कुसंग का दुष्परिणाम
प्राचीनकाल में चंद्रवंश में धर्मकीर्ति नामक एक राजा हुए थे। वे बड़े ही बुद्धिमान और पुण्यकर्मा थे। उनके प्रजापालन में कोई त्रुटि नहीं थी। वैदिक मार्ग का अनुसरण करना उनका सहज स्वभाव था। वे समय-समय पर यज्ञों का आयोजन भी करते रहते थे। ऐसे गुणवान राजा का ऐश्वर्य सम्पन्न होना स्वाभाविक ही था। परंतु कोई पुरुष अत्यन्त धैर्यवान, दयालु, सद्गुणी, सदाचारी, नीति, कर्त्तव्यनिष्ठ और गुरु का भक्त अथवा विद्या - विवेक सम्पन्न भी क्यों न हो, यदि वह निरंतर अत्यन्त पापबुद्धि दुष्ट पुरुषों का संग करेगा तो अवश्य ही उन्हीं की बुद्धि से प्रभावित होकर उन्हीं के समान हो जाएगा। इसलिए सदा ही दुष्ट पुरुषों का संग त्याग देना चाहिए। उपयुक्त नीतियुक्त वचन का पालन न करने से राजा धर्मकीर्ति का भी पतन हो गया था।
राजा धर्मकीर्ति के कोष में धन की कोई कमी न थी। दुराचारी- पाखंडियों की दृष्टि तो सदैव धन पर ही रहती है। उन्होंने राजा धर्मकीर्ति पर भी अपना चक्र चलाया। पाखण्डी लोग बार-बार राजा को यह समझाते कि यज्ञ आदि सत्कर्म करने से क्या लाभ? केवल मौज से रहो, उस कुचक्र से बचना तो केवल उनके संग के त्याग से ही संभव था, परन्तु राजा धर्मकीर्ति मोहवश उन पाखंडियों का संग त्याग न कर सके और उनके कुचक्र के शिकार हो गए। कुसंग के कारण राजा को धर्मपथ से च्युत होते देर न लगी। उन्होंने धीरे-धीरे यज्ञ आदि सत्कर्म बंद कर दिए। पाखंडियों के दुःसंग से राजा की पाप कर्मों के प्रति घृणा नष्ट हो गई और अंत में वे पाप कर्मों में संलिप्त रहने लगे ।
राजा की देखादेखी प्रजा में भी अधर्म की वृत्ति बढ़ने लगी। राजा धर्मकीर्ति अनेक प्रकार के दुर्व्यसनों के शिकार हो गए, जिनमें एक आखेट करने का दुर्व्यसन भी था। एक दिन आखेट के समय धर्मकीर्ति अपनी सेना से बिछुड़कर अकेले ही जंगल में भटक गए। भटकते-भटकते वे नर्मदा के तट पर पहुंचे और नदी के निर्मल जल में प्रवेश कर उन्होंने अपनी थकान दूर की संध्या हो गई थी और अंधेरा होने लगा था, अतः राजा भय से आगे नहीं बढ़े और वहीं नर्मदा के तट पर विश्राम करने लगे। संयोगवश उस दिन एकादशी तिथि थी। नर्मदा तटवासी एकादशी व्रती थे। वे लोग वहीं नर्मदा के किनारे रात्रि जागरण करने के लिए एकत्र हुए। दिनभर के निराहारी राजा के नेत्रों में नींद कहां थी। वे भी तटवासियों के साथ रात्रि जागरण में सम्मिलित हो गए और रात्रिभर भजन-कीर्तन में लगे रहे। राजा धर्मकीर्ति भूख की व्यथा सहन न कर सके, जिससे प्रातः काल होते-होते उनके प्राण निकल गए। उनके प्रारब्ध में यही लिखा था। प्राणों के निकलते ही धर्मकीर्ति को यमदूतों ने आ घेरा और वे उन्हें यमराज के पास ले गए। विधान का लेखा रखने वाले चित्रगुप्त ने बताया, “देव! यद्यपि राजा धर्मकीर्ति ने बहुत-से पाप कर्म किए हैं, परंतु अंतिम दिन इन्होंने एकादशी के उत्तम व्रत का पालन करके रात्रिभर जागरण तथा भजन-कीर्तन करते हुए प्राणों का त्याग किया है। अतः इनके सभी पापों का क्षय हो गया है। पापों के क्षय वाले व्यक्ति का यमलोक में क्या काम ? वह तो उत्तम लोक का भागी होता है।"
यमराज ने धर्मकीर्ति को साष्टांग प्रणाम किया और अपने दूतों को सावधान करते हुए उन्हें आदेश दिया, "जो भगवत्पूजा में तत्पर, धर्मपरायण, गुरुजन सेवक, वर्णाश्रमोचित आचारनिष्ठ, दीनरक्षक, एकादशी व्रती, मृत्युकाल में भजन-कीर्ति में तल्लीन, भगवत्कथामृत के सेवी, सम्पूर्ण कर्मों को भगवान को अर्पण करने वाले, ब्राह्मण भक्त, सत्संगी और अतिथि सत्कार के प्रेमी हों, ऐसे व्यक्ति सदैव उत्तमलोक के अधिकारी होते हैं, अतः उन्हें स्वर्गलोक भेज देना चाहिए।"
इस निर्णय के अनुसार राजा धर्मकीर्ति को स्वर्गलोक भेज दिया गया। वहां बहुत काल तक स्वर्ग के भोग भोगकर पुण्य क्षीण होने पर उन्होंने पुनः इस पृथ्वी पर सत्यपरायण, धर्मात्मा मुनि गालव के यहां जन्म लिया। उनका नाम हुआ भद्रशील।
बालक भद्रशील में बड़े अद्भुत गुण थे। भगवान् विष्णु का ध्यान-भजन-चिन्तन यही उस बालक का स्वभाव था। बालकपन में ही उसने अपने मन और 'इंद्रियों को वश में कर लिया था। खेल-ही खेल में वह मिट्टी से भगवान विष्णु की प्रतिमा बनाकर उनका पूजन किया करता था। भद्रशील ने अपने साथी बालकों को भी भगवान विष्णु का पूजन-आराधन करना सिखा दिया था। साथी बालक भी खेल में भगवान विष्णु की प्रतिमाएं बनाया करते और उनका पूजन करते । भद्रशील स्वयं एकादशी व्रत का पालन करता था, अतः उसकी देखादेखी उसके साथी बालक भी एकादशी व्रत का पालन करना सीख गए थे।
भद्रशील शास्त्र निषिद्ध कर्मों से सदैव दूर रहता था। उसकी किसी में ममता आसक्ति नहीं थी, अतः वह सुख-दुख आदि द्वन्द्वों से रहित था। भद्रशील अपने आचरण से कभी किसी को भी दुख नहीं देता था। वह सर्वदा दूसरों के हित सम्पादन का ही ध्यान रखता था। उसमें विलक्षण गुण थे। उसकी प्रार्थना ही ऐसी होती थी- 'प्रभो! आप विश्व के सभी प्राणियों का कल्याण करें।'जैसा भद्रशील का नाम था, वैसे ही उसमें गुण भी थे और उसकी भगवद्भजन-ध्यान की तत्परता प्रेरणास्पद थी।
भद्रशील के शैशवकाल के मंगलमय चरित्र ने सभी को विस्मय में डाल रखा था। यहां तक कि उसके पिता मुनि गालव भी अपने बालक के चरित्र से विस्मित थे। ऐसा पावन चरित्र महापुरुषों की सेवा से ही सुलभ हो सकता है, परंतु मुनि गालव ने कभी भी भद्रशील को महापुरुषों की सेवा करते नहीं देखा था। मुनि गालव अपनी इस पहेली को सुलझा नहीं सके और अन्त में उन्होंने बालक से बड़े प्यार से पूछा, "वत्स! तुम्हें यह योगी-दुर्लभ बुद्धि कहां से और कैसे प्राप्त हुई है ?"
बालक भद्रशील अपने आदरणीय पिता से यह रहस्य छिपा नहीं सके। वे जातिस्मर तो थे ही। उन्होंने अपने पूर्वजन्म के राजा धर्मकीर्ति होने का पूरा विवरण अपने पिताजी से कह सुनाया कि किस तरह वे दुःसंग में पड़कर भ्रष्ट हुए और पुनः एकादशी व्रत एवं मृत्यु के समय भजन-कीर्तन करने से पापों से मुक्त होकर इस योनि को प्राप्त हुए। बालक भद्रशील ने अपने पिता से शास्त्रोचित पूजन के विधि-विधान का अध्ययन किया। मुनि गालव ऐसे योग्य बालक को पाकर अपने जीवन को सार्थक मानते थे। भगवद्भक्त भद्रशील ने अपने सम्पूर्ण कुल को पवित्र कर दिया- यह सत्य है कि जिस कुल में भक्त जन्म लेता वह धन्य है और पूजा के योग्य होता है ।