गोधन में प्रियता (वीरांगना इन्द्रसेना)


गोधन में प्रियता (वीरांगना इन्द्रसेना)



तपस्वी मुद्गल अपनी पत्नी इन्द्रसेना के साथ बहुत प्रसन्न थे। अपने पशुओं से उन्हें बहुत प्रेम था। वे वन के मध्य स्थित मैदानी भाग में अपने पशुधन के साथ रहा करते थे। तपश्चर्या और पशु धन की सेवा-सुश्रूषा में दोनों व्यस्त रहते। ऋषि मुद्गल दिन भर जंगल में अपने पशुओं को चराते। ऋषि पत्नी इन्द्रसेना उनकी अनुपस्थिति में पशुओं के बच्चों की देख-रेख करती थी। प्रसन्न एवं स्वस्थ पशुओं को देख-देखकर इस दम्पतिके आनंद की सीमा नहीं रहती।

उनके जीवन में एक दिन ऐसी घटना घटी कि अचानक तूफान आ गया हो। प्रतिदिन की भांति ऋषि मुद्गल ने रात्रि विश्राम के पहले अपनी गायों एवं वृषभों को बाड़े में बंद कर दिया और पत्नी के साथ कुटिया में सो गए। प्रातः जब आकर बाड़े में देखा तो उनका दिल ही बैठ गया। चोर एक बूढ़े बैल को छोड़कर शेष समस्त पशुधन को चुराकर ले गए। मुद्गल व्यथित हो अपने मस्तक से हाथ लगाकर निःसहाय की तरह बाड़े के द्वार पर ही बैठे रह गए। उनकी पत्नी को यह सब देखकर बहुत चिंता हुई। किंतु उसके साहसी मन ने इस घटना का सामना करने का मन बना लिया। तुरंत ही पति को साहस दिलाते हुए कहा, "स्वामी, चिंता करने से कोई लाभ नहीं है। हमें अपने पशुओं की खोज करनी है। एक वृद्ध वृषभ तो हमारे पास है। उसी की मदद से हम अपहर्ताओं का पीछा करेंगे।""

अपनी पत्नी इन्द्रसेना की ओजस्वी वाणी सुनकर ऋषि मुद्गल में परिस्थिति से सामना करने का उत्साह उत्पन्न हुआ। वे बोले, “इन्द्रसेना! पशुओं को वापस लाने के लिए क्या किया जाए ?" इन्द्रसेना तत्परता से बोली, “स्वामी! हम अपने पशु वापस लाकर रहेंगे। हमें पशुओं के पैरों के निशानों के साथ खोज करते हुए उनका पीछा करना होगा। हम उनको अवश्य खोज लेंगे।"पत्नी के साहसपूर्ण शब्दों ने मुद्गल में आशा की किरण जगा दी। उन्होंने वृद्ध बैल को खूंटे से खोला। उसे अपने साथ लेकर अपहृत पशुधन को वापस लेने के लिए चलने का निश्चय किया। उनमें चोरों का सामना करने का साहस दिखाई देने लगा। इन्द्रसेना ने अपने पति की अपूर्व चेतना देखी और देखा पशुओं के प्रति अपार प्रेम। इन्द्रसेना उनके साथ सक्रिय सहायता के लिए तैयार हो गई।

मुद्गल ने बुढे बैल को रथ में जोतकर चोरों का पीछा करने की योजना की कठिनाइयों एवं चोरों से मुकाबला होने की स्थिति से कतई चिंतित नहीं थे। हथियार के नाम पर उनके हाथ में केवल एक दूधण था।

मुद्गल ने रथ को रवाना करने से पूर्व उसका परीक्षण किया। उसमें मार्ग  की कठिनाइयों का पूर्वाभास करते हुए रथ के पहियों को चारों ओर से मजबूती से बांधा। रथ के अन्य अवयव भी देखे। उन को भी चमड़े के रस्सों से बांधकर मजबूत किया।

इन्द्रसेना बैल को लेकर रथ के समीप आई। बूढ़े बैल में शक्ति की कमी नहीं थी। जंगल के हरे-भरे घास के सेवन ने उस पर बुढ़ापा नहीं आने दिया था। उसमें शिथिलता भी नहीं थी, उसकी गति भी तीव्र थी। उसके दृढ़ एवं पुष्ट शरीर से लगता था कि वह अभी भी अपने सींगों से मिट्टी के ढेर को ढहा सकता है।

बैल को रथ से जोत दिया गया। इन्द्रसेना ने बड़े ही उत्साह के साथ सारथी का स्थान ग्रहण किया। उसने बैल की रस्सी संभाली। इन्द्रसेना की मुखमुद्रा यह बता रही थी कि वह अपने पशुधन को चोरों से अवश्य वापस लेकर रहेगी।

ऋषि मुद्गल भी रथ पर सवार हो गए और बैल को चलने का इशारा किया। इन्द्रसेना ने कुशल सारथी की भांति उसकी रस्सी ढीली छोड़ी और रथ पवन वेग से दौड़ता हुआ तस्करों के पीछे चल पड़ा। इन्द्रसेना चतुर सारथी की तरह रथ को चला रही थी। वह उत्साहवर्धक शब्दों के साथ वृषभ में गति पैदा कर रही थी। मौन साधक वृषभ अपने सहयोगी पशुधन से मिलने के लिए उत्साहित दिखाई दे रहा था। अत्यन्त सीमित शक्ति, साधन तथा साहस के कारण तीनों प्राणी मार्ग की कठिनाइयों को नकारते हुए आगे बढ़ते रहे। ऋषि मुद्गल रथ पर ही खड़े हो गए। उन्होंने अपनी दृष्टि को फैलाते हुए बहुत दूरी पर पशुधन के साथ चोरों को देखा। उनके मन में विजय प्राप्ति हेतु उत्साह उमंगें ले रहा था। इन्द्रसेना अपने अपूर्व रथ कौशल के कारण रथ को तीव्र गति दे रही थी। ऊबड़-खाबड़ जमीन पर कहीं रथ का पहिया ऊंचा व कहीं नीचा होते हुए सरपट दौड़ रहा था। थोड़ी ही देर में रथ चोरों के पास पहुंच गया। उनके सामने पशुधन के स्वामी खड़े थे। चोर यह देखकर आश्चर्यचकित हो गए। मुद्गल के हाथ में उनका एक मात्र हथियार दूधण था। साधनहीन, विचित्र किंतु साहसी दम्पत्ति को देखकर चोरों के हौसले पस्त हो गए। उन्हें पशुधन को छोड़कर भागने के अतिरिक्त कोई और उपाय नहीं सूझा। वे वहां से भाग खड़े हुए।

ऋषि मुद्गल को अपना अपहृत पशुधन मिल गया। वे बहुत प्रसन्न थे। उन्हें अपनी पत्नी के साहस पर गर्व था। उधर वृद्ध वृषभ गायों के साथ प्रसन्न दिख रहा था। इन्द्रसेना वृषभ पर स्नेह से हाथ फेर रही थी। जगत ने मंत्रदृष्टा मुद्गल की ब्रह्मवादिनी स्त्री का अपूर्व वीरत्व देखा और ऋषि ने मुदित होकर अपना काम सार्थक किया। सच है - 'साहस में ही विजय है।'