय)
एक समय राजा वेन के अत्याचार के बाद सबकुछ नष्ट हो चुका था। देश में भुखमरी फैली थी वर्षा न होने से अकाल पड़ा था। पृथ्वी की उर्वरा शक्ति समाप्त हो गई थी। प्रजा अराजक हो गई थी। अत्याचारी राजा वेन के मरने पर ऋषियों ने उसके वंशज पृथु का राज्याभिषेका किया। पृथु राजा तो हो गए, पर उनको उत्तराधिकार में ऐसा राज्य मिला, यज्ञ, पाठ, पूजा आदि धार्मिक कर्म-काण्ड बंद हो चुके थे। महाराज पृथु की चिंता बढ़ी। प्रजा भूख से पीड़ित होकर मरणासन्न स्थिति में पहुंच गई है। मैं राजा का कर्त्तव्य कैसे निभाऊं ? ऋषियों से परामर्श किया कि देश की दशा और राज्यकोष में कुछ भी न होने से वे राज-काज कैसे करें । ऋषियों ने कहा, “महाराज पृथु ! आपके पिता के अत्याचारों से दुखी होकर हम लोगों ने वेन को मारकर आपको सर्व शक्तिमान समझकर राजा बनाया है, यदि आप भी असहाय होकर बैठ जाएंगे तो क्या होगा। यही तो आपके शौर्यतथा कार्य कुशलता का अवसर है।"
महाराजा पृथु ने विचार किया। इस विपरीत परिस्थिति तथा विपत्ति का एक मात्र कारण पृथ्वी है। पृथ्वी के ही द्वारा अन्न-वनस्पतियां और औषधियां प्राप्त होती हैं, पर मेरे राज्य में पृथ्वी ने इन समस्त पोषक वस्तुओं को देना बंद कर दिया है। अब दीनता से शिथिल होकर बैठने का अवसर नहीं। जो पृथ्वी इन सबको अपने उदर में समेट कर बैठी है, उससे छीनना होगा। ऐसा विचारकर महाराज पृथु ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया कि पृथ्वी का दोहन करेंगे। पृथ्वी ने सोचा कि राजा पृथु भी वेन की तरह निरंकुश अत्याचारी होगा, इसलिए पृथु का आक्रामक संकल्प जानकर पृथ्वी गौ का रूप धारण कर के भागी। पृथ्वी को इस प्रकार भागते देख महाराज पृथु ने पीछा किया। अंत में गौ-रूप धारिणी पृथ्वी थककर खड़ी हो गई और महाराज पृथु से कहा, “राजन्! अपने पिता की तरह आप भी किसी निरपराध को दण्ड न दें। आप शूरवीर होने के साथ विवेकवान भी हैं। जो अकर्मण्यता तथा निष्क्रियता आपके राज्य में व्याप्त हो गई थी। जिस अधर्म और अत्याचार का शासन था, वह देखकर मैं भी दुखी हो गई थी, मैंने देखा कि मेरे द्वारा उत्पादित धन-धान्य दुराचारी और अत्याचारी लोग खाए जा रहे हैं। लोकरक्षक राजा अधर्मी, अन्यायी और कुमार्ग गामी हो गया है। इसलिए मैंने अपना समस्त उत्पादन अपने में समेट लिया। मेरे अंदर भी वह सब एकत्रित हो कर अजीर्ण रूप हो रहा है। मैं भी उसे देकर मातृत्व का सुख पाना चाहती हूं। राजन! आप समर्थ, सत्कर्मी, कल्याणकारी राजा होना चाहते हैं, तो वैसा सत्कर्म करें। मुझे दुहना चाहते हैं तो मुझे बीज तथा जल से सिंचित कीजिए। मुझे उर्वरा बनाने के लिए अपनी प्रजा को श्रम करने के लिए कहिए। फिर मैं इतना अन्न, जल, दूध दूंगी कि देवेन्द्र भी उस समृद्धि से ईर्ष्या करेंगे। पृथ्वीरूपी गौ की बात सुनकर महाराज पृथु ने धनुष पर चढ़ा हुआ बाण उतार लिया और प्रणाम कर के कहा, "माता ! तुम ठीक कहती हो। कभी-कभी किसी के दुष्कर्म का फल दूसरों को भोगना पड़ता है। मैं उसका परिमार्जन करूंगा।"महाराजा पृथु ने ऊंची-नीची पृथ्वी को समतल किया। वर्षा का जल पृथ्वी की आर्द्रता बढ़ाने लगा। औषधियां, वनस्पतियां उगने लगीं। जलचर, नभचर, थलचर जीव जन्तु पैदा हो गए। प्रजा द्वारा कृषि कार्य होने लगा। पृथ्वी पर धान्य लहलहाने लगा। महाराज पृथु के प्रयास तथा जनता के सहयोग से पृथ्वी धन-धान्य से भर गई। अकाल- भुखमरी समाप्त हुई। प्रजा सुखी हुई। राज्य में यज्ञादि धार्मिक कर्म शुरू हुए।ऋषियों ने कहा, “महाराज पृथु ! आपने जो राज्य और प्रजा का पुनरुद्धार किया है, इससे हम संतुष्ट हुए कि हमने वेन के उत्तराधिकारी का सही चयन किया।'पृथु ने कहा, “महर्षियो! यह सबकुछ आपके पुण्य-प्रताप तथा मार्ग-दर्शन से संभव हुआ। यह राज्य मेरा या मेरे उत्तराधिकारियों का नहीं है। यह तो प्रजा की धरोहर है, जिसे हमें अपना कर्त्तव्य निभाते हुए और समृद्ध करते हुए आने वाले प्रजा के प्रतिनिधि को सौंप देना है। "महाराज पृथु ने अश्वमेध यज्ञों का आयोजन किया, पृथु की समृद्धि से देवराज इन्द्र को ईर्ष्यावश हुई और उन्हें डर लगा कि पृथु अब पृथ्वी पर स्वर्ग जैसा राज्य स्थापित कर के कहीं स्वर्ग को भी अपने अधिकार में न ले लें। तब सौवें अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुरा लिया। लेकिन प्रतापी राजा पृथु ने इन्द्र कोहराकर घोड़ा वापस लेकर यज्ञ पूरा किया और विश्वजीत की उपाधि प्राप्त की।हमारे ग्रंथों में ऐसा लिखा हैं कि महाराज पृथु के नाम पर ही इस भूमण्डल का नाम 'पृथ्वी' पड़ा।”