अलीखान जाति के पठान थे। वे महावन में रहते थे। पूर्व के दैवी जीव हैं इसलिए इनको ब्रज का बहुत आकर्षण था। ब्रज के वृक्ष-वेल को वह अलौकिक स्वरूप से जान गए थे।
अलीखान वन के हाकिम हुए।तब ब्रज में सब जगह ढिंढोरा पिटवाया कि" वृक्ष के पत्ते कोई तोड़ेंगे नहीं।जो तोड़ेगा उनको सबक़ मिलेगा "।और सही में ,पत्ते तोड़ते पकड़े जाने पर एक घांची का सब तेल वृक्ष के मूल में डलवा दिया। बाद में सब चेत गए। ब्रज में विराजते श्रीगुसांईजी पे उनका बहुत आदर भाव था। इसलिए मंदिर के कार्य में कोई पत्ते तोड़े तो उनको माफ कर देते।
अलीखान की एक पुत्री थी। वह भी पूर्व की दैवी जीव थी। उनका बचपन से ही भगवान में रस लगा हुआ था। खेलने के लिए वह लालन ढूंढ के लाई थी। उनको नए वस्त्र श्रृंगार पहनावे, खिलायें और उसमें तन्मय हो जाए। उसके सहज प्रेम के अधीन होकर श्रीनाथजी उसको साक्षात दर्शन लेने के लिए पधारते। इतना ही नहीं उसके साथ खेलते, नृत्य करते और खूब आनंद देते।
एक दिन पिता ने नृत्य का नाद सुना और द्वार की संध में से देखा। बेटी को श्रीजी के साथ देख वह भाव विवश बन गए। सुबह होने पर कहने लगे ," बेटी! तू मेरी भगवान को विनती कर कि मेरे ऊपर कृपा करें। मुझे दर्शन दें।"
पुत्री ने श्रीजी को विनती की। श्रीजी ने आज्ञा की ,"आप दोनों कल सुबह श्री यमुनाघाट पर जाना वहां श्रीगुसांईजी पधारेंगे उनके शरण में जाना । बाद में मैं तेरे पिता को दर्शन दूंगा।"
पुत्री ने पिता को सब बात बताई। तब वह श्रीगुसांईजी के शरण गए। फिर दोनों नित्य आपकी कथा सुनने आने लगे।सुनते सुनते वह तल्लीन हो जाते।आप श्री के शब्द शब्द को वह चातक - स्वाति के जल जैसे हदय में संपूर्ण संग्रह कर लेते।
श्रीगुसांईजी उत्तम श्रोता को जान गए।फिर अलीखान आते तब ही कथा का आरंभ करते। वैष्णव सोच में हो जाते और कई बार आपस में बात करते, 'अरे भाई, यह मलेच्छ में ऐसा क्या है कि वह जब आते हैं तब ही आपश्री पोथी खोलते हैं! कुछ समझ नहीं आता। क्या हम सब सुनने वाले नहीं हैं?’
वैष्णव श्रीगुसांईजी के सामने कुछ भी नहीं बोलते, लेकिन वे अंतर्यामी हैं, वैष्णवों का संदेह दूर करने के लिए एक दिन कथा शुरू करने से पहले वैष्णवों के सामने दृष्टि की और पूछा, " अरे, कल पुस्तक में कहां निशानी रखी थी वह रह गया है। कौन सा प्रसंग कहां तक पढ़ा था,बताओ तो कोई?"
सब वैष्णव एक दूसरे के सामने देखने लगे। किसी को याद ना आया। फिर अलीखान की छोटी सी बेटी ने दो हाथ जोड़कर विनती की , "कृपानिधान, मैं बोलूं ? आप आज्ञा दो तो जब से कथा श्रवण की तब से हर रोज का प्रसंग कहें।"
वैष्णव सब चकित हो गए मन में सोचा कि जिन की ऐसी कथा आसक्ति है, उसके ऊपर ही आपश्री की ऐसी विशेष चाहना रहती है, वह योग्य ही है।
सिद्धांत नवनीत
१) श्रीठाकुरजी ने अलीखान और उनकी बेटी को सेवक बनाएँ उससे पहले रास के दर्शन कराएं, फिर भी श्रीगुसांईजी के सेवक होने की आज्ञा की ; क्योंकि श्रीगुसांईजी के संबंध बिना भगवद भाव दृढ नहीं होता।श्रीमहाप्रभुजी और श्रीगुसांईजी के संबंध से ही पुष्टि जीवों के ऊपर श्रीठाकुरजी कृपा करते हैं और उनकी कानी से ही सेवा का अंगीकार करते हैं।