लम्बी उम्र का जीवन दर्शन (सत्कर्म का यश)


लम्बी उम्र का जीवन दर्शन (सत्कर्म का यश)



पांडवों को उनके वनवासकाल में ऋषि मार्कण्डेय ने अनेक कथाएं सुनाई थीं। एक बार ऋषि मार्कण्डेय से पांडवों ने पूछा, "आप किसी ऐसे को जानते हैं जो आपसे भी लम्बी उम्र का हो?" ऋषि ने कहा, "एक बार प्रसिद्ध राजर्षि इन्द्रद्युम्न, जिन्हें स्वर्ग से इसलिए निकलना पड़ा था कि इस संसार में उनके सुकर्मों का यशगान होना बंद हो गया था, मेरे पास आकर पूछने लगे कि महाराज! आपने मुझे पहचाना? मैंने उत्तर दिया कि हम वनवासी रमते साधु, जिन्हें यही याद नहीं रहता कि उन पर क्या गुजर रही है, भला आपको क्या जानें ? हां, मुझसे अधिक आयु वाला प्रवरकर्ण नाम का एक उलूक, जो हिमालय पर्वत के एक प्रसिद्ध रास्ते के पास रहता है, वह शायद आपके बारे में जानता हो। तब इन्द्रद्युम्न घोड़ा बनकर मुझे मेरे दिखाए मार्ग के अनुसार उस उलूक के पास ले गए।राजा उलूक से पूछा, "महाशय ! क्या आप मुझे जानते हैं?” उलूक ने कुछ देर सोचकर कहा कि वह उन्हें नहीं जानता। इन्द्रद्युम्न ने उलूक से पूछा, "क्या आपसे बड़ी उम्र वाला कोई और जीव को आप जानते हैं ?" उलूक ने कहा, "इन्द्रद्युम्न नाम की एक झील है जिसके किनारे पर नदीजंघ नाम का एक सारस रहता है। वह मुझसे भी अधिक उम्र का है। शायद वह जानता हो।"

इन्द्रद्युम्न मुझे और उस उलूक को अपनी पीठ पर बैठाकर झील तक ले गया। हमने सारस से पूछा कि क्या वह राजा इन्द्रद्युम्न को जानता है। सारस ने कुछ देर सोचकर उत्तर दिया कि वह नहीं जानता। हमने पूछा कि वह अपने से भी लम्बी उम्र वाले किसी को जानता है ? उसने कहा कि उसी झील में अक्सर

नाम का एक कछुआ रहता है जो उससे भी बड़ी उम्र का है संभव है कि कछुवे को राजा की याद होगी। सारस ने कछुए के पास जाकर कहा, "कुछ लोग तुमसे कुछ पूछने आए हैं, कृपा करके जरा बाहर आ जाओ। कछुआ पानी से निकलकर हमारे पास पहुंच गया। हमने पूछा, "महाशय, आप राजा इन्द्रद्युम्न को जानते हैं ?" उसने कुछ देर सोचा, फिर इतनी पुरानी बात याद करते-करते उसकी आंखों में आंसू आ गये, तथा हाथ बांधकर अक्सर कछुवे ने कहा. " भला मैं राजा इन्द्रद्युम्न को कैसे भूल सकता हूं। यही तो वह जगह है, जहां उन्होंने यज्ञों की वेदी एक हजार बार गाडी थी और यह झील भी राजा की दान दी हुई असंख्य गायों के विचरने से बनी थी, और मैं भी तभी से इस झील में रहता आ रहा हूं।"

ज्योंही कछुवे ने इतने शब्द कहे कि एक दैवी रथ देवलोक से वहां पहुंच गया और इन्द्रद्युम्न को यह आकाशवाणी सुनाई पड़ी कि राजा उस रथ में आकर बैठें और चाहे जिस लोक में चले जाएं। उस आकाशवाणी ने वह पुरानी कहावत भी दुहरा दी कि जब तक किसी मनुष्य के सुकर्मों को इस लोक और सुरलोक में याद करके उनका बखान किया जाता है, तब तक वह स्वर्ग में रहता है और जब तक किसी का अपयश इस संसार में फैला रहता है, तब तक वह अधम जीवन के मल में लोट लगाया करता है, अतः मनुष्य को सदा पुण्यकर्म करने चाहिए और पापों से दूर रहना चाहिए। यह सुनकर राजा इन्द्रद्युम्न ने उस कछुवे, सारस और उलूक को धन्यवाद दिया। नदीजंघ, प्रवटकर्ण और मुझे वापस हमारे स्थानों पर पहुंचा दिया और स्वयं देव-वाहन में सुरलोक को चले गए।

मार्कण्डेय ऋषि ने बताया कि इन तीनों की उम्र मुझसे भी लम्बी है। इस प्रकार पाण्डवों के प्रश्न का उत्तर देकर उन्हें मरने के बाद के जीवन-दर्शन का पूरा ज्ञान ऋषि ने प्रदान किया।