पूर्व भारत में श्री जगन्ननाथजी से दश गाँव दूर पिपरी नामक एक गाँव था। वहा एक गंगा पुत्र, ब्राह्मण कुल में सुंदरदास का जन्म हुआ। उस से थोडी दूरी पर एक सारस्वत ब्राह्मण कुल रहता था। उनके यहाँ माधोदास का जन्म हुआ। सुंदरदास और माधोदास मित्र थे। माधोदास के जन्म से पहले पिता को किसे ने ऐसा बताया था की आपका पुत्र नहीं है इसलिए आप पीर की मानता रखो। इसलिए माधोदास के पिता ने गाँव मे एक पीर की मानता रखी थी। उसके बाद माधोदास का जन्म होते ही उनका पीर में विश्वास बढ़ गया। वो पीर की बोहोत पूजा- उपासना करते और पीर उनके साथ बात भी करते। उन्होंने सोचा कि पुत्र पीर की कृपा से हुआ है तो उसका नाम पीरदास रखें।
फिर उसको समाज के लोगों का विचार आया, सारस्वत ब्राह्मण होकर में मुस्लिमों के देवों का पूजन करू, तो सब मेरी निंदा ही करेंगे । उस लिए फिर अपने पुत्र का नाम माधोदास रखा। पर मन में तो पीर के ऊपर ही श्रद्धा थी। इसलिए बाहरी दिखावे के लिए उन्होंने श्रीकृष्ण की मूर्ति को रखा। मूर्ति का बाहर से पूजा करे, भोग धरें पर मन में पीर थे, तो वो पीर को बुलाते और फिर मूर्ति के आगे रखा सब भोग पीर खा जाते। माधोदास भी पिता के ही रास्ते पर चलने लगे। उनकी भी श्रद्धा पीर में बढ़ती गई। पिता के अवसान के बाद वो भी पिता के जैसे ही उपासना- पूजा करने लगे।
सुंदरदास अलग स्वभाव के थे। गाँव मे कोई संत- महंत या कोई महापुरुष आने के समाचार मिलते ही, वो दोड के उनकी सेवा मे पहुँच जाते। और पूरे दिन उनकी सेवा साधना करते।
एक बार श्री महाप्रभुजी जगन्नाथ पुरी पधारे और गाँव के तालाब के पास मुकम किया। सुंदरदास को जैसे ही पता चला वो तुरंत वहाँ पहुँच गए। हाथ जोड़ के बिनती की ; मुझे आपकी सेवा का अवसर दो।
कृष्णदास मेघन ने कहा:"आप वैष्णव नहीं हो, इसलिए यहाँ कोई चीज को छूना नहीं। श्रीमहाप्रभुजी अपने सेवक के अलावा और किसी की सेवा स्वीकार नहीं करते।"
सुंदरदास ने कहा; "में ब्राह्मण हूँ। यहाँ पर जो महापुरुष आते है, सब की सेवा में ही करता हूँ, फिर आप मुझे क्यों मना कर रहे हो?"
कृष्णदास ने कहा: "हम वैष्णव के अलावा और किसी को स्पर्श नहीं करते।
सुंदरदास दूर खड़े रहे। श्रीमहाप्रभुजी वहां एक वृक्ष के नीचे बिराजे। उनके दर्शन कर के सुंदरदास बडे खुश हुए। वो वहा से दूर हुए ही नहीं।
श्री महाप्रभुजी ने स्नान करके, रसोई करी, भोग अरोगाया, भोजन किया। बाद में सुंदरदास को दैवी जीव जान कर महाप्रसाद दिया। महाप्रसाद लेते ही उनकी बुद्धि निर्मल हो गई। सुंदरदास ने बिनती की:" महाराज, आप साक्षात ईश्वर हो। मुझे सेवक बनाओ, ताकि में आपकी सेवा कर सकूँ।"
सुंदरदास की दीनता को देख कर महाप्रभु जी ने नाम मंत्र दिया। उसके बाद उनको चरण सेवा करने की आज्ञा की। सुंदरदास ने पूरी रात प्रेम से चरणसेवा की। रात को दो बार महाप्रभुजी ने आज्ञा की, अब आप सो जाओ।
पर सुंदर दास माने नहीं। उन्होंने बिनती की ;सोना हर दिन होता है, पर आपकी सेवा करने फिर कब मिलेगी?"
सुबह सुंदरदास ने बिनती कर के महाप्रभु जी को अपने घर पधराया। श्रीमहाप्रभुजी ने उनको और उनकी पत्नी को ब्रह्मसंबंध कराया। घर में लालन का सुंदर स्वरुप बिराजमान था, उनको पंचामृत से स्नान करवा के भोग धराके, आप ने भोजन लिया। सुंदरदास और उनकी पत्नी ने महाप्रसाद दिया। सेवा की सब रीत सिखाई। और फिर जगन्नाथपुरी के लिए निकले।
सुंदरदास ने सोचा, माधोदास मेरा मित्र है। उसको पीर का अन्याश्रय है। वह भी महाप्रभु जी का सेवक हो तो अच्छा। इसलिए सुंदरदास ने बार बार माधोदास से महाप्रभु जी बात करी, पर माधोदास का मन पिघला नहीं, तब सुंदर दास शांत हो गए।
थोड़े समय के बाद श्रीमहाप्रभुजी पधारे। और सुंदरदास के घर ठहरे, उस समय माधव दास भी वहाँ थे। श्रीमहाप्रभुजी ने भोग सराया, माधवदास ने देखा कि थाल वैसा का वैसा ही है। उन्होंने सुंदरदास से कहा; "तुम्हारे गुरु के हाथ से ठाकुरजी आरोग नहीं रहे। महाप्रसाद का थाल वैसा ही है। जब में मेरे घर मे धराता हूँ तो सब आरोग जाते है एक कौर भी नहीं रहता।”सुंदरदास ने कहा" तो फिर आप क्या खाते हो?"
"हमारे घर के लिए हम अलग से रसोई कर के रखते है।"
माधोदास इस बात का जवाब आपको शाम को मिलेगा, शाम को आना।
सुंदरदास ने श्रीमहाप्रभुजी को सब बात बतायी, तब श्रीमहाप्रभुजी ने आज्ञा करी कि, "वो मूर्ख है। श्री ठाकुरजी का हाथ जिसमें लगा हो वो वस्तु कभी कम नहीं पड़ती। उसका नैवेध का थाल पीर खा जाता है। पर वो दैवी जीव है।;इसलिए उसका उद्धार जरूर होगा। आप चिंता मत करो।"
शाम को माधोदास आये। श्री महाप्रभु जी ने उनको पूछा:"आपके घर ठाकुरजी सब सामग्री आरोग जाते है?"
"हाँ, महाराज कुछ बचता नहीं।"
श्रीमहाप्रभुजी ने आज्ञा करी "कल जब भोग धराओ, तब हमें समाचार भेजना, हम वहाँ आकर देखेंगे । "
दूसरे दिन श्रीमहाप्रभुजी माधोदास के यहां मंदिर के द्वार के पास बिराजे। माधवदास थाल लेकर आऐ। श्रीमहाप्रभुजी की आज्ञा लेकर भोग धराया। फिर पीर का स्मरण किया, इसलिए पीर आऐ; पर द्वार के पास श्रीमहाप्रभुजी का अग्नि स्वरूप देख वो डर गया और पास नहीं आ सका। उसने हाथ जोड़ कर कहा;"महाराज, आपकी हाजरी होने से आज में भूखा रहा।"
श्रीमहाप्रभुजी ने कहा "आज तक तुमने ठाकुरजी के नाम पर खूब खाया है। अब यहाँ फिर आना नहीं। आएगा तो जल के खाख हो जाएगा।"
पीर डर के वहाँ से भाग गया। समय होते माधव दास ने द्वार खोला। देखते हैं तो थाल में सब सामग्री वैसे की वैसी ही है।माधोदास ने महाप्रभुजी से कहा: आपके आने से मेरे ठाकुरजी आरोगे नहीं। वो भूखे रहे। श्रीमहाप्रभुजी कुछ बोले नहीं। आप आ कर सुंदरदास के वहाँ वापस बिराजे।
रात को माधोदास जब सो रहे थे, तब विष्णु दूत आकर माधोदास को भूमि पर पटके,माधव दास कम्पन करते करते पूछे "आप मुजे किस लिए मार रहे हो? मेरा क्या गुनाह है"
दूत वोले "आप ने श्री महाप्रभु जी का अपराध किया है। आप ने कहा आप आये इसलिए मेरे ठाकुरजी भूखे रहे, पर आपको पता नहीं है कि आपका पीर श्रीमहाप्रभुजी थे इसलिए मंदिर में जा नहीं पाया। वो डर के भाग गया। हर रोज पीर ही सब खाना खा जाते है।अभी तक में आज ही ठाकुरजी ने तुम्हारा धराया भोग अरोगा है।
माधोदास बोले:"मुझे छोङ दो। में सुबह श्रीमहाप्रभुजी के पास जाकर, मेरे अपराध की क्षमा मागूंगा। और उनका सेवक बनूँगा "
सुबह माधोदास ने श्रीमहाप्रभुजी के पास अपने अपराध की माफी मांगी। श्रीमहाप्रभुजी उसके ऊपर प्रसन्न हुए। उनके घर पधारे और ब्रह्मसंबंध कराया। श्री ठाकुरजी का पंचामृत स्नान करवा के भोग धरा के, भोजन किया। बाद में महाप्रभु जी ने आज्ञा करी, "गाँव में जितने वैष्णव हैं सबको बुला के महाप्रसाद दो।"
"महाराज ,गाँव में कई वैष्णव है। महाप्रसाद कम है। सबको कैसे पहुँचेगा?
"माधोदास आप मूर्ख हो। महाप्रसाद का स्वरूप आप नहीं जानते। महाप्रसाद कभी घटता नहीं। मेरी आज्ञा में विशवास रखो। सबको बुला के लाओ। वह सब वैष्णव को बुला लाये। सब ने पेट भार के प्रसाद खाया। फिर भी महाप्रसाद का थाल वैसा ही भरा हुआ था। वो देख के माधोदास को बहुत आश्चर्य हुआ।
श्री महाप्रभु जी ने आज्ञा करी: " माधोदास वैष्णव को दृढ विश्वास होना चाहिए। तब ही प्रभु में आश्रय होता है और तब ही भगवत् प्राप्ति रूपी फल मिलता है।
सिद्धांत नवनीत
१) जीव चाहे कितना भी दुष्ट हो पर भगवदियों के संग से उनका उद्धार होता ही है।
२) दुष्ट मनुष्य के संग से दु:संग होता है और उससे दुःख मिलता है। सत्संग करने से कृतार्थ होते है।
३) महाप्रसाद का महात्म्य अनोखा है, उस लिए भाव पूर्वक महाप्रसाद लेना चाहिए।