कपिल गीत - सप्तमोऽध्यायः ७


सप्तमोऽध्यायः ७



श्रीभगवानुवाच



कर्मणा दैवनेत्रेण जंतुर्देहोपपत्तये ।



स्त्रियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतः कणाश्रयः ॥१॥



श्रीभगवानजी बोले कि, दैवप्रेरित पिछले जन्म कर्मों के प्रभाव से देहप्राप्ति के लिये यह जीव पुरुष के वीर्य कण में आश्रय लेकर स्त्री के



उदर में प्रवेश करता है ॥१॥



कललं त्वेकरात्रेण पंचरात्रेण बुदबुदम् ।



दशाहेन तु कर्कन्धूः पेश्यंडं वा ततःपरम् ॥२॥



एक रात में तो शुक्र शोणित मिलता है, पांच रात में बुद बुदा सा होता है, दश दिन में बेर के समान हो जाता है, फिर मांस पिंडांकार हो जाता है ॥२॥



(* शंका- कपिलदेवजी ने अपनी माता से कहा कि, जीव यमपुरी में कष्ट को भोग करके पुरुष का वीर्य होकर स्त्री के उदर में प्रवेश



करता है ऐसा हम सब सुनते हैं, बडे आश्चर्य की वात है कि, वायुरूप जीव सो शीशे और रागा की नांई गलकर जलरूप कैसे हो गया ?



उत्तर - वायु रूप जीव को नित्य सब पदार्थों में जाना होता है, वह सब वस्तु में चर अचर में सूक्ष्म रूप होकर प्रवेश करता है इसीलिये वायु



की देहरूप जीव यमपुरी में कष्ट भोग कर स्त्री के उदर में प्रवेश करता है; क्योंकि वायु तो सब में जब चाहे तब जैसा चाहै तैसा रूप



धर के घुस जाता है ।)



मासेन तु शिरो द्वाभ्यां बाह्वनड्ध्य्राद्यंगविग्रहः ।



नखलोमास्थिचर्माणि लिंगच्छिद्रोद्भवस्त्रिभिः ॥३॥



एक मास में शिर बनता हैl दो मासमें बाहु, चरण आदि अङ्ग के आकार बन जाते हैंl तीसरे मास में नख, रोम, हाड,चाम,



सब इन्द्रियों के छिद्र बन जाते हैं ॥३॥



चतुर्भिर्धातवः सप्त पंचभिः क्षुत्तडुद्भवः ।



षड्भिर्जरायुणा वीतः कुक्षौ भ्राम्यति दक्षिणे ॥४॥



चौथे मास में सातों धातु प्रगट होती हैं, पांच वें मास में भूख प्यास उत्पन्न होती है, छठे मास में जेल में लिपटा हुआ माता की दाहिनी



कोख में घूमा करता है ॥४॥



मातुर्जग्धान्नपानाद्यैरेधद्धातुरसम्मते ।



शेते विण्मूत्रयोर्गर्ते स जंतुर्जंतुसंभवे ॥५॥



माता के भोजन करे हुए अन्नादिक से इसकी धातु बढती है और वह जीव जीवों की खान ऐसे विष्ठा और मूत्र के गर्त में दिन रात पडा रहता हैं



"मार्कण्डेयपुराण में लिखा है कि, स्त्री की नाभि में एक बालक की वृद्धि करनेवाली आप्यायनी नाडी बँधी है, उसी के द्वारा स्त्रियों के



खाये पीये पदार्थ का रसांश उस गर्भ को पहुँचता है, और वह जीव उसी को पीपी कर दिन दिन बढता है" ॥५॥



कृमिभिः क्षतसर्वांगः सौकुमार्यात् प्रतिक्षणम् ।



मूर्च्छामाप्नोत्युरुक्लेशस्तत्रत्यैः क्षुधितैर्मुहुः॥६॥



सुकुमारता से गर्भ के कीडे जो क्षण क्षण में उसको काटते हैं, उस कठिन पीडा से वह जीव अत्यन्त व्याकुल हो मूर्छित हो जाता है,



वह कृमि भूख से व्याकुल होकर जीव को सताते हैं ॥६॥



कटुतीक्ष्णोष्णलवणरूक्षाम्लादिभिरुल्बणैः ।



मातृभुक्तैरुपस्पृष्टः सर्वांगोत्थितवेदनः ॥७॥



और कीडों के काटे हुए घावों पर जननी के खाये, कटु,वीक्ष्ण, उष्ण, लवण, रूखा, अम्लादि नाना भाँति की वस्तुओं के लगने



से उस जीव के शरीर में अत्यन्त पीडा होती है ॥७॥



उल्बेन संवृतस्तस्मिन्नंत्रैश्च बहिरावृतः ।



आस्ते कृत्वा शिरः कुक्षौ भुग्नपृष्ठशिरोधरः ॥८॥



उदर के भीतर जरायु से बँधा और बाहर जननी की आंतों से बँधा; नीचे योनि की ओर शिर किये धनुष की टेढी पीठ झुकाये मलमूत्र में



पडा रहता है, हाथ पाँव तक नहीं चला-सकता, यह माता का उदर नहीं है, बंदीगृह है ॥८॥



अकल्पः स्वांगचेष्टायां शकुंत इव पंजरे ।



तत्र लब्धस्मृतिर्दैवात्कर्म जन्मशतोद्भवम् ।



स्मरन्दीर्घमनुच्छ्वासं शर्म किं नाम विंदते ॥९॥



अपने तन की चेष्टा करने में कुछ सामर्थ्य नहीं रहती, जैसे पिंजरे में पक्षी अपना मनोरथ सिद्ध नहीं कर सकता, वहां इस प्राणी को पिछले



सौ जन्म के कर्मों की याद आती हैl उस समय वह दीर्घ श्वास भरकर पश्चात्ताप करता है, और सुख तो वहां नाम को भी नहीं मिलता ॥९॥



आरभ्य सप्तमान्मासान्धबोधोऽपि वेपितः ।



नैकत्रास्ते सुतिवातैर्विष्ठाभूरिव सोदरः ॥१०॥

गर्भ के समान दुःख तो न हुआ न होय। सातवें महीने में इसको अधिक बाधा होती है। यह एक ठिकाने नहीं ठहर सकता, प्रसूति की



वात से सदा कांपता रहता है और विष्ठा के कीडों को अपना सम्बंधी समझता है ॥१०॥



नाथमान ऋषिर्भीतः सप्तवध्रिः कृतांजलिः ।



स्तुवीत तं विक्लवया वाचा येनोदरेऽर्पितः ॥११॥



उस समय दुःखी हो वह जीव वारंवार परम उदास हो,गर्भवास की त्रास देख धातुवों से बँधा हुआ हाथ जोड व्याकुल-वाणी से उस



परमात्मा की स्तुति करता है ॥११॥



जंतुरुवाच



तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयाऽऽत्त- नानातनोर्भुवि चलञ्चरणारविंदम् ।



सोऽहं व्रजामि शरणं ह्यकुतोभयं मे येनेदृशी गतिरदर्श्यसतोऽनुरूपा ॥१२॥



जीव कहता है कि हे शरणागतवत्सल । विश्व के पालन करने के लिये आप अपनी इच्छा से अनन्तरूप धारी भूमिपर पर्यटन करते हुये आप भगवान्



वासुदेव के निर्भय चरणारविन्द के मैं शरण हूं । कि जिसने मुझ पापी को यह गर्भवास की गति दिखाई ॥१२॥



यस्त्वत्र बद्ध इव कर्मभिरावृतात्मा - भूतेंद्रियाश यमयीमवलंब्य मायाम् ।



आस्ते विशुद्धम विकारमखंडबोध- मातप्यमानहृदयेवसितं नमामि ॥१३॥



जो ईश्वर की माया से इस संसार के कर्मबन्धन से जननी के उदर में पंचमहाभूत इन्द्रिय अन्तःकरण रूप माया का आश्रय



लेकर कर्मों से बँधा हुआ हूं, अब उस विशुद्ध, अविकार, अखण्डज्ञान स्वरूप को इस तपित हृदय में बारंबार नमस्कार करता हूं ॥१३॥



यः पंचभूतरचिते रहितः शरीरे - ते छन्नो यथेंद्रिय गुणार्थचिदात्मकोऽहम् ।



तेनाऽविकुंठमहिमानमृषिं तमेनं वंदे परं प्रकृतिपूरुषयोः पुमांसम् ॥१४॥



जो ईश्वर पंचभूत चिच्छरीर में ढका हुआ विदित होता है,जैसा ही इन्द्रिय, गुण, अर्थ, चैतन्य आत्मक मैं हूं, तैसे देह रहित होने पर भी प्रसिद्ध



महिमा वाले ऋषि परमेश्वर प्रकृति पुरुष से परे जो आप हैं सो मैं आपके चरणारविन्दों की वंदना बारंबार करता हूं ॥१४॥



यन्माययोरुगुणकर्मनिबंधनेऽस्मिन् सांसारिके पथि चरंस्तदभिश्रमेण ।



नष्टस्मृतिः पुनरयं प्रवृणीत लोकं युक्त्या कया महदनुग्रह मंतरेण ॥१५॥



जिस की माया से अपने निजस्वरूप और ज्ञान का विस्मरण होने से यह जीव बहुत गुणकर्म से करे हुए इस जगत् संबन्धी मार्ग में महाकष्ट से



विचरण करता हुआ यह परमात्मा की कृपा विना और किसी युक्ति से अपने निजस्वरूप को नहीं जान सकता, क्योंकि भगवत्कृपा विना ज्ञान नहीं हो



सकता और ज्ञान विना मोक्ष कहाँ ? इसलिये ईश्वर की सेवा करनी उचित है ॥१५॥



ज्ञानं यदेतददधात्कतमः स देवस्त्रैकालिकं स्थिर चरेष्वनुवर्तितांशः ।



 तं जीवकर्मपदवीमनुवर्तमा- नास्तापत्रयोपशमनाय वयं भजेम ॥१६॥



स्थावर जंगम में अनुवर्ते जिसका अंश ऐसे देव ईश्वर के विना जो यह काल का ज्ञान मुझ को हुआ, इस ज्ञान को मेरे हृदय में किसने



प्रकाश किया ? वह कौन है ? इसलिये जीव कर्मपदवी में वर्तमान के त्रयतापनाशार्थं उस परमात्मा को भजता हूं ॥१६॥



देह्यन्यदेह विवरे जठराग्निनाऽसृग्विण्मूत्रकूपपति- तो भृशततदेहः ।



इच्छन्नितो विवसितुं गणयनं स्वमासान् निर्वास्यते कृपणधीर्भगवन् कदा नु ॥१७॥



माता के देहरूपी विवर में यह वन जठराग्नि से अति तपित रुधिर विष्ठामूत्र के कूप में अतितम देह से जीव यहां से बाहर निकलने के लिये अपने



मासों कों गिनता है और यह कहता है कि हे दीनबंध ! दीनानाथ ! इस जीव को यहां से कब निकालोगे ॥१७॥



येनेदृशीं गतिमसौ दशमास्य ईश संग्राहितः पुरुदयेन भवादृशेन ।

स्वेनैव तुष्यतु कृतेन स दीननाथः को नाम तत्प्रति विनांजलिमस्य कुर्यात् ॥१८॥

हे नाथ | दशमास को बडे अनुग्रह से आपने ऐसी गति दी सो दीनानाथ आप अपने किये उपकार से आप ही संतुष्ट होते हो, केवल हाथ जोडने के अतिरिक्त आपका प्रत्युपकार कौन कर सकता है ? ॥१८॥



पश्यत्ययं धिषणया ननु सप्तवध्रिः शारीरके दमशरीर्यपरः स्वदेहे ।



यत्सृष्टयाssसं तमहं पुरुषं पुराणं पश्ये बहिर्हृदि च चैत्त्यमिव प्रतीतम् ॥१९॥



सात धातु का जिस के शरीर सो तो अपने देहसंबंधी दुःख सुख ही को देखता रहता है, और मैं तो परमात्मा की कृपा से उसके दिये ज्ञान से जो



शमदम आदि सब साधन बन सकें ऐसी स्थिति में हूं, उन पुरुष को मैं बाहर और हृदय के भीतर चित्त की नांई विश्वस्त मन कर देखता हूं ॥१९॥



''सोऽहं वसन्नपि विभो बहुदुःखवासं गर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरंधकूपे ।



यत्रोपयातमुपसर्पति देवमाया मिथ्यामतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतत् ॥२०॥



हे विभो ! सो मैं अत्यन्त दुःख वास में बसूं हूं तो भी इस अन्धकूप से बाहर निकलने की इच्छा नहीं। क्योंकि बाहिर आते ही



आप की माया व्यापैगी और जिसके संबंध से स्त्री पुत्रादिक के मोह ममता में फँसना पडैगा ॥२०॥



तस्मादहं विगतविक्लव उद्धरिष्य आत्मानमाशुतमसः सुहृदात्मनैव ।



भूयो यथा व्यसनमेतदनेकरंध्रं मा मे भविष्यदुपसादितविष्णुपादः ॥२१॥



इस कारण अब मैं यहीं चित्त को स्थिर करके आपके कोमल चरणकमलों को हृदय में धारण करूंगा, और उनहीं के अनुग्रह से



अपनी सुहृद आत्माकर के आत्मा का तुमसे उद्धार करूंगा; फिर ऐसी अनेक रन्धों का शरीर जिसमें नाना प्रकार के व्यसन होते हैं



यह देह मेरा न होय और यह कठिन कष्ट मुझ को भोगना न पडै, क्योंकि अब श्रीकृष्णचंद्र कृपानिधान का मैंने आश्रय लिया है ॥२१॥



कपिल उवाच ॥



एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः स्तुवन्नृषिः ।



सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै सूतिमारुतः॥२२॥



कपिलदेवजी बोले कि इसप्रकार गर्भ में जो दश मास का जीव स्तुति कर रहा था उसको बाहर निकालने के लिये प्रसूति वायु ने



तुरन्त उस को पृथ्वी पर फेंक दिया ॥२२॥



तेनावसृष्टः सहसा कृत्वाऽवाक्छिर आतुरः ।



विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छ्वासो हतस्मृतिः ॥२३॥



वायु के फेंकने से वह जीव नीचे को मुख किये श्वासबन्द बडे कष्ट से बाहर निकलता है और सब ज्ञान उसी समय शमन हो जाता है ॥२३॥



पतितो भुव्यसृङ्मूत्रे विष्ठाभूरिव चेष्टते ॥



रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं गतः ॥२४॥



भूमि पर गिरकर रुधिर मूत्र में विष्ठा की समान चेष्टा करता है । और कहां कहां कर के वारंवार रोता है और ज्ञान से जाते रहने



से विपरीत गति हो जाती है ॥२४॥



परच्छंदं न विदुषा पुष्यमाणो जनेन सः ।



अनभिप्रेतमापन्नः प्रत्याख्यातुमनीश्वरः ॥२५॥



अतिरिक्त रोने के और वह कुछ भी नहीं कह सकता, अपने पराये प्रयोजन को नहीं जानता, जननी जनक उसके पोषण के लिये उनको



भूखा समझ कभी दूध पिलाते हैं कभी उदर की बाधा समझ बूटी देते हैं, परंतु उसकी इच्छानुसार एक काम भी नहीं होता, जब वह भूख का



मारा रोता है तब माता पिता उसकी दीठ उतारते हैं परन्तु वह किसी बात को 'हां' 'ना' नहीं कर सकता ॥२५॥



शायितोऽशुचिपर्यंके जंतुः स्वेदजदूषिते ।



नेशः कंडूयनेंगानामासनोत्थानचेष्टने ॥२६॥



गरमी सरदी से पीडित अपवित्रं शय्यापर पड़ा रहता है; मच्छर, मक्खी, खटमल आदि उस जीव को काटते हैं, उस समय न तो वह



अपने तन को खुजा सकता है, न उठा सकता है, न बैठता है, न कोई उपाय ही कर सकता है, केवल अपनी व्यथा को आप ही जानता है ॥२६॥



तुदत्यामत्वचं दंशा मशका मत्कुणादयः ।



रुदंतं विगतज्ञानं कृमयः कृमिकं यथा ।



इत्येवं शैशवं मुक्ता दुःखं पौगंडमेव च ॥२७॥



कच्ची खाल में मच्छर डांस खटमल आदि अनेक जीव इस जीव को काटते हैंl इसीसे वह बालक बार रोता है, ज्ञान सब नष्ट हो जाता है,



जैसे और कीडे हैं। ऐसे ही इसको भी एक कीड़ा समझो ॥२७॥



अलब्धाभीप्सितोऽज्ञानादिद्धमन्युः शुचार्पितः ।



सह देहेन मानेन वर्धमानेन मन्युना ।



करोति विग्रहं कामी कामिष्वन्ताय चात्मनः ॥२८॥



इस भांति अनेक भाँति के कष्ट भोगकर फिर बालअवस्था में पठन पाठन का दुःख सहकर अज्ञानपन से उसको भी नहीं सीखता,



खेलकूद में ही वृथा समय खोया, जब तरुणाई आई तब मनमानी वस्तु पाकर महा अभिमानी बनेने लगा । अंज्ञान से क्रोध करने और कष्ट



उठाने देह के संग बढे हुए काम क्रोध के घमंड में विषयीजनों के संग मिलकर अपनी आत्मा के नाशार्थ लडाई करता है॥२८॥



भूतैः पंचभिराब्धे देहे देह्ययुधोऽसकृत् ॥



अहं ममेत्य सद्ग्राहः करोति कुमतिर्मतिम् ll२९॥



पंचभूत के देह में वारंवार यह अज्ञानी जीव अपने अभिमान से कहता है कि, यह शरीर मेरा है, मैं इसकी पालन करता हूं,



ऐसी असत् बातें ग्रहण करने लगता है । कुमति से सुमति का नाश हो जाता है ॥२९॥



तदर्थं कुरुते कर्म यद्वद्धो याति संसृतिम् ।



योऽनुयाति ददत्क्लेशमविद्याकर्मबंधनः ॥३०॥



जीव देह के अर्थ कर्म करता है, जिस कर्म से बँध कर संसार को प्राप्त होता है, क्लेश देता हुआ जो यह शरीर है इसके लिये यह



प्राणी दिन रात कर्म किया करता है और सदा जीवन मरण के चक्र में पड़ा घूमता ही रहता है ॥३०॥



यद्यसद्भिः पथि पुनः शिश्नोदरकृतोद्यमैः ।



अस्थितो रमते जंतुस्तमो विशति पूर्ववत्॥३१ll



फिर शिश्न और उद्यम कारी असतों के मार्ग में स्थित होकर उसी मार्ग में चलने लगता है और फिर कुसंगति के प्रभाव से उसी



भांति नरक भोगता है ॥३१॥



सत्यं शौचं दया मौनं बुद्धिः श्रीर्ह्रिर्यशः क्षमा ।



शमो दमो भगश्चेति यत्संगाद्याति संक्षयम् ॥३२॥



और सत्य, शौच, दया, मौन, बुद्धि, लक्ष्मी, लज्जा, यश,क्षमा, शम, दम और ऐश्वर्य, यह सब खोटे पुरुषों की संगति से नष्ट हो जाते हैं ॥३२॥



तेष्वशन्तेषु मूढेषु खंडितात्मस्वसाधुषु ।



संगं न कुर्याच्छोच्येषु योषित्क्रीडामृगेषु च ॥३३॥



इसलिये अशान्त मूढ (अज्ञानी) खण्डित आत्मा, साधुओं के शोच के योग्य स्त्रियों का कीड़ामृग अर्थात नीच स्त्रियों से रमण, ऐसे नीच



मनुष्यों की संगति कभी नहीं करनी चाहिये ॥३३॥



न तथाऽस्य भवेन्मोहो बधश्चान्यप्रसंगतः ।



योषित्संगाद्यथा पुंसो यथा तत्संगिसंगतः ॥३४॥



और प्रसंगों से जैसा यह बँधे हैं उससे अधिक मोह नहीं होता जैसा कि, स्त्रियों के संग से होता है और उनकी संगति करने वाले पुरुषों



की संगति से अत्यन्त ही मोह बढ़ता है और महाक्लेश होता है ॥३४॥



प्रजापतिः स्वां दुहितरं दृष्ट्वा तद्रूपधर्षितः ।



रोहिद्भूतां सोऽन्वधावदृक्षरूपी हतत्रपः ॥३५॥



चतुरानन अपनी सरस्वती को देख उसके वश हो गये, जब सरस्वती से कुछ न बन पड़ा तो मृगी का रूप धारणकर भागी,



उस समय ब्रह्माजी भी लज्जा तज मृग वन उसके पीछे भागे॥३५॥



तत्सृष्टसृष्टसृष्टेषु कोन्वखंडितधीः पुमान् ।



ऋषिं नारायणमृते योषिन्मय्येह मायया॥३६॥



जब ब्रह्माजी से ज्ञानी की यह गति है तब उनके रचे मरीच्यादि, उनके रचे हुए कश्यपादि, उनके रचे हुए देवता मनुष्यादि में मन में ऐसा



अखण्डित बुद्धिवाला कौन है ? जो उसका चित्त योषितारूप माया को देख खंडित न होय। एक श्री नरनारायण को तो हम नहीं कह



सकते जो सब संसार के प्रलय पालन करनेवाले मौनरूप धारण किये विरजमान हैं ॥३६॥



बलं मे पश्य माययाः स्त्रीमय्या जयिनो दिशाम् ।



या करोति पदाक्रांतान्भ्रूविजृंभेण केवलम् ॥३७॥



मेरी स्त्रीमयी माया का बल देखो, जो दिशाओं के जीतने वाले शूरवीरों को भी केवल भ्रुकुटी चढाये के अपने पांवों में लुटालेती है ॥३७॥



संगं न कुर्यात् प्रमदासु जातु योगस्य पारं परमारुरुक्षुः ।



मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो- वदंति या निरयद्वारमस्य ॥३८॥



कदाचित जो मनुष्य योग का पार पाना चाहे वह स्त्रियों का संग न करै, मेरी सेवा से आत्मज्ञानी होता है फिर वह योगीश्वर स्त्रियों को नरक



का द्वार समझता है ॥३८॥



योपयातिशनैर्माया योषिद्देव विनिर्मिता ।



तामीक्षेतात्मनो मृत्युं तृणैः कूपमिवावृतम् ll३९।l



परमेश्वर की रची हुई स्त्रीरूपी माया जो धीरे धीरे अपने निकट आवै तौ उसको अपनी मृत्यु जानै, जैसे तृणों से छिपा हुआ कुआ ॥३९॥



यां मन्यते पतिं मोहान्मन्मायामृषभायतीम् ।



स्त्रीत्वं स्त्रीसंगतः प्राप्तो वित्तापत्यगृहप्रदम् ॥४०॥



मुमुक्षु स्त्री के प्रति कहते हैं, पुरुष समान आचरण करती हुई मेरी माया उस वित्त के देनेवाले को पति मानै तो उस पुरुषरूप



माया को मृत्यु समझै जिससे पूर्वजन्म में आप पुरुष था,फिर मरण समय स्त्री के ध्यान में स्त्री धर्म को प्राप्त हुआ इस भाँति फिर जो पुरुष



धर्म को प्राप्त होगा फिर स्त्री की इच्छा से स्त्री होगा ॥४०॥



तामात्मनो विजानीयात् पत्यपत्यगृहात्मकम् ।



देवोपसादितं मृत्युं मृगयोर्गायनं यथा ॥४१॥



पति, पुत्र, गृहरूप, नारी अपनी मृत्यु जानो वधिक के गाने और वीणा बजाने से जैसे मृग की मृत्यु है, इसीप्रकार दैव से प्राप्त नारी कौ



अपनी मृत्यु जानना चाहिये ॥४१॥



देहेन जीवभूतेन लोकाल्लोकमनुव्रजन् ।



भुंजान एव कर्माणि करोत्यविरतं पुमान् ॥४२॥



जीवरूप अपने शरीर से दूसरे शरीर में एक कर्म का भोक्ता निरंतर पिछले कर्म को किया करता है ॥४२॥



जीवस्यानुगतो देहो भूतेंद्रियमनोमयः ।



तन्निरोधोऽस्य मरणमाविर्भावस्तु संभवः॥४३॥



पंचभूत इन्द्रिय मनोमय देह जीव इसके संग है, जीव का रुकना इसका मरण है, आविर्भाव होना जीव का जन्म है ॥४३॥



द्रव्योपलब्धिस्थानस्य द्रव्येक्षाऽयोग्यता यदा ।



तत्पंचत्वमहं मानादुत्पत्तिर्द्रव्यदर्शनम् ॥४४॥



द्रव्य की प्राप्ति के स्थानरूप इस स्थूलशरीर में जब उसको ग्रहण करने की योग्यता नहीं रहती, यह उसका मरण है और यह स्थूलशरीर ही



मैं हूँ - इस अभिमान के साथ उसे देखना उसका जन्म है॥४४॥



यथाऽक्ष्णोर्द्रव्यावयवदर्शनायोग्यता यदा ।



तदैव चक्षुषो द्रष्टुर्द्रष्टृत्वायोग्यताऽनयोः ॥४५॥



जैसे नेत्रो का द्रव्य अवयव दर्शन की अयोग्यता जब होती है, तब ही चक्षु के द्रष्टा को इनके द्रष्टृत्वाभाव की योग्यता होती है ॥४५॥



तस्मान्न कार्यः संत्रासो न कार्पण्यं न संभ्रमः ।



बुद्ध्वा जीवगतिं धीरो मुक्तसंगश्वरेदिह ॥४६॥



इस कारण न तौ मृत्यु का भय माने, न जीवन की आशा ठाने, और न जीवन के प्रयत्नों का आदर करना चाहिये जीव गति जानकर धीर



मुक्तसंग होकर इस संसार में विचरै ॥४६॥



सम्यग्दर्शनया बुद्धया योगवैराग्ययुक्तया ।



मायाविरचिते लोके चरेन्न्यस्य कलेवरम् ॥४७॥



सुंदर देखने वाली, योग और वैराग्यवाली सत्यविचार करने वाली बुद्धि से मायाविरचित लोक में शरीर की आसक्ति त्यागकर



आनंद से विचरै ॥४७॥



इति श्रीकपिलगीताभाषीटीकायां पुण्यपापरिह मनुष्ययोनिसम्प्राप्तौ जीवगति-वर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥