कौत्स की गुरु दक्षिणा (साईं थोड़ा राखिए)
प्राचीन काल में महर्षि वर्तन्तु के गुरुकुल में कौत्स नामक एक विद्यार्थी था। गुरुकुल से शिक्षा समाप्त कर जब कौत्स जाने लगा तो गुरु को प्रणाम कर बोला, "गुरुदेव ! आपकी कृपा तथा आशीर्वाद से मैंने शिक्षा पूरी कर ली। अब गुरु-दक्षिणा के लिए आज्ञा दें। आचार्य आशीर्वाद देते हुए बोले, "वत्स कौत्स ! तुम गुरुकुल के मेधावी छात्र रहे हो । मेरा आशीष है, तुम जीवन तथा समाज का विकास करने के लिए अपनी शिक्षा का उपयोग करो। कौत्स सिर झुकाकर बोला, "मैंने आपके आश्रम में रहकर इतने दिनों तक जीवन बिताया तथा गुरुकुल में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण की। इसके लिए मुझे गुरु-दक्षिणा की आज्ञा दीजिए। गुरु-दक्षिणा देकर मुझे बड़ा संतोष होगा। महर्षि वर्तन्तु मना करते रहे, मगर कौत्स ने जब बार-बार गुरु दक्षिणा देने के लिए हठ किया तो महर्षि ने कहा, “एक सहस्र स्वर्ण मुद्राएं मेरी गुरु-दक्षिणा होगी, दे सकते हो ?"
कौत्स ने आज्ञा स्वीकार करते हुए कहा, “आप आशीष दें गुरुदेव! अवश्य लाऊंगा।” यह कहकर कौत्स एक हजार स्वर्ण मुद्राएं लाने के लिए आश्रम से चल पड़ा। इतनी स्वर्ण मुद्राएं कहां से मिलेंगी, यह विचार करते हुएवह चला जा रहा था कि ध्यान आया, कोशल नरेश महाराज रघु से ही उसे इतनी मुद्राएं मिल सकती हैं। उसने महाराज रघु के दरबार में जाने का निश्चय किया। कुछ दिनों की यात्रा के पश्चात् जब वह महाराज रघु के राज-द्वार पर पहुंचा तो देखकर हैरान रह गया कि महाराज ने मिट्टी के पात्र में जल लेकर कौत्स का अभिषेक किया। यह संयोग की बात थी कि महाराज रघु कुछ देर
पहले ही सर्वमेध यज्ञ करके उठे थे और अपना सर्वस्व दान कर चुके थे। यज्ञ के ब्राह्मण तथा पुरोहित विदा हो चुके थे। राज्यकोष खाली हो चुका था। मिट्टी के पात्र में जल लेकर महाराज रघु को अभिषेक करते देख कौत्स को बड़ा दुख हुआ। वह स्थिति समझ गया। आशीष के लिए अपना हाथ उठाकर उदास मन से चलने लगा। रघु ने पूछा, "विप्रवर! उदास क्यों हो? कहो कैसे आगमन हुआ ?" कौत्स बोले, "कुछ नहीं महाराज! में असमय आपके पास आया।रघु बोले, "विप्रवर! रघु के द्वार पर आने वाला खाली हाथ नहीं जाता, उसका दुर्भाग्य चला जाता है। संकोच मत करो अपने आगमन का उद्देश्य कहो।"
"मुझे एक हजार स्वर्ण मुद्राएं गुरु-दक्षिणा चुकाने के लिए चाहिए थीं। खैर, आप चिंता न करें। मैं कहीं और से प्रबन्ध करूंगा।" कौत्स ने निराश होकर कहा।
"कौत्स ! निराश मत होओ। रघु का राजकोष खाली हुआ है। पौरुष अभी शेष है। तुम अतिथिगृह में विश्राम करो। तुम्हारे लिए गुरु-दक्षिणा का प्रबंध कल हो जाएगा।"
कौत्स अतिथिगृह में विश्राम करने चला गया और रघु अपने दरबार में जाकर विचार करने लगे कि अतिथि की मांग कैसे पूरी की जाए ? वे राज्यकोष, निजी कोष तथा आभूषण आदि सब दान कर चुके थे। कुछ भी न था, जो कौत्स को गुरु-दक्षिणा के लिए दिया जाता। उन्होंने अपने मंत्रियों को बुलवाया और उनके सामने यह प्रश्न रखा। मगर वे भी क्या उत्तर देते! कहां से देने को कहते ? बहुत विचार करने के बाद अंत में उन्होंने अपने सेनापति को बुलवाया और कहा, “सेनापति ! कौत्स नामक एक मेधावी विद्यार्थी अपनी शिक्षा समाप्त कर चुका है। गुरु-दक्षिणा चुकाने के लिए उसे एक हजार स्वर्ण मुद्राओं की आवश्यकता है। कल उसे एक हजार स्वर्ण मुद्राएं देनी हैं।" सेनापति ने कहा, "महाराज! जैसी आज्ञा दें।"
"सेना को तैयार करो। कल प्रातः कुबेर पर चढ़ाई करके उनके कोष से मुद्राएं ली जाएंगी।" रघु ने सेनापति को आदेश दिया। जो आज्ञा।" कहकर सेनापति चला गया। रघु भी निश्चित होकर राजमहल में चले गए। मगर रघु के इस निर्णय की खबर फैलते फैलते देवलोक तक जा पहुंची। जब कुबेर ने यह सुना कि उनके ही कोष पर हमला करने का निश्चय रघु ने किया है, तो खलबली मच गई। रघु के बल - पराक्रम से देवलोक भी कांपता था। एक कहावत है कि "सारी जाती देखकर आधी देवे बांट।" कुबेर ने अपने साथियों से विचार कर तत्काल निर्णय किया कि रघु के हमला करने से पहले ही रघु की राजधानी पर स्वर्ण की वर्षा कर दी जाए। बस, फिर क्या था। रात ही रात कोशल की राजधानी अयोध्या नगर पर स्वर्ण वर्षा कर दी गई। प्रातः काल जब महाराज रघु उठे तो देखा कि चारों ओर स्वर्ण मुद्राएं बिखरी पड़ी हैं। मंत्री दौड़ा आया, "महाराज! आश्चर्य है कि सारी रात स्वर्ण बरसता रहा। लगता है, आपके पुण्य प्रताप से प्रभावित होकर देवराज इन्द्र ने यह कृपा की है।"
यथा समय सब राज दरबार में उपस्थित हुए। स्वर्ण मुद्राओं का अम्बार लगा दिया गया था। कौत्स को बुलवाया गया। कौत्स जब दरबार में उपस्थित हुआ तो महाराज रघु ने आदर से आसन देते हुए कहा, "कौत्स ! यह जो स्वर्ण की ढेरी लगी है, यह सब तुम्हारे लिए है। इसे स्वीकार करो।"कौत्स स्वर्ण की विशाल ढेरी को आश्चर्य से देखते हुए बोला, “महाराज! मुझे तो केवल एक हजार स्वर्ण मुद्राएं चाहिए। मैं इन सबका क्या करूंगा?” पर यह सब तुम्हारे लिए ही आया है, तुम्हारे ही कारण आया है, इसलिए यह सब तुम्हारा है। इसे राजकोष में नहीं रखा जा सकता।"
कौत्स बोला, “महाराज ! मुझे स्वर्ण की चाह नहीं है। मुझे तो गुरु-दक्षिणा चुकाने के लिए एक हजार मुद्राओं की ही आवश्यकता है। आवश्यकता से अधिक लेना लोभ है। लोभ से अधर्म होता है। इसलिए राजन्! मुझे पाप में न डालिए। मुझे तो आवश्यकता भर ही चाहिए।"अद्भुत धर्म-संकट था। देने वाला याचक के निमित्त आया सारा स्वर्ण देने के लिए आग्रह कर रहा था, पर लेने वाला अपनी आवश्यकता से एक कण भी अधिक नहीं लेना चाहता था। देने वाले को न तो बचा लेने का लोभ था, और लेने वाले को भी सब लेने का मोह नहीं था। स्वर्ण की यह चकाचौंध न तो राजकोष खाली हुए राजा को लुभा सकी और न ही एक दीन-हीन ब्राह्मण कुमार को ।
अंत में कौत्स ने कहा, "राजन्! मुझसे अधिक लेने का आग्रह न करें। आपके द्वार पर तो न जाने कितने लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आएंगे। राजा के नाते अपनी प्रजा की आवश्यकताओं को जानना और उन्हें पूरा करना आपका धर्म है। इसलिए इसमें से शेष रखने के आप ही अधिकारी हैं। जब लेने वाले आवश्यकता से अधिक संचय करेंगे तो राज्य में चीजों का अभाव होगा, विषमता फैलेगी। दुख पीड़ा, ऊंच-नीच के वर्ग पैदा होंगे। अशांति फैलेगी, इससे राजा तथा प्रजा दोनों दुखी होंगे। कौत्स की यह बात सुनकर महाराज रघु बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने एक सहस्र स्वर्ण मुद्राएं कौत्स को देकर शेष स्वर्ण राजकोष में न डालकर धर्मार्थ कोष में डाल दिया। “यथा राजा तथा प्रजा” राजा संतोषी और प्रजा के कल्याण में रत हों तो प्रजा भी संतोषी व सुखी रहेगी।