वचन की मर्यादा


वचन की मर्यादा



फूल दार पेड़ों की लताओं से धूप छन-छन कर आ रही थी। यज्ञवेदी के समीप समिधा, घृत और कुशासन था। हल्की धुएं की रेखा यह बता रही थी कि अभी-अभी यज्ञ समाप्त हुआ है। हवन सामग्री की उठती हुई सुगंध से समस्त आश्रम का वातावरण पवित्र हो रहा था। यह ऋषि दध्यंच का आश्रम था, जो हरे-भरे वृक्षों से घिरा हुआ था आश्रम के समीप जलाशय था। इन्द्र पृथ्वीलोक पर विचरण करने निकले तो फूलों से सजेएक ऐसे सुरभित रम्य आश्रम को देखकर इन्द्र की इच्छा हुई कि थोड़ी देर के लिए आश्रम में चलकर ऋषि के दर्शन करें। रथ रुका। सारथि को रुके रहने का आदेश देकर इन्द्र ने पुष्पित-पल्लवित आश्रम को पुनः आंखें घुमाकर देखा। यज्ञशाला से उठती हवि की सुगंधित धूम्र राशि वायुमण्डल को शुद्ध कर रही थी। तपोनिष्ठ ऋषि दध्यंच के हृदय की पवित्रता विकसित होकर आश्रम के कण-कण में मुखरित थी ।ऋषि दध्यंच ने सुरेन्द्र को देखा। कुशासन छोड़कर वे स्वागत के लिए आगे बढ़े। ऋषि ने इन्द्र को प्रणाम किया। और सादर निवेदन किया, “ आश्रम में आपका स्वागत है। कृपया पाद्य, अर्घ्य, आसन तथा मधुपर्क ग्रहण कीजिए।आप सकुशल हैं ? इन्द्र ने स्मित भाव से प्रसन्नता प्रकट करते हुए ऋषि से पूछा। आपकी महती कृपा भगवन्।" ऋषि ने विनम्रतापूर्वक कहा। इन्द्र ने आश्रम का विधिवत् आतिथ्य स्वीकार किया। उन्होंने एक बार पुनः चारों ओर आश्रम के वैभव को देखा और विनीत स्वर में बोले, “महात्मन! आपको किसी भी वस्तु की आकांक्षा नहीं है, मैं जानता हूं, तथापि चाहता हूं कि आप मुझसे वांछित फल प्राप्त करें।"ऋषि में कुछ भी प्राप्त करने की उत्कंठा नहीं थी। इन्द्र के कथन की उन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वे निर्लिप्त नत मस्तक खड़े रहे। इन्द्र ने कहा, “ऋषिवर! आप त्याग मूर्ति हैं। यदि तप, साधना एवं सत्य विकास में मेरी सहायता की आवश्यकता हो, तो मैं उसे पूरा करने में प्रसन्नता

का अनुभव करूंगा।"

सुरेश्वर ! मैं कृतार्थ हुआ, आपका आग्रह है। क्या मैं अपनी वांछित इच्छा प्रकट कर सकता हूं।" ऋषि ने गंभीरतापूर्वक कहा।

अवश्य ।" इन्द्र हर्षित होकर बोले।ऋषि बोले, “मुझे किसी भौतिक सुख की कामना नहीं है। मैं सांसारिक भोगों से विरक्त हूं। ऋषिवर! बिना आपके कहे, मैं जानता हूं।" इन्द्र ने विनयशीलता प्रकट की। ऋषि दध्यंच ने इन्द्र के विनीत भाव को करबद्ध प्रणाम किया।इन्द्र बोले, “महात्मन्! मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूंगा। वर मांगिए।" "मधवा! मुझे मधु विद्या प्रदान करें।" ऋषि ने कहा। मधु ! इन्द्र आश्चर्यकित हो गए। हां सुरेश्वर!" दध्यंच ने निश्चयात्मक स्वर में उत्तर दिया। इन्द्र के तेजस्वी मुखमंडल की आभा ने अपनी दृष्टि उतारते हुए गंभीर मुद्रा में कहा, “तपस्वी! यह दुर्लभ है।

"आपकी कृपा से सब कुछ सुलभ है।" ऋषि ने स्थिर स्वर में कहा। इन्द्र असमंजस में पड़ गए। वे मधु-रहस्य का उद्घाटन करना नहीं चाहते थे। कुछ देर ठहरकर बोले, "मैं मधु-रहस्य बतला सकता हूं, किंतु एक शर्त होगी। मुझे स्वीकार है।" ऋषि ने दृढ़तापूर्वक कहा। यह सुनकर इन्द्र किंकर्तव्यविमूढ़ गगन मण्डल की ओर देखने लगे। " क्या मैं शर्त जानने का अधिकारी हो सकता हूं।" ऋषि ने इन्द्र के मुख मण्डल पर दृष्टि स्थिर करते हुए कहा । इन्द्र आसन से उठे। उन्होंने अपने हाथ के वज्र को वायुमण्डल में घुमाते हुए कहा, “आप इस रहस्य का उद्घाटन करेंगे तो आपका मस्तक छिन्न हो जाएगा।यह सुनकर ऋषि की मुख-मुद्रा गंभीर हो गई। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा, "भगवन्! मुझे आपकी शर्त स्वीकार है। मैं उसका उल्लंघन नहीं करूंगा।"

इन्द्र ने ऋषि दध्यंच को मधु विद्या का उपदेश दिया। ऋषि उसे सहर्ष ग्रहण कर कृतार्थ हुए। फिर ऋषि से आज्ञा पाकर इन्द्र अपनी यात्रा पर निकल गए । तीनों लोकों में मधु विद्या का रहस्य कोई नहीं जानता था। देव, दानव तथा प्राणी सब इस रहस्य को जानने के इच्छुक थे। एक मात्र इन्द्र ही इस विद्या के जानने वाले थे, परंतु वे इस विद्या का उद्घाटन करना नहीं चाहते थे। दध्यंच ऋषि को इन्द्र ने मधु-रहस्य बता दिया है, इस बात की जानकारी अश्विनी कुमारों को हो गई। इन्द्र के कारण अश्विनी कुमार यज्ञ भागों से बहिष्कृत कर दिए गए थे। जिस कारण इन्द्र और अश्विनी कुमारों में वैमनस्य था। वे सोचते थे कि यदि मधु-विद्या का रहस्य उन्हें उद्घाटित हो जाए तो वे यज्ञों में भाग लेने का अधिकार प्राप्त कर सकेंगे। वे महर्षि दध्यंच के आश्रम में पहुँचे, महर्षि तपस्यारत थे। अश्विनी कुमारों को आश्रम में आया देख उन्होंने उनका पाद्य, अर्घ्य, आसन और मधुपर्क से स्वागत किया। अश्विनी कुमारो ! क्या मैं आपके शुभागमन का प्रयोजन जान सकता। हूं?" ऋषि ने आदर सहित प्रश्न किया।

अश्विनी कुमार बोले, “महात्मन्! एक विशेष प्रयोजन से हम आपके आश्रम में आए हैं। आपके द्वारा ही हमारे प्रयोजन की सिद्धि संभव है। यही हमारी कामना है। कुमारो ! अतिथि की कामना पूर्ण करना आतिथेय का परम धर्म है। ऋषि ने शांत स्वर में कहा ।

‘“निश्चय महात्मन्! यही प्राचीन परम्परा है।" अश्विनी कुमार प्रसन्नतापूर्वक बोले। आपके पास एक गुण है। हम उसके आकांक्षी हैं।" अश्विनी कुमारों ने कहा । वे बोले “देवगण! यदि मेरे पास कुछ है तो मैं उसे देकर कृतार्थ होऊंगा।" ऋषि अपने वाक्-चातुर्य को काम में लाते हुए अश्विनी कुमार बोले, “महात्मन्! हम आपसे गुणदान चाहते हैं। सामर्थ्य रहते कौन दाता दान करना नहीं चाहेगा।" ऋषि ने मुस्करात हुए कहा । आपके पास है।ऋषि कुमारों ने दोहराया। तो अवश्य दूंगा।" ऋषि ने सरल भाव से वचन दे दिया।

अश्विनी कुमार बोले, “महात्मन्! मधु रहस्य का उद्घाटन।

ऋषि सहसा हतप्रभ हो गए। उन्हें यह कल्पना भी नहीं थी कि अश्विनी कुमार इस रहस्य को जानते थे। ऋषि उदासीन होते हुए बोले, “मधु विद्या का रहस्य !”

ऋषिवर! इन्द्र ने आपको दिया है।" देवगण बोले । किंतु आपको कैसे ज्ञात हुआ ?" ऋषि ने आश्चर्य भाव के साथ पूछा। महात्मन्! आपके पास है। आपको हमारी याचना स्वीकार करनी होगी, क्योंकि आपने वचन दिया है।" अश्विनी कुमारों ने याचक भाव से निवेदन किया। ऋषि असमंजस में पड़ गए। उन्हें इन्द्र को दिया वचन याद आया। विषाद की रेखा मस्तिष्क पर छाने लगी। मुखमण्डल की छवि पर काली छाया उभरी। ऋषि की इस मानसिकता को देखकर अश्विनी कुमारों ने कहा, "महात्मन्! हमें ज्ञात हैं, इन्द्र ने आपसे वचन लिया है। उसका उल्लंघन करने पर आपका मस्तक छिन्न हो जाएगा, किंतु आपकी अकाल मृत्यु नहीं होगी। हम कुशल शल्य चिकित्सक हैं।' ऋषि की विषादपूर्ण निगाहें अश्विनी कुमारों को देख रही थीं। कुमार आगे बोले, “हमने उपाय निकाल लिया है। आपका मस्तक काटकर हम अलग रख देंगे। उसके स्थान पर अश्व का मस्तक लगा देंगे। आप अश्व के मस्तक से हमें मधु विद्या रहस्य का उद्घाटन करें। इन्द्र वज्र से हमारे द्वारा रोपित आपका अश्व मस्तक काट देंगे। और हम पुनः आपका मस्तक लगा देंगे।" यह सुनकर ऋषि गंभीर हो गए।

अश्विनी कुमार बोले, “महात्मन्! आपके वचन का उल्लंघन नहीं होगा क्योंकि आपने जिस मस्तक से वचन दिया है वह मस्तक मधु रहस्य का उद्घाटन नहीं करेगा। रहस्य का उद्घाटन अश्व मस्तक करेगा और वही दोषी होगा तथा उसे ही दण्ड भोगना होगा। आपका मानव मस्तक अछूता रहेगा। ऋषिवर! आपने हमारी याचना पूर्ति का वचन दिया है। आपका वचन भी

पूरा होगा और आप वचन भंग के दोषी भी नहीं होंगे तथा याचक का कार्य भी सम्पन्न हो जाएगा। महर्षि ने वचन पालन की युक्ति को सफल होते देखकर कहा, “कुमारो! मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है। अश्विनी कुमारों ने महर्षि दध्यंच का सिर छिन्न करके उस पर तुरंत अश्व का सिर काट कर जोड़ दिया। वे हयग्रीव के समान लगने लगे। फिर उन्होंने कुशासन पर बैठकर अश्विनी कुमारों को मधु विद्या रहस्य का उद्घाटन किया। अश्विनी कुमारों ने शिष्यवत् उसे ग्रहण किया। मधु रहस्य उद्घाटित होते ही इन्द्र का क्रोध जाग उठा। उन्होंने ऋषि के वचन उल्लंघन पर वज्र प्रहार किया। महर्षि चीत्कार कर उठे, अश्विनी कुमारो ! मेरा मस्तक छिन्न किया जा रहा है। अश्विनी कुमारों ने सांत्वना देते हुए कहा, “महात्मन् ! चिंता न कीजिए हम तैयार हैं।” वज्र प्रहार से ऋषि का अश्व मस्तक छिन्न हो गया। अश्विनी कुमारों ने अविलम्ब ऋषि के मानव धड़ पर ऋषि का मानव मस्तक रखकर जोड़ दिया।

ऋषि पूर्ववत् आचरण करने लगे। शल्य चिकित्सक अश्विनी कुमारों के अद्भुत शल्य कौशल को देखकर जगत आश्चर्यचकित हो गया। अश्विनी कुमारों ने ऋषि को नमस्कार करते हुए कहा, “आपने और हमने वचनों का पालन किया है। आप गौरव के पात्र हैं। हम अनुग्रहीत हुए। अश्विनी कुमारों ने ऋषि को श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। इस ऋषि ने प्रकार वचन पालन किया ।