मनुष्य से देव बनने की यात्रा (कर्म की प्रधानता)
ऋभु, विम्बन और बाज तीनों भाई शिल्पकला सीखने की आकांक्षा लेकर गुरु त्वष्टा के पास आए। त्वष्टा शिल्पकला में निष्णात थे। उन तीनों ने अपनी इच्छा गुरु त्वष्टा से समक्ष प्रकट की। त्वष्टा सामान्य रूप से किसी को अपना शिष्य नहीं बनाते थे। अतः आदेश देते हुए बोले, “पहले शिल्पकला में अपनी रुचि पैदा करो।" गुरु की आज्ञा पाकर तीनों भाई शिल्पकला में रुचि लेकर दक्षता प्राप्त करने हेतु पूर्ण आस्था व परिश्रम के साथ तल्लीन हो गए। त्वष्टा भी अपने कुशल एवं निष्ठावान तथा परिश्रमशील तीनों शिष्यों को पाकर बहुत संतुष्ट थे। शीतल छायादार वृक्षों की छाया में काष्ठ (लकड़ी) की मूर्तियां बनाने में तीनों युवक कलाकार तल्लीन थे। सुन्दर-सुन्दर मूर्तियां बना- बनाकर वे अपनी मूर्तिशाला को सुसज्जित कर रहे थे। कर्तव्य के प्रति सजगता एवं तपोनिष्ठ जीवन ने उनमें आत्मविश्वास का भाव कूट-कूटकर भर दिया था। समीप में ही उनके परम गुरु त्वष्टा बैठे हुए थे। उन्होंने उन समस्त शिल्पकलाओं की शिक्षा में अपने शिष्यों को पारंगत कर दिया जिन्हें वे स्वयं जानते थे । कुशल ऋभु भ्राताओं ने अपनी शिल्पकला को कला निर्माण तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने पशु आकृतियों तथा मानवीय आकृतियों में भी दक्षता प्राप्त कर ली। त्वष्टा ने लकड़ी का चमस नाम का सोम पान करने वाला एक पात्र बनाया। उसे यह नाम त्वष्टा ने दिया था। पात्र अद्भुत एवं आकर्षक चित्रकारी से भरपूर था। देवगण इसकी ओर सहज आकर्षित हो जाते थे।और उन सभी की इच्छा थी कि वह चमस पात्र का उपयोग करें।
देवताओं ने विचार-विमर्श किया कि ऋभु बंधुओं से इस चमस के अनुकृति रूप अन्य चमस भी तैयार कराए जाएं। उन्होंने अग्नि को अपना दूत बनाकर ऋभुओं के पास भेजा। ऋभुओं ने अग्नि को देखा। वे उसके स्वागत में आगे बढ़े और श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। बैठने का आसन दिया और हाथ जोड़कर उनके आने का प्रयोजन पूछा। अग्नि ने कहा "ऋभुगण! मैं देवताओं के कार्य से यहाँ आया हूं। हमें आज्ञा कीजिए देव!'' ऋभुओं ने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहा।
अग्नि ने विनीत कुशल शिल्पकारों के तेजस्वी मुखमण्डल पर दृष्टि डालते हुए कहा, “ऋभुओ ! आपको मालूम है कि त्वष्टा ने एक चमस बनाया है।
हां, ज्ञात है महात्मन्!" ऋभुबंधु बोले। अग्नि ने ऋभुओं की काष्ठकला की प्रशंसा करते हुए कहा, “आप लोग उस चमस की चार प्रतियां निर्मित कर दीजिए। ऋभु नतमस्तक होते हुए बोले, "देव! यह अधिकार तो हमारे पूज्य गुरुदेव त्वष्टा को ही है। चमस उन्हीं के अनुरूप एवं अधिकारपूर्ण कृति है। उसकी अन्य प्रति बिना उनकी आज्ञा के हम लोग तैयार नहीं कर सकते। अग्नि ने गुरु त्वष्टा के प्रति उनके शिष्यों की इस विनयशीलता को देखा और प्रसन्न होकर बोले, "देवगणों ने आपके गुरु त्वष्टा से चमस की चार अनुकृति किए जाने की स्वीकृति प्राप्त कर ली है। महात्मन्! एक चमस से हम दो बना देंगे।" बड़े ऋभु ने कहा। नहीं... मुझे चार चाहिए।" अग्नि ने इच्छा प्रकट की। महात्मन्! मैं तीन बना दूंगा।" दूसरे ऋभु ने कहा।
अग्नि ने पुनः कहा, " आप चार ही बना कर दीजिए। अग्निदेव की तीव्र इच्छा देखकर तीसरे ऋभु ने विनीत स्वर में कहा, “महात्मन्! आपके एवं देवगणों के सम्मान में हम चार ही बनाएंगे।"
ऋभुगण हर्षित होकर अपनी कला में तल्लीन हो गए। उन्होंने चार चमस एक ही आकार-प्रकार एवं परम कला प्रदर्शन के तैयार कर दिए। चार चमस अग्नि को सौंपकर वे अत्यन्त हर्षित थे। उन्होंने अग्नि को नमस्कार करते हुए कहा, “हे मित्रस्वरूप अग्नि ! ये चार चमस बनकर प्रस्तुत हैं, इन्हें स्वीकार करें और हमें कोई और सेवा करने का अवसर प्रदान करें। अग्नि चमस प्राप्त कर प्रसन्न व्यक्त करते हुए ऋभुओं को आशीर्वाद में कहा, “ऋभुओ! आप लोग हस्तकला में कुशल हैं। अमरत्व प्राप्ति के मार्ग प्रशस्त हों।” इतना कहकर अग्नि ने प्रस्थान किया। वे चारों चमस लेकर त्वष्टा के पास गए। त्वष्टा अपने योग्य शिष्यों की हस्तकला देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने उन चमसों को ग्रहण किया।
ऋभुओं ने अश्विनी कुमारों के लिए तीन आसनों का दिव्य रथ बनाय उन्होंने इन्द्र के लिए दो अश्वों से चलने वाले शीघ्रगामी रथ का भी निर्माण किया। देवताओं के निमित्त अभेद्य कवच बनाए। अनेक गऊ व अश्व बनाए।
अपनी कार्य कुशलता से वे देवताओं के सन्निकट हो गए। कनिष्ठ ऋभु बाज देवताओं से, मध्यम ऋभु विम्बन वरुण से तथा ज्येष्ठ ऋभु इन्द्र से सम्बन्धित होकर स्वर्ग में विचरण करने लगे। इस प्रकार अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा के कारण वे देवता हुए। उन्होंने मानव के लिए देवत्व प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया। मानव अपने श्रेष्ठ कर्मों से देव बन सकता है, यह आशा मानवों में जाग्रत की। यद्यपि ऋभु विम्बन और बाज मनुष्य थे। तथापि अपनी कला साधना से देवताओं में स्थान प्राप्त कर यज्ञ के भाग का अधिकार भी प्राप्त किया। मानव देवताओं की पूजा करते हैं, परंतु अपने कर्म से वे स्वयं ही पूजित हो जाते हैं।