श्रीमहाप्रभुजी -
१)
रामकली:
जो पे श्री वल्लभ चरण गहे। तो मन करत वृथा क्यों चिंता हरि हिय आय रहे । जन्म -जन्म के कोटीक पातक छीनही मांज दहे। साधन कर साधो जिन कोऊ सब सुख सुगम लहे। कोटि- कोटि अपराध क्षमा कर सदा नेह निबहे ।अब संदेह करो जिन कोऊँ करुणासिंधु लहे। अबलों बिन सेवे श्रीवल्लभ भवदु:ख बहुत सहे। 'रसिक' महानिधि पाय और फल मन- वच- क्रम न चहे। ।।
अर्थ:
हे मन! जब तूने श्रीवल्लभ के चरण पकड़ लिए तो अब व्यर्थ चिंता क्यों करता है , तेरे हृदय में प्रभु विराजमान हो गए। उनके अनेक जनमों के पाप क्षण भर में भस्म हो गए। अब साधना द्वारा सिद्धि की आवश्यकता नहीं रही, सारे सुख सुलभ हो गए। करोड़ो अपराध क्षमा करके सदा वे सनेह निभाएंगे। अब कोई भी संदेह मत करो,करूणासागर मिल गए हैं ,अब तक श्री वल्लभ की सेवा बिना बहुत से संसारिक दु:ख सहने पडे हैं । ए "रसिक" इतनी बड़ी निधि प्र।प्त करके अब किसी अन्यफल की मन , वचन व कर्म से चाह मत कर।
२)
बिलावल:
चरण लग्यो चित्तमेरो श्री वल्लभ, चरण लग्यो चित्तमेरो । इन बिन आन कछु नही भावे इन चरनन के चेरो।
इन्हीं छाँड और जो ध्यावे सो मूर्ख जु धनेरो।' गोविंददास ' यह निश्चिय कीनो सोई ज्ञान भलेरो ।।।
अर्थ;----
. मेरा मन श्री वल्लभ के चरणों में लग गया है।अब इन के बिना दूसरा कुछ अच्छा नहीं लगता है, मैं इन चरणों का दास हो गया हूं। जो इनहे छोडकर अन्य ध्यान करता है वह महामूर्ख है। गोविंददास ने इस भला करने वाले, ज्ञान का निश्चय कर लिया है।