अथ पञ्चदशोऽध्यायः पुरुषोत्तमयोगो
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १ ॥
श्रीभगवान् बोले—आदिपुरुष परमेश्वररूप मूलवाले* और ब्रह्मारूप मुख्य शाखावाले* जिस संसाररूप पीपल के
वृक्षको अविनाशी* कहते हैं, तथा वेद जिसके पत्ते* कहे गये हैं- उस संसाररूप वृक्षको जो पुरुष मूलसहित तत्त्वसे जानता है,
वह वेदके तात्पर्यको जाननेवाला* है ॥ १ ॥
(*१. आदिपुरुष नारायण वासुदेव भगवान ही नित्य और अनन्त तथा सबके आधार होनेके कारण और
सबसे ऊपर नित्यधाममें सगुणरूपसे वास करनेके कारण ऊर्ध्व नामसे कहे गये हैं और वे मायापति,
सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ही इस संसाररूप वृक्षके कारण हैं, इसलिये इस संसार वृक्षको 'ऊर्ध्वमूलवाला' कहते हैं।
*२. उस आदिपुरुष परमेश्वरसे उत्पत्तिवाला होनेके कारण तथा नित्यधामसे नीचे ब्रह्मलोकमें वास करनेके कारण,
हिरण्यगर्भ रूप ब्रह्मा को परमेश्वर की अपेक्षा 'अध:' कहा है और वही इस संसारका विस्तार करनेवाला
होनेसे इसकी मुख्य शाखा है, इसलिये इस संसारवृक्षको 'अधः शाखावाला' कहते हैं।
*३. इस वृक्षका मूल कारण परमात्मा अविनाशी है तथा अनादिकालसे इसकी परम्परा चली आती है, इसलिये इस
संसारवृक्षको 'अविनाशी' कहते हैं।
*४. इस वृक्षकी शाखारूप ब्रह्मासे प्रकट होनेवाले और यज्ञादिक कर्मोंके द्वारा इस संसारवृक्षकी रक्षा और वृद्धि
करनेवाले एवं शोभाको बढ़ानेवाले होनेसे वेद 'पत्ते' कहे गये हैं।
*५. भगवान्की योगमायासे उत्पन्न हुआ संसार क्षणभंगुर, नाशवान् और दुःखरूप है, इसके चिन्तनको त्यागकर, केवल
परमेश्वरका ही नित्य निरन्तर अनन्यप्रेमसे चिन्तन करना 'वेदके तात्पर्यको जानना' है।)
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥२॥
उस संसारवृक्षकी तीनों गुणोंरूप जलके द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय-भोगरूप कोंपलोंवाली देव*, मनुष्य और तिर्यक्
आदि योनिरूप शाखाएँ* नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य-लोक में* कर्मों के अनुसार बाँधने वाली
अहंता-ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रही हैं ॥ २ ॥
*१. शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँचों स्थूलदेह और इन्द्रियोंकी अपेक्षा सूक्ष्म होनेके कारण उन शाखाओंकी
'कोंपलों' के रूपमें कहे गये हैं।
२. मुख्य शाखारूप ब्रह्मासे सम्पूर्ण लोकोंके सहित देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि योनियोंकी उत्पत्ति और विस्तार हुआ है,
इसलिये उनका यहाँ 'शाखाओं' के रूपमें वर्णन किया है।
३. अहंता, ममता और वासनारूप मूलोंको केवल मनुष्ययोनिमें कर्मोंके अनुसार बाँधनेवाली कहनेका कारण यह है कि अन्य
सब योनियोंमें तो केवल पूर्वकृत कर्मोंके फलको भोगनेका ही अधिकार हैं और मनुष्ययोनिमें नवीन कर्मोके करनेका भी अधिकार है।)
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल- मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥३॥
इस संसारवृक्षका स्वरूप जैसा कहा है वैसा यहाँ विचारकालमें नहीं पाया जाता*, क्योंकि न तो इसका आदि* है
और न अन्त* है तथा न इसकी अच्छी प्रकार से स्थिति ही है। इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप
अति दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप पीपलके वृक्षको दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा काटकर - ॥ ३ ॥
(*१. इस संसारका जैसा स्वरूप शास्त्रों में वर्णन किया गया है। और जैसा देखा-सुना जाता है, वैसा तत्त्वज्ञान होनेके पश्चात् नहीं
पाया जाता, जिस प्रकार आँख खुलनेके पश्चात् स्वप्रका संसार नहीं पाया जाता।
*२. इसका आदि नहीं है, यह कहनेका प्रयोजन यह है कि इसकी परम्परा कबसे चली आती है, इसका कोई पता नहीं है।
*३. इसका अन्त नहीं है यह कहने का प्रयोजन है कि इसकी परंपरा कब तक चलती रहेगी, इसका कोई पता नहीं है ।)
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥४॥
उसके पश्चात् उस परम पदरूप परमेश्वरको भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसारमें नहीं
आते और जिस परमेश्वरसे इस पुरातन संसारवृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायणके मैं
शरण हूँ- इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये ॥ ४ ॥
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा- अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञ- र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥५॥
जिसका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोषको जीत लिया है, जिनकी परमात्माके स्वरूपमें
नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्णरूप से नष्ट हो गयी हैं - वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन
उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥६॥
जिस परमपदको प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसारमें नहीं आते, उस स्वयंप्रकाश परमपदको नसूर्य प्रकाशित
कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही वही मेरा परमधाम है ॥ ६ ॥
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥७॥
इस देहमें यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है* और वही इन प्रकृतिमें स्थित मन और
पाँचों इन्द्रियोंको आकर्षण करता है ॥ ७ ॥
(* जैसे विभागरहित स्थित हुआ भी महाकाश घटोंमें पृथक्-पृथक्की भाँति प्रतीत होता है, वैसे ही सब
भूतोंमें एकीरूपसे स्थित हुआ भी परमात्मा पृथक् पृथक्की भाँति प्रतीत होता है, इसीसे देहमें स्थित
जीवात्माको भगवान्ने अपना 'सनातन अंश' कहा है।)
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥८॥
वायु गन्धके स्थानसे गन्धको जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीरका
त्याग करता है, उससे इन मनसहित इन्द्रियोंको ग्रहण करके फिर जिस शरीरको प्राप्त होता है-उसमें जाता है ॥ ८ ॥
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥९॥
यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचाको तथा रसना, घ्राण और मनको आश्रय करके - अर्थात् इन सबके
सहारेसे ही विषयोंका सेवन करता है ॥ ९ ॥
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥१०॥
शरीरको छोड़कर जाते हुएको अथवा शरीर में स्थित हुएको अथवा विषयोंको भोगते हुएको इस प्रकार तीनों
गुणोंसे युक्त हुएको भी अज्ञानीजन नहीं जानते, केवल ज्ञानरूप नेत्रोंवाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्त्वसे जानते हैं ॥ १० ॥
यतन्तो योगिनःश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥११॥
यत्न करनेवाले योगीजन भी अपने हृदयमें स्थित इस आत्माको तत्त्वसे जानते हैं; किन्तु जिन्होंने अपने अन्तःकरणको
शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानते ॥ ११ ॥
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥१२॥
सूर्यमें स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमामें है और
जो अग्निमें है— उसको तू मेरा ही तेज जान ॥ १२ ॥
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥१३॥
और मैं ही पृथ्वीमें प्रवेश करके अपनी शक्तिसे सब भूतोंको धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात्
अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूँ ॥१३॥
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥१४॥
मैं ही सब प्राणियोंके शरीरमें स्थित रहनेवाला प्राण और अपानसे संयुक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर
चार प्रकारके अन्नको पचाता हूँ ॥ १४ ॥
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो- मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो - वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥१५॥
मैं ही सब प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामी- रूपसे स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन* होता है और सब
वेदोंद्वारा मैं ही जाननेके योग्य' हूँ तथा वेदान्तका कर्ता औरवेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ ॥ १५ ॥
(* विचारके द्वारा बुद्धिमें रहनेवाले संशय विपर्यय आदि दोषोंको हटानेका नाम 'अपोहन' है।)
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१६॥
इस संसारमें नाशवान् और अविनाशी भी ये दो प्रकारके' पुरुष हैं। इनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियोंके शरीर तो
नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है ॥ १६ ॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥१७॥
इन दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकोंमें प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है
एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा- इस प्रकार कहा गया है ॥ १७ ॥
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥१८॥
क्योंकि मैं नाशवान् जडवर्ग क्षेत्रसे तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीवात्मासे भी उत्तम हूँ, इसलिये लोकमें
और वेदमें भी पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ ॥ १८ ॥
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥१९॥
भारत ! जो ज्ञानी पुरुष मुझको इस प्रकार तत्त्व पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे
निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है ॥ १९ ॥
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतबुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥२०॥
हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्वसे जानकर
मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है ॥२०॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो
नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥