असुर गय बने गया तीर्थ(बहुजन हिताय)
श्री ब्रह्मा जी जब सृष्टि की रचना कर रहे थे तो असुर कुल में “गय” का जन्म हुआ, असुर कुल में उत्पन्न होने के बाद भी उसमें आसुरी वृत्ति नहीं थी। वह परम वैष्णव तथा वेदज्ञ था। वेद संहिताओं में जिन असुरों का नाम आया है, उनमें गय प्रमुख है। एक बार उसकी इच्छा हुई कि वह अच्छे कार्य कर इतना पुण्यात्मा हो जाए कि लोग उसका दर्शन करके ही सब पापों से
मुक्त हो जाएं तथा मृत्यु के बाद उन लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति हो। इसी विचार से उसने कोलाहल पर्वत पर समाधि लगाकर श्री विष्णु जी की तपस्या करनी प्रारंभ की। अनेक वर्षों तपस्या रत रहने पर उसकी तपस्या दृढ़ होती गई। उसके कठोर तप से भगवान विष्णु प्रकट हुए और प्रभावित होकर गय की समाधि भंग करते हुए कहा, “महात्मन् गय, उठो! तुम्हारी तपस्या पूर्ण
हुई। किस उद्देश्य के लिए इतना कठोर तप किया ? अपना इच्छित वर मांगो।" गय ने नेत्र खोले तो देखा कि सामने चतुर्भुज भगवान विष्णु शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए खड़े हैं, गय ने उनको दण्डवत प्रणाम कर कहा, 'हे श्रीविष्णु! हे भगवन्! आपके चतुर्भुज रूप का दर्शन कर मेरे सब पाप दूर हो गए। मुझे ऐसा लगता है कि आप इसी रूप में मेरे अन्दर समा गए हैं। मेरी इच्छा है कि आप इसी रूप में निरंतर मेरे शरीर में वास करें तथा जो मुझे देखे, उसे मेरे बहाने आपके दर्शन का पुण्य मिले व उसके सभी पाप नष्ट हो जाएं और वह इतना पुण्यात्मा हो जाए कि मृत्यु के बाद उस जीव को स्वर्ग में स्थान मिले। मेरे इस तप का फल उन सबको प्राप्त हो जो मेरे माध्यम से आपके अप्रत्यक्ष दर्शन करें।"
गय की इस सार्वजनिक कल्याण-भावना से विष्णु बहुत प्रभावित हुए और हाथ उठाकर कहा, “तथास्तु" श्री हरिविष्णु से ऐसा आशीर्वाद पाते ही उसने उनके चरणों में प्रणाम किया । श्री विष्णु वरदान दे कर अंतर्धान हो गए। गय अब एक स्थान पर न बैठकर सर्वत्र घूम-घूमकर लोगों से मिलने लगा। उसका फल यह हुआ कि जो भी उसे देखता, उसी के पापों का क्षय हो जाता और वह मरणोपरांत स्वर्ग का अधिकारी हो जाता। इससे यमराज की व्यवस्था में व्यवधान आने लगा, किसी के कर्मफल का लेखा-जोखा किसी काम का रहा, क्योंकि अब गय के दर्शन होते ही सब पाप नष्ट हो जाते तथा जीव सीधा स्वर्ग का अधिकारी हो जाता, नरक और स्वर्ग की व्यवस्था के लिये मुश्किल खड़ी हो गई ।तब मृत्यू उपरांत के दंडाधिकारी यमराज ने ब्रह्माजी के सामने यह समस्या रखी। ब्रह्माजी ने कहा, "ठीक है, इसका कुछ उपाय करते हैं। कर्मफल का विधान बना रहना चाहिए। ब्रह्मा जी ने देवताओं
को एक यज्ञ का आयोजन गय की पींठ पर करने के लिए कहा जिसमें ब्रह्मा जी के साथ अन्य सारे देवता इसकी पीठ पर पत्थर रखकर उस पर बैठकर उसे अचल कर देंगे। फिर वह कहीं आ-जा न सकेगा।" ऐसा निश्चित करने के पश्चात गय को ब्रह्मा जी ने कहा कि हम सब देव तुम्हारी पीठ पर यज्ञ करना चाहते हैं, गय ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। कि उसकी पीठ पर यज्ञ हो, यह तो और भी पुण्य का काम है, तब ब्रह्मा यमराज सहित सारे देवताओं को लेकर उसे पत्थर से दबाकर उस पर बैठ गए। अपने ऊपर इतना भार होने पर भी गय अचल नहीं हुआ। देवगणों को चिंता हुई तो ब्रह्मा ने कहा, “इसे विष्णु ने वरदान दिया है, इसलिए बिना विष्णु की शक्ति के हम सब इसे अचल नहीं कर सकते। चलो हम सब मिलकर विष्णु का आवाहन करें तथा उन्हें भी इस पर अपने साथ बैठाएं तब यह अचल होगा। ब्रह्मा समेत सभी देवताओं ने विष्णु का आवाहन किया तथा अपनी और यमराज की समस्या बताई। विष्णु इस पर विचार कर जब सबके साथ उस पर बैठे तब कहीं जाकर वह अचल हुआ।
विष्णु को अपने ऊपर बैठा देखकर उसने देवताओं से कहा, "आप सब तथा भगवान विष्णु की मर्यादा के लिए मैं अब अचल होता हूं तथा घूम-घूमकर लोगों को दर्शन देकर जो उनका पाप क्षय करता था, उसको समाप्त करता हूं। पर आप सबके इस प्रयास से भगवान विष्णु का यह वरदान व्यर्थ नहीं जाएगा।
भगवन्! अब आप मुझे पत्थर-शिला के रूप में परिवर्तित कर यहीं अचल रूप में स्थापित कर दें। गय का यह मर्यादित त्याग देखकर विष्णु ने कहा, "तुम्हारा यह त्याग व्यर्थ नहीं जाएगा। इस अवस्था में भी तुम्हारी कोई इच्छा हो तो वह मांगो, मैं अवश्य उसे पूर्ण करूंगा। गय ने कहा, “नारायण ! अब अंतिम समय की इच्छा तो अंतिम जैसी ही होनी चाहिए। मेरी इच्छा है कि आप लोग अपरोक्ष रूप से इसी शिला पर बैठे रहें और यह स्थान मरणोपरांत धार्मिक-कृत्य के लिए तीर्थ बन जाए। जो लोग अपने पितरों-पूर्वजों का यहां श्राद्ध, तर्पण पिण्ड दान आदि करें, उन मृतात्माओं को नरक की पीड़ा से मुक्ति मिले। यह सारा क्षेत्र ऐसी ही पुण्य भूमि बन जाए। विष्णु ने कहा, “गय! तुम धन्य हो ! तुमने अपने जीवन में भी जन
कल्याण के लिए ऐसा ही वर मांगा और अब मरण-अवस्था में मृत आत्माओं की मुक्ति के लिए ऐसा ही वर मांग रहे हो। तुम्हारी इस जन-कल्याण भावना से हम सब बंध गए। तुम जैसा चाहते हो ऐसा ही होगा। इस क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्ध भाग ‘गया' नाम से प्रसिद्ध होगा। इस क्षेत्र में आने वाले एवं इस शिला के दर्शन कर के यहां श्राद्ध-तर्पण-पिण्डदान आदि करने वालों के पूर्वजों को जीवन में जाने-अनजाने किए गए सभी पाप कर्मों से मुक्ति मिलेगी। यहां स्थित पर्वत 'गयशिर' कहलाएगा।
गयशिर पर्वत की परिक्रमा, फल्गु नदी में स्नान तथा इस शिला का दर्शन करने पर पितरों का तो कल्याण होगा ही, जो यहां इस उद्देश्य से आएगा, उसके पुण्य में भी वृद्धि होगी।''
भगवान विष्णु से ऐसा वर पाकर गय संतुष्ट होकर शांत हो गया। बिहार प्रदेश में स्थित 'गया' पितरों के श्राद्ध पिण्ड दान का महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान है। यहां स्थित विष्णु मंदिर के पृष्ठ भाग में अभी भी पत्थर की एक अचल शिला स्थित है।
जो जन-कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित करते हैं उनका यश ऐसे ही चिरकाल तक स्थायी रहता है। जो केवल अपने लिए नहीं बल्कि समस्त विश्व के लिए जीते हैं, उनकी जन्म के साथ मृत्यु भी सार्थक होती हैं।