जो होनी हो सो होय (भक्त चन्द्रहास)
द्वापर युग में केरल देश में मेधावी नामक एक धर्मात्मा राजा थे, उनके एकमात्र पुत्र का नाम चन्द्रहास था। जब चन्द्रहास की छोटी ही अवस्था थी तभी शत्रुओं ने युद्ध में केरलपति को मारकर राज्य पर अधिकार कर लिया था। पतिव्रता रानी उन्हीं के साथ सती हो गई। इस विपत्ति काल में एक स्वामिभक्ता धाय चन्द्रहास को लिए हुए चुपके से नगर से निकलकर कुन्तलपुर चली गई और चन्द्रहास की तीन वर्ष की अवस्था तक मेहनत-मजदूरी करके पुत्रवत् पालन करती रही। अंत में वह भी काल का ग्रास बन गई। चन्द्रहास अब अनाथ और निराश्रय हो गया। परन्तु अनाथनाथ भगवान् निराधार के आधार हैं। भगवत्कृपावश चन्द्रहास का पालन नगर की स्त्रियों द्वारा होने लगा। उसके मनोहर मुखमण्डल ने सबके मन हर लिए। एक दिन देवर्षि नारद घूमते-घामते उधर आ निकले। बालक को योग्य अधिकारी जानकर उन्होंने उसे शालग्राम जी की एक मूर्ति और 'राम' मंत्र का उपदेश दिया। शुद्ध हृदय बालक बड़े प्रेम से मूर्ति की पूजा और हरिनाम कीर्तन करने लगा। कीर्तन करते समय चन्द्रहास को मालूम होता कि मानो एक जन-मन मोहन श्यामबदन बालक उसके साथ नाच और गा रहा है।
कुन्तलपुर के राजा बड़े धर्मात्मा थे। उनके कोई पुत्र न था । केवल एक रूप- गुणवती चम्पकमालिनी नाम की कन्या थी। राजगुरु महर्षि गालव के उपदेशानुसार राजा सारा राज्यभार धृष्टबुद्धि नामक मंत्री पर छोड़कर अपना सारा समय भजन स्मरण में ही लगाते थे। धृष्टबुद्धि की अलग भी बड़ी भारी जमींदारी थी। उसकी धन-सम्पत्ति का पार नहीं था। उसके मदन और अमल नाम के दो सुयोग्य पुत्र और विषया नाम की एक सुन्दर कन्या थी। मदन श्रीकृष्ण भक्त और उदार चरित्र था। उस धनलोलुप मंत्री के महलों में राग-रंग की जगह कभी- कभी संत समागम और अतिथि सेवा तथा भगन्नाम कीर्तन भी हुआ करता था। धृष्टबुद्धि को इन सबसे प्रेम न होने पर भी वह अपने सुयोग्य पुत्र मदन को स्नेहवश इन कामों से रोकता नहीं था। एक दिन सांध्य के समय मदन के यहां ऋषि लोग एकत्र होकर हरिचर्चा कर रहे थे और चन्द्रहास भी दैवात् बालकों के साथ बड़ी मधुर ध्वनि से कीर्तन करता हुआ नगर की सड़कों पर घूम रहा था। मीठी कीर्तन ध्वनि सुनकर ऋषियों की आज्ञा से मदन ने चन्द्रहास को भीतर बुला लिया। धृष्टबुद्धि भी अचानक वहीं आ बैठा था। ऋषि लोग चन्द्रहास को मुग्ध होकर देखने लगे। वे उसके शरीर के लक्षणों को देखकर एक स्वर से कह उठे, “मंत्रिवर! यह सुन्दर शुभ लक्षणयुक्त तपस्वी बालक है, आप इसका स्नेहपूर्वक पालन करें। यही आपकी सारी सम्पत्ति का मालिक—देश का राजा होगा। और वैष्णव पद का अनुगामी होगा।" ऋषियों की बात सुनकर मंत्री जल-भुन गया। उसने सोचा कि एक दर-दर का भिखारी छोकरा मेरी सम्पत्ति का मालिक होगा? उसने तुरन्त ही उसे मरवाने का षडयंत्र रचा। ऋषि और पुत्रों को किसी प्रकार की सूचना दिए बिना ही धृष्टबुद्धि सब बालकों को मिठाई देने के बहाने में ले गया। सब बालकों को तो मिठाई देकर निकाल दिया गया, रह गया एक चन्द्रहास। मंत्री के संकेत से अपने एक विश्वासी को बुला कर उसके कान में कह दिया कि चन्द्रहास को गुप्तरीति से वन में ले जाकर उसका वध कर डालो, इसके लिए तुम्हें बहुत-सा इनाम मिलेगा। साथ ही मारने के बाद कोई न कोई निशानी जरूर लाने को कह दिया ।
वह घातक चन्द्रहास को लेकर एक सुनसान वन में पहुंचा। उसने म्यान से तलवार निकाली। चन्द्रहास उसका अभिप्राय समझ गया। उसने घातक से अपने ठाकुर जी की पूजा कर लेने तक ठहर जाने की प्रार्थना की। घातक का हृदय पिघल गया और उसने अनुमति दे दी। चन्द्रहास ने अपने भगवान् की पूजा करके प्रार्थना शुरू की। वनस्थली में करुण रस छा गया, जिसके परिणामस्वरूप घातक का हृदय परिवर्तन हो गया। उसने एक हरिभक्त निर्दोष बालक की हत्या करके पाप मोल लेने का विचार त्याग दिया। परन्तु धृष्टबुद्धि के लिए कोई निशानी चाहिए, वह इस चिन्ता में पड़ गया। चन्द्रहास के पैर की छः अंगुलियां थीं। सौभाग्य से घातक की उस पर नजर पड़ गई। वह एक अंगुली काटकर और चन्द्रहास को वहीं छोड़कर अंगुली धृष्टबुद्धि के पास ले गया, वह बड़ा खुश हुआ कि उसकी चालाकी से त्रिकालज्ञ ऋषियों की अमोघवाणी भी असत्य हो गई। घोर अरण्य में सुकुमार बालक अकेला पड़ा था। पैर में पीड़ा हो रही थी। पर मुख से निरन्तर कृष्ण नाम की धुन निकल रही थी। थोड़ी ही देर में उसने देखा कि एक स्निग्ध नील ज्योति उसकी ओर बढ़ी चली आ रही है। उसी समय अकस्मात् उसकी सारी वेदना नष्ट हो गई। संयोगवश कुन्तलपुर के अधीन चन्दनपुर रियासत का राजा कुलिन्दक उसी वन के रास्ते से किसी कार्यवश जा रहा था। राज्य सब तरह से धन-धान्यपूर्ण होने पर भी राजा पुत्रहीन था। वह मधुर कीर्तन ध्वनि सुनकर चन्द्रहास के पास आया और उसे अपनी गोद में उठाकर उससे माता-पिता के बारे में पूछने लगा। चन्द्रहास ने उत्तर दिया, ‘मम माता-पिता कृष्णस्तेनादं परिपालितः '– मेरे माता-पिता तो श्री कृष्ण ही हैं और उन्हीं के द्वारा मैं पालित हुआ हूं। यह सुनकर राजा ने सोचा कि श्री हरि की कृपा से ही यह वैष्णव श्रेष्ठ देवशिशु मुझे यहां मिला है। वह उसे घोड़े पर चढ़ाकर घर लौट आया। राजा ने उसे दत्तक लेने की घोषणा कर दी, नगर भर में आनन्द छा गया।
अब चन्द्रहास की शिक्षा आरंभ हुई। यज्ञोपवीत धारण के अनन्तर थोड़े ही समय में वह चारों वेद और सभी विद्याओं में निपुण हो गया। अपने सद्गुणों से वह शीघ्र ही राजपरिवार और प्रजा का जीवनाधार बन गया। हरि गुणगान से छोटी-सी रियासत पूर्ण हो गई। चन्दनपुर रियासत से कुन्तलपुर को प्रतिवर्ष दस हजार स्वर्ण मुद्राएं कर स्वरूप भेजी जाती थीं। अबकी बार चन्द्रहास ने साथ ही साथ और भी बहुत-सा धन, जो शत्रुओं को जीतकर प्राप्त किया गया था, कुन्तलपुर भेज दिया। यह सब देखकर युवराज की वीरता की गाथाएं सुनकर धृष्टबुद्धि ने एक बार वहां की व्यवस्था देख आने का विचार किया। वह चन्दनपुर जा पहुंचा। वहां जाकर जब उसने चन्द्रहास को पहचाना तो उसका क्रोध भड़क उठा। उसने तुरन्त पुनः चन्द्रहास की हत्या का एक षडयंत्र रचा। उसने अपने बड़े पुत्र मदन को एक पत्र लिखा और चन्द्रहास के हाथों में देता हुआ कपटभरी हंसी हंसकर बोला, राजकुमार ! तुम शीघ्र ही जाकर यह पत्र कुमार मदन को दे देना। देखना, रास्ते में पत्र खुलने न पावे और न इसका रहस्य मदन के सिवा कोई जाने।"
राजकुमार चन्द्रहास तुरन्त कुन्तलपुर की तरफ घोड़े पर सवार होकर चल पड़ा। कुन्तलपुर चौबीस कोस दूर था। पहुंचते-पहुंचते दिन ढल गया। चन्द्रहास थकान मिटाने के लिए नगर से बाहर कुन्तलपुर नरेश के बगीचे में रुक कर आराम करने लगा। शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु के स्पर्श से उसे नींद आ गई। उसी समय राजकुमारी चम्पकमालिनी और मंत्री धृष्टबुद्धि की पुत्री थी विषया वह अपनी सखियों सहित बाग में टहलने आई हुई थीं। नाना प्रकार के आमोद-प्रमोद कर राजकुमारी तथा अन्य सखियां तो चली गई। भगवत्प्रेरणा से विषया वहीं रह गई।सुंदर राजकुमार को देखते ही विषया का मन मोहित हो गया। उसने उसे मन-ही-मन पति रूप में वरण कर लिया। उसने राजकुमार के हाथ में एक पत्र पड़ा देखा। विषया ने पिता के हस्ताक्षरयुक्त मदन के नाम पत्र देखकर कुतूहलवश खोलकर देखा तो उसका
शरीर थर्रा गया, मुख पर विशाद छा गया। पत्र में लिखा था-
स्वस्तिश्री प्रिय पुत्र मदन! देखत यह पाती।
'विष' दे देना, जिससे हो मन शीतल छाती ॥
कुल, विद्या, सौन्दर्य, शूरतां कुछ न देखना।
मदन शत्रु इस राजकुंवर को हृदय लेखना ॥
विषया ने विचार किया कि पिताजी ने मेरे योग्य वांछित वर देखकर आनन्द-विह्वलता में लिखने में भूल की है। अतः उसने 'विष' के आगे 'या' लिख दिया, जिससे 'विष' का विषया हो गया और 'मदन' और शत्रु शब्दों को एक साथ मिला दिया जिससे 'मदन शत्रु' की जगह 'मदनशत्रु' स्पष्ट पढ़ा जाने लगा। फिर आम के गोंद से पत्र चिपकाकर पहले की तरह राजकुमार के हाथ में रखकर वह जाकर अपनी सखियों में मिल गई। इधर चन्द्रहास ने आंख खुलने पर वह पत्र मदन को जाकर दिया। पत्र पढ़कर मदन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने ब्राह्मणों की आज्ञा से उसी दिन गोधूलि के समय शुभ मुहूर्त में विषया के साथ चन्द्रहास का विवाह कर दिया। कुन्तलपुर नरेश भी कन्यादान के समय पधारे थे। राजकुमारी की मनमोहिनी रूपराशि को देखकर उन्होंने सोचा, 'न तो चम्पकमालिनी के लिए इससे योग्य कोई वर ही मिल सकता है और न राज्यशासन के लिए बल, वीर्य, बुद्धि और शील-सदाचार सम्पन्न कोई उत्तराधिकारी ही।' राजा ने उसी क्षण राजकुमारी और राज्य को चन्द्रहास के हाथ समर्पण करने का निश्चय कर लिया। तीन दिन बाद जब धृष्टबुद्धि ने लौटकर बिल्कुल विपरीत परिस्थिति देखी तो उसने सोचा, 'पुत्री चाहे विधवा हो जाए, पर इस शत्रु का वध जरूर करूंगा।' दुष्ट हृदय की यही पराकाष्ठा है। उसने एक पर्वत पर भवानी के मंदिर में एक घातक को समझा-बुझाकर भेज दिया कि आज शाम के बाद जो भी मंदिर में आए उसका सिर धड़ से अलग कर देना और इधर चन्द्रहास से कहा कि प्रत्येक शुभकार्य के बाद हमारी कुल परम्परा के अनुसार भवानी पूजन के लिए जाना होता है, अत: आप आज शाम को वहां जाकर पूजन कर आएं। श्वसुर की आज्ञा से सरल हृदय चन्द्रहास सामग्री लेकर भवानी मंदिर की तरफ चला ।
इधर कुन्तलपुर नरेश के मन में वैराग्य का उदय हो गया। उन्होंने उसी दिन जंगल में जाकर ईश्वर चिन्तन में अपना समय लगाने का विचार किया। उन्होंने मदन को बुलाकर उसके सामने यह बात रखी और कहा, “बेटा! मेरी आज ही वन जाने की इच्छा है। इससे पहले में चन्द्रहास के साथ चम्पकमालिनी का विवाह करके उसे राज्य का उत्तराधिकारी बना देना चाहता हूं, तुम जाकर तुरन्त चन्द्रहास को यहां भेज दो। सरल हृदय मदन मन ही मन प्रसन्न होता हुआ बहनोई को बुलाने दौड़ा। चन्द्रहास भवानी मंदिर की तरफ जाते हुए उसे रास्ते में मिला। राजाज्ञा सुनाकर उसने उसे तो राजा के पास भेज दिया और स्वयं
सामग्री लेकर मंदिर की तरफ चला। कहना न होगा कि मंदिर में पहुंचते ही घातक की तलवार ने उसके दो टुकड़े कर डाले। इधर कुन्तलपुर नरेश ने चम्पकमालिनी का हाथ चन्द्रहास को पकड़ाकर गान्धर्व विवाह कर दिया और गालव ऋषि की आज्ञा से राज्याभिषेक भी कर दिया।
दूसरे दिन प्रातः काल जब धृष्टबुद्धि ने चन्द्रहास के चम्पकमालिनी के साथ विवाह और राज्याभिषेक होने की बात और अपने पुत्र मदन के घातक द्वारा मारे जाने की बात सुनी तो वह मंदिर की तरफ दौड़ा और मदन के शरीर के दो टुकड़े वहां देखकर उसने भी तुरंत तलवार से आत्महत्या कर ली। चन्द्रहास भी मंत्री को दौड़ते हुए मंदिर की तरफ जाते देखकर उसके पीछे हो लिया था। जब उसने वहां अपने साले और श्वसुर को मृत पड़े देखा तो उसको बड़ी मर्मवेदना हुई, वह अपने को ही इन दोनों जीवों की हत्या का कारण जानकर बड़े ही कातर स्वर में भगवती से प्रार्थना करने लगा। और अन्त में स्वयं मरने को
तैयार हो गया। ज्यों ही उसने म्यान से तलवार निकाली, भगवती ने प्रकट होकर दोनों हाथ फैलाकर उसे अपने हृदय से लगा लिया और प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। जन्म से मातृहीन चन्द्रहास को आज जगजननी की गोद में बैठने से बड़ी ही प्रसन्नता हुई। चन्द्रहास ने कहा, “जननी! यदि तू मुझे वर देना चाहती है तो मुझे एक तो यह वरदान दे कि जन्म-जन्मान्तर में भी मेरी सदा श्री हरि के चरणों में भक्ति बनी रहे और दूसरा यह कि ये दोनों पिता-पुत्र जीवित हो जाएं और धृष्टबुद्धि का हृदय शुद्ध हो जाए।" भवानी प्रेम भरी वाणी से 'तथास्तु' कहकर अन्तर्धान हो गईं। दोनों पिता- पुत्र सोकर जागने की तरह उठ बैठे और उन्होंने चन्द्रहास को गले से लगा लिया