योग्यता की परख (उत्तराधिकारी का चुनाव)
एक समय राजा वृहद्रथ बहुत ही सुयोग्य तथा प्रजापालक राजा हुए ।वे स्वयं को राजा की अपेक्षा प्रजा का संरक्षक अधिक समझते थे। उनका राज्य धन-धान्य से भरपूर था तथा प्रजा सुखी थी। जब वे वृद्ध हुए तो सोचा कि राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त कर वे वानप्रस्थ आश्रम में जाकर शेष जीवन ईश्वर भक्ति में बिताएंगे। उनके तीन पुत्रों में नियम के अनुसार तो बड़े पुत्र को ही राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जा सकता था, पर तीनों पुत्रों में आपस में सहमति न होने तथा भिन्न-भिन्न गुणों के कारण वे निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि किसको उत्तराधिकारी बनाया जाए। उन्हें डर था कि यदि राजा योग्य न निकला तो प्रजा दुखी हो जाएगी। पड़ोसी राजा आक्रमण कर इस राज्य को ही हड़प लेंगे। इसी चिंता में वे घुले जा रहे थे।
अपने पुत्रों का व्यवहार तथा स्वभाव देखकर वे कुछ निर्णय नहीं ले पा रहे थे। उन्होंने मंत्रिपरिषद से सलाह की, मंत्रियों ने कहा, महाराज ! इसके बारे में हम क्या सलाह दें ? राज्य का उत्तराधिकारी आप जिसे चाहें उसे बनाएं। हम उसे ही अपना राजा मानकर उसके आदेशों का पालन करेंगे।" महाराजा वृहद्रथ ने कहा, "अगर वह राजा अविवेकपूर्ण आदेश देने लगे और उससे प्रजा का कष्ट बढ़ने की संभावना हो तथा राज्य अशक्त हो तो क्या तब भी आप उसके आदेश मानेंगे? अपने विवेक से उसे परामर्श नहीं देंगे ?" मंत्री ने कहा, “महाराज ! अगर वे चाहेंगे तो परामर्श देंगे, पर उनकी आज्ञा न मानने पर राजद्रोह के भागी होंगे। उस अपराध के कारण हमें प्राणदंड भी मिल सकता है।" राजा ने सोचा, 'फिर तो राज्य किसी सुयोग्य पुत्र को सौंपना होगा।' दरबार में साधु-महात्मा, ऋषि-मुनि आते रहते थे। उन्होंने विचार किया कि इसके बारे में किसी संत-महात्माओं से परामर्श करना चाहिए। एक दिन उन्होंने एक ऋषि को अपनी यह समस्या बताई। ऋषि एक गुरुकुल चलाते थे। उनके सुन्दर आश्रम में शिक्षार्थी शिक्षा तो पाते ही थे, वन्य प्राणी भी बड़े शांत भाव से रहते थे। बड़ा सुखद और शांत वातावरण था।
ऋषि ने कहा. "राजन् ! आपको प्रजा हित की अधिक चिंता है। ऐसे विचारशील राजा के पुत्रों में कोई सुयोग्य न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। चिंता न करें वैसे तो हर जीव अपने पूर्व जन्मकर्मों के अनुसार अपना संस्कार विचार लेकर आता है, पर अच्छी संगति और संस्कार इस जन्म में भी अपने आसपास से ग्रहण करता है। उत्तराधिकारी नियुक्त करने के लिए सही चयन में हम आपकी सहायता करेंगे । आप इन तीनों राजकुमारों को मेरे आश्रम में कुछ दिनों के लिए शिक्षा प्राप्त करने को भेज दें। कुछ दिन अपने पास रखकर मैं देखूंगा कि इनमें से कौन राज्य का श्रेष्ठ उत्तराधिकारी हो सकता है।"
महाराज को ऋषि का यह सुझाव अच्छा लगा। ऋषि के जाने के पश्चात राजा ने अपने तीनों पुत्रों से कहा, "तुम लोग कुछ दिन जाकर वन में ऋषि आश्रमों में रहकर वहां का भी अनुभव प्राप्त करो। ऋषियों के आश्रम हमारे ही राज्य की सीमा में आते हैं। वहां के लोगों के बारे में भी जानो-समझो। तभी तो अपनी समस्त प्रजा की देखभाल कर सकोगे।"
राजकुमारों ने यह सुना तो हिचकिचाए। राजकुमार बोले, "जंगल में ऋषि-मुनि, साधु-संत हैं, यह तो ठीक है, पर जंगली जानवर भी तो बहुत होते हैं। हमें तो राजा होकर यहीं रहना है। साधु-महात्मा तो यहां आते ही रहते हैं। उनके बारे में हम यहीं जान जाएंगे। जंगल में जानवरों के बीच हमारा क्या काम?" महाराज ने समझा-बुझाकर तीनों राजकुमारों को उन्हीं ऋषि के आश्रम में भेज दिया। ऋषि ने राजकुमारों को बड़े प्रेम से अपने आश्रम में स्थान दिया तथा उन्हें इस शांत-सुखद वातावरण में कुछ दिन बिताने का परामर्श दिया। राजकुमार जैसे-तैसे दिन बिताने लगे। एक दिन ऋषि ने एक शिष्य को बुलाकर कहा कि तीन जंगली कुत्तों को एक दिन भूखा रखो। दूसरे दिन जब तीनों राजकुमार खाने बैठें तो उन कत्तों को उनके सामने छोड़ देना। शिष्य ने वैसा ही किया। दूसरे दिन जब राजकुमार खाना खाने बैठे तो शिष्य ने उन भूखे कुत्तों को बाड़े के बाहर कर दिया। कुत्ते भूखे तो थे ही, राजकुमारों के पास खाना देखकर उधर ही लपके। भूखे खूंखार कुत्तों को अपनी तरफ आते देख बड़ा राजकुमार तो थाली लेकर किसी सुरक्षित स्थान की ओर भागा। दूसरा राजकुमार एक डंडा उठा लाया और उससे कुत्तों को डराकर जल्दी-जल्दी अपना सारा खाना खा लिया। तीसरे राजकुमार ने जब भूखे कुत्तों को अपनी ओर आते देखा तो वह तनिक भी नहीं घबराया। उसने अपने खाने में से थोड़ा-सा रोटी का टुकड़ा भूखे कुत्तों की ओर फेंक दिया। अब तीनों कुत्ते उसमें उलझ गए और वह निश्चित बैठकर भोजन करता रहा। थोड़ा-थोड़ा टुकड़ा कुत्तों को देकर वह उन्हें उलझाए रहता और खुद शांत भाव से भोजन कर तृप्त हुआ। राजकुमारों का यह कौतुक ऋषि देख रहे थे। तीनों राजकुमारों का अलग-अलग व्यवहार देखकर उन्हें हंसी आई। सोचा, तीनों राजकुमार एक ही राजा की संतान हैं। एक ही परिवेश में पले-बढ़े हैं, पर तीनों के गुण-धर्म अलग-अलग हैं। यही अंत:करण का संस्कार है। उन्होंने तीनों राजकुमारों को राजा के पास भेज दिया और एक दिन राजा को बुलाकर कहा, “राजन्! मैंने आपके तीनों पुत्रों की परीक्षा ले ली है, आपका सबसे छोटा पुत्र आपका सही उत्तराधिकारी होने के योग्य है । वह राज्य तथा प्रजा दोनों की प्रतिष्ठा बढ़ाएगा। बड़ा राजकुमार कायर है। वह समस्या का सामना करने की बजाए अपनी जान बचाकर भागेगा। मंझला राजकुमार लालची है। वह स्वयं ही सबकुछ भोगना चाहेगा। वह दूसरों को भयभीत कर अपनी ही सुख-सुविधा देखेगा। प्रजा उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं। तीसरा राजकुमार धैर्यवान है, साहसी है। समस्या का सामना वह सूझबूझ से करेगा। अपनी सुख-सुविधा के साथ प्रजा की भी सुख-सुविधा का ध्यान रखेगा। राजधर्म तथा प्रजा-धर्म दोनों को वह बुद्धि कौशल से पूरा करेगा। उसको उत्तराधिकारी बना देने पर राज्य भी सुरक्षित रहेगा, प्रजा भी सुखी रहेगी तथा अन्य राजकुमार विद्रोह का साहस भी नहीं कर पाएंगे।”