हमारे उपनिषदो के दर्शन को वेदांत दर्शन कहा जाता है। इन उपनिषद की शिक्षा के विषय में कई आचार्यों का मतभेद रहा है। उसके सामने श्री व्यासजी ने अपने "ब्रह्मशूत्र" में एकरूपता भी दर्शाई है।
परंतु इस ब्रह्मसूत्र की शिक्षा में भी कई आचार्यों ने अलग-अलग मत बताया है। इस आधार पर वेदांत के पाँच दार्शनिक मतों की स्थापना हुई है। जिसमें एक समान बात यह है कि सबने "अद्वैत" मत का प्रतिपादन किया है।
अद्वैत का अर्थ है:- अंतिम सत्ता सिर्फ़ एक ही है। इस बात का वेद और उपनिषद कई जगह पर समर्थन करते हैं, जैसे "सर्वम् खलु ईदम् ब्रह्म".....।
पर फिर ब्रह्म के जीव और जगत से सम्बंध बताने सब आचार्यों के अलग अलग मत रहे हैं। और उस आधार पर सब के सिद्धान्त के नाम भी अलग हैंं।
श्री शंकराचार्य अद्वैतवाद के प्रवर्तक थे।
तो रामानुज ने विशिष्टद्वैत की बात की।
माधवाचार्य ने द्वैतवाद का दर्शन दिया तो
श्री वल्लभाचार्यजी ने शुद्धाद्वैतवाद की स्थापना की। निम्बार्काचार्य ने अपने मत का नाम द्वैताद्वैत रखा।
श्री वल्लभाचार्यजी ने अपने शुद्धाद्वैत-दर्शन द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि जो सत्य तत्त्व है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। जगत भी ब्रह्म का अविकृत परिणाम होने से ब्रह्मरूप ही है, अतः सत्य है इसलिए उसका कभी विनाश नहीं हो सकता। उसका केवल अविर्भाव और तिरोभाव होता है। सृष्टि के पूर्व और प्रलय की स्थिति में जगत अव्यक्त होता है, यह उसके तिरोभाव की स्थिति होती है। जब सृष्टि की रचना होती है तो जगत पुनः व्यक्त हो जाता है, यह उसके अविर्भाव की स्थिति है। तिरोभाव की स्थिति में जगत अपने कारण रूप ब्रह्म में अव्यक्तावस्था में लीन रहता है।
जगत:-
श्री वल्लभाचार्यजी का मत है कि जब ब्रह्म ( ब्रह्म भगवान कृष्ण) प्रपंच में (जगत के रूप में) रमण करना चाहते है तो वे अनन्त रूप-नाम के भेद से स्वयं ही जगत रूप बनकर क्रीड़ा करने लगते है। और जब जगत-रूप में भगवान ही क्रीड़ा करते हैं, तो जगत भगवान का ही रूप है और इसी कारण वह सत्य है, मिथ्या या मायिक नहीं है।
श्री वल्लभाचार्यजी द्वारा प्रतिपादित शुद्धाद्वैत दर्शन में 'जगत' और 'संसार' को अलग अलग माना जाता है। भगवान जगत के अभिन्न-निमित-प्राप्ति का कारण है। वे जगत रूप में प्रकट हुए है, इसलिए जगत भगवान का रूप है, और सत्य है। जगत भगवान की रचना है, कृति है। जबकि संसार भगवान की रचना नहीं है।संसार जीव कृत है। अविद्याग्रस्त जीव जब 'यह मैं हूँ यह मेरा है', ऐसी कल्पना कर लेता है, तब जीव स्वयं अहं और ममता का घेरा बनाकर अहंता-ममतात्मक संसार की कल्पना कर लेता है। वह अपने अहंता-ममतात्मक संसार में रचा-बसा रहता है, उसी में उलझ कर रहते हुए बंधन में पड़ जाता है। जीव के द्वारा अज्ञानवश रचा गया यह संसार काल्पनिक, असत्य और नाशवान् होता है।
जीव ब्रह्म :-
श्रीवल्लभाचार्य के अनुसार जीव ब्रह्म ही है। यह भगवत्स्वरूप ही है, किन्तु उनका आनन्दांश-आवृत रहता है। जीव ब्रह्म से अभिन्न है, जब परब्रह्म की यह इच्छा हुई कि वह एक से अनेक हो जाये तो अक्षर ब्रह्म से हज़ारों- लाखों की संख्या में जीव उसी तरह से उद्भूत हुए, जैसे कि आग में से अनेक स्फुलिंग निकलते हैं।जीव का व्युच्चरण होता है उत्पत्ति नहीं। जीव इस प्रकार ब्रह्म का अंश है और नित्य है। लीला के लिए जीव में से आनन्द का अंश निकल जाता है, जिससे कि जीव बंधन और अज्ञान में पड़ जाता है। जीव का जन्म और विनाश नहीं होता, शरीर की उत्पत्ति और नाश होता है।श्रीवल्लभाचार्य के अनुसार वह ज्ञाता है। जीव अणु है किन्तु वह सर्वव्यापक और सर्वज्ञ नहीं है, चैतन्य के कारण वह भोग करता है। लीला के उद्देश्य से जगत् में वैविध्य लाने के लिए जीवों के तीन प्रकार बताये गये हैं :-
शुद्ध जीव :- जिस जीव में आनन्दांश का तिरोभाव रहता है, पर अविद्या से जिसका सम्बन्ध नहीं रहता, वह शुद्ध कहलाता है।
संचारी :- जब जीव का अविद्या से सम्बन्ध हो जाता है और वह जन्मादि क्रियाओं के बन्धन का विषय हो जाता है तो वह संचारी कहलाता है, संचारी जीव भी देव और आसुर भेद से दो प्रकार के होते हैं।
मुक्त :- जो जीव ईश्वर के अनुग्रह से सच्चिदानंद रूप का प्राप्त करते हैं और ईश्वरमय हो जाते हैं, वे मुक्त कहलाते हैं।
पति रूप या स्वामी रूप में श्रीकृष्ण की सेवा करना जीव का धर्म है। जीवों का जीवत्व, ईश्वर की आविर्भाव एवं तिरोभाव क्रियाओं का परिणाम है। इन क्रियाओं के द्वारा ही ईश्वर की कुछ शक्तियां एवं गुण जीव में तिरोभूत और कुछ आविर्भूत हो जाते हैं।
ब्रह्म :-
श्री वल्लभाचार्य ब्रह्म के लक्षण को स्पष्ट करते हुई कहते हैं कि ब्रह्म आकाश की तरह अनंत-सर्वत्र है। सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर स्थित है।निराकार होते हुए भी साकार है, परंतु ब्रह्म के अवयव रक्त, माँस, अस्थि, और मज्जावाले ना हो कर, कर-पाद-मुख आदि आनंदमात्र है। इस लिए वो आनंदमय है। ब्रह्म निर्गुण हैं, क्यों कि प्राकृत धर्मों से रहित है, ब्रह्म सगुण भी है, क्योंं कि वो अलौकिक धर्मों से युक्त है।ब्रह्म विरुद्ध धर्मों का आश्रय होने के कारण निर्गुण और सगुण है।
भगवान का स्वरूप:-
भगवान को जानने के लिए भगवान का रूप जानना ज़रूरी है।
१- कृति - कर्म
२- आकृति - दिखाव-रूप
३- प्रकृति - स्वभाव
१- कृति- कर्म
विश्व की उत्तपत्ति, स्थिति और लय, ये प्रभु का कर्म है। विश्व में जो कुछ भी होता है, हम जो कुछ भी करते है, ये सब प्रभु कृपा से ही होता है। उनके सोचने के अनुसार ही होता है।
२- आकृति- रूप :- भगवान का रूप सच्चिदानंद है। सत्, चित्त और आनंद।
अ- सत्- क्रिया शक्ति, ब-चित्त- ज्ञान शक्ति, क- आनंद- इच्छा शक्ति।
भगवान जो भी करते है वो आनंद रूप होता है।
३-प्रकृति- स्वभाव:-
भगवान का स्वभाव हमारे भौतिक, अध्यात्मिक और आधिदैविक दुःख दूर करने वाला है।
मतलब, जब हम कुछ भी करें या कुछ भी हमारे साथ घट रहा है वो हम नहीं, परंतु प्रभु कर रहे हैं, यह बात हमेशा याद रखने से प्रभु सब का दुःख दूर करते है। ये प्रभु का स्वभाव है।
श्री कृष्ण ही परब्रह्म है:-
वेदों में बताया है उसके अनुसार कृष्ण ही परब्रह्म है।
ऋगवेद में महामृत्युंजय जाप की व्याख्या श्री शायणाचार्य ने बतायी है, उसके अनुसार त्रयम्बकंम का अर्थ,
त्रयम्बकंब- ब्रह्मा, विष्णु और महेश के मात-पिता त्रयम्बक हैं, ऐसा होता है।
अब ये त्रयम्बक कृष्ण हैं,कैसे?
आदि शंकराचार्य ने केशव नाम का विवरण बताते हुए कहा है,
केशव:-
कै=क..ब्रह्मा
अ=अकर-विष्णु
ई=ईसान..महेश
ये तीन मूर्ति(भगवान) जिसके वश में रहकर अपना कार्य करते हैं वह केशव हैं। अर्थात जो ये तीनों मूर्ति के कार्य को नियंत्रण करता हैं, वह केशव ही परब्रह्म है।
श्री महाप्रभुजी "केशव" शब्द में रहे "व " का अर्थ "आनंद स्वरूप " करते है।
परमात्मा ने अपने अकेले पन को दूर करने के लिए स्वयं के दो हिस्से किए। जिसमें से एक कृष्ण और दूसरे राधाजी का आगमन हुआ। और फिर प्रभु ने अपने रमण के हेतु पृथ्वी का निर्माण किया।
पृथ्वी के नियंत्रण के लिये भगवान ने स्वयं के तीन गुण में से तीन मूर्ति का निर्माण किया।
१- सतो गुण में से जो मूर्ति (रूप) बनी वो है "विष्णु"।
२- रजों गुण में से जो मूर्ति(रूप) बनी वो है "ब्रह्मा"।
३- तमों गुण में से जो मूर्ति(रूप) बनी वो है "शिव"।
इन तीन गुण के कार्य:-
१- राजो गुण का कार्य है उत्पत्ति करना= ब्रह्मा।
२- सत्व गुण का कार्य है पालन करना= विष्णु।
३- तमों गुण का कार्य है लीन करना= शिव।
यह तीन गुण, जिससे पूरी सृष्टि चलती है, एेसे गुण धारण करने वाली मूर्ति जिसने उत्त्पन्न की हैं वह "केशव" ही परब्रह्म हैं।
श्री महाप्रभु जी ने इन सिद्धांतों की स्थापना के लिये अखंड भारत का भ्रमण तीन बार किया तथा विद्वानों से शास्त्रार्थ करके अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। प्रथम संवत् १५५३, दूसरी संवत् १५५८ तथा तीसरी संवत् १५६६ में। ये यात्रायें लगभग उन्नीस वर्षो में पूरी हुई।