Uddhava Gita The Last Message Of Shri Krishna



Uddhava Gita The Last Message Of Shri Krishna



Uddhav Gita / उद्धव गीता /अध्याय 1

उद्धव उवाच:देवदेवेश योगेश पुण्यश्रवणकीर्तन ।संहृत्यैतत् कुलं नूनं लोकं संत्यक्ष्यते भवान् ।विप्रशापं समर्थोऽपि प्रत्यहन्न यदीश्वरः ॥१॥उद्धवजी ने कहा -योगेश्वर! आप देवाधिदेवों के भी अधीश्वर हैं। आपकी लीलाओं के श्रवण-कीर्तन से जीव पवित्र हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। आप चाहते, तो ब्राह्मणों के शाप को मिटा सकते थे । परंतु आपने वैसा किया नहीं।इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंश का संहार करके, इसे समेट कर अवश्य ही इस लोक का परित्याग कर देंगे ॥१॥
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Uddhav Gita /उद्धवगीता - अध्याय -2

अवधूतोपाख्यान- पृथ्वी से लेकर कबूतरतक आठ गुरुओं की कथाश्रीभगवानुवाचयदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे ।ब्रह्मा भवो लोकपालाः स्वर्वासं मेऽभिकाङ्क्षिणः ॥१॥भगवान् श्रीकृष्णने कहा- महाभाग्यवान् उद्धव! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है मैं यही करना चाहता हूँ । ब्रह्मा, शंकर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते हैं कि मैं उनके लोकों में होकर अपने धामको चला जाऊँ ॥१॥
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Uddhav Gita /उद्धवगीता - अध्याय -2/2

स्नेहानुबद्धहृदयावन्योन्यं विष्णुमायया । विमोहितौ दीनधियौ शिशून् पुपुषतुः प्रजाः ॥६१॥ राजन्! सच पूछो तो वे कबूतर-कबूतरी भगवान्‌ की माया से मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक-दूसरे के स्नेहबन्धन से बँध रहा था। वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चों के पालन-पोषण में इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनिया, लोक-परलोक की याद ही न आती ॥६१॥
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Uddhav Gita /उद्धवगीता - अध्याय -3

अवधूतोपाख्यान - अजगरसे लेकर पिङ्गलातक नौ गुरुओंकी कथा ब्राह्मण उवाच सुखमैन्द्रियकंराजन् स्वर्गे नरक एव च । देहिनां यद् यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद् बुधः ॥१॥ अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं-राजन्! प्राणियों को जैसे बिना इच्छा के, बिना किसी प्रयत्न के, रोकने की चेष्टा करने पर भी पूर्वकर्मानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, वैसेही स्वर्गमें या नरकमें-कहीं भी रहें, उन्हें इन्द्रिय सम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। इस लिये सुख और दुःख का रहस्य जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि इनकेलिये इच्छा अथवा किसी प्रकारका प्रयत्न न करे ॥१॥
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Uddhav Gita /उद्धवगीता - अध्याय -4

उद्धवगीता - अध्याय -४ अवधूतोपाख्यान—कूरर से लेकर भृङ्गी तक सात गुरुओं की कथा ब्राह्मण उवाच परिग्रहो हि दुःखाय यद् यत्प्रियतमं नृणाम् । अनन्तं सुखमाप्नोति तद् विद्वान् यस्त्वकिञ्चनः ॥१॥ अवधूत दत्तात्रेयजी ने कहा— राजन् ! मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकट्ठा करना ही उनके दुःख का कारण है। जो बुद्धिमान् पुरुष यह बात समझकर अकिञ्चन भाव से रहता है— शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता - उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है॥१॥
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Uddhav Gita /उद्धवगीता - अध्याय -5

लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपणश्रीभगवानुवाचमयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः ।वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत् ॥१॥साधक को चाहिये कि सब तरह से मेरी शरण में रहकर भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्यारे उद्भव ! (गीता पाञ्चरात्र आदि में) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मो का सावधानी से पालन करे। साथ ही जहाँतक उनसे विरोध न हो वहाँ तक निष्कामभाव से अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचार का भी अनुष्ठान करे ॥१॥अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम् ।गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम् ॥२॥ निष्काम होने का उपाय यह है कि स्वधर्मों का पालन करने से शुद्ध हुए अपने चित्त में यह विचार करे कि जगत के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयों को सत्य समझकर उनकीप्राप्ति के लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख ॥२॥
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Uddhav Gita /उद्धवगीता - अध्याय -6

उद्धवगीता - अध्याय -६ बद्ध, मुक्त और भक्तजनों के लक्षण श्रीभगवानुवाच बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः । गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनम् ॥१॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- प्यारे उद्धव ! आत्मा बद्ध है या मुक्त है, इस प्रकार की व्याख्या या व्यवहार मेरे अधीन रहनेवाले सत्त्वादि गुणों की उपाधि से ही होता है। वस्तुतः -- तत्त्वदृष्टि से नहीं। सभी गुण मायामूलक हैं- इन्द्रजाल हैं- जादू के खेल के समान हैं। इसलिये न मेरा मोक्ष है, न तो मेरा बन्धन ही है ॥१॥ शोकमोहौ सुखं दुःखं देहापत्तिश्च मायया । स्वप्नो यथाऽऽत्मनः ख्यातिः संसृतिर्न तु वास्तवी ॥२॥ जैसे स्वप्न बुद्धि का विवर्त है— उसमें बिना हुए ही भासता है-मिथ्या है, वैसे ही शोक-मोह, सुख-दुःख, शरीर की उत्पत्ति और मृत्यु- यह सब संसार का बखेड़ा माया (अविद्या) के कारण प्रतीत होने पर भी वास्तविक नहीं है ॥२॥
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Uddhav Gita /उद्धवगीता - अध्याय -7

उद्धवगीता - अध्याय -७ सत्सङ्ग की महिमा और कर्म तथा कर्मत्याग की विधि श्रीभगवानुवाच न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च । न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा ॥१॥ व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः । यथावरुन्धे सत्सङ्गः सर्वसङ्गापहो हि माम् ॥२॥ भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्रिय उद्भव ! जगत् में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्सङ्ग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्सङ्ग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय । तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँतक कहूँ-व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्सङ्ग के समान मुझे वश में करने में समर्थ नहीं हैं ॥१-२॥
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Uddhav Gita /उद्धवगीता - अध्याय -8

raddho@gmail.comSat, Jan 18, 6:50 AMto meउद्धवगीता - अध्याय -८हंसरूप से सनकादि को दिये हुए उपदेश का वर्णनश्रीभगवानुवाचसत्त्वं रजस्तम इति गुणा बुद्धेर्न चात्मनः ।सत्त्वेनान्यतमौ हन्यात् सत्त्वं सत्त्वेन चैव हि ॥१॥भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! सत्त्व, रज और तम – ये तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्मा के नहीं । सत्त्वके द्वारा रज और तम – इन दो गुणों पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये। तदनन्तर सत्त्वगुण की शान्तवृत्ति के द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियों को भी शान्त कर देना चाहिये ॥१॥सत्त्वाद् धर्मो भवेद् वृद्धात् पुंसो मद्भक्तिलक्षणः ।सात्त्विकोपासया सत्त्वं ततो धर्मः प्रवर्तते ॥२॥जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है, तभी जीव को मेरे भक्तिरूप स्वधर्म की प्राप्ति होती है। निरन्तर सात्त्विक वस्तुओं का सेवन करने से ही सत्त्वगुण की वृद्धि होती है और तब मेरे भक्तिरूप स्वधर्म में प्रवृत्ति होने लगती है ॥२॥
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